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सच्चा वैष्णव कौन ?

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वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर पराई जाणे रे।
पर दु:खे उपकार करे तोय, मन अभिमान न आणे रे।।

‘वैष्णव जन तो तेने कहिये’ गुजरात के संत कवि नरसी मेहता द्वारा रचित भजन है जो महात्मा गाँधी को बहुत प्रिय था। नरसीजी का कथन है कि वैष्णव वही है जिसका चित्त परदु:ख से द्रवित हो जाता है। दूसरों के दु:ख दूर करने के लिए वह कुछ भी कर सकता हैं परन्तु उनके मन में इस बात का जरा भी अभिमान नहीं होता है।

वैष्णव शब्द का सम्बन्ध भगवान विष्णु से है

नारायण: परं ब्रह्म सखं नारायण: परम्।
नारायण: परं ज्योतिरात्मा नारायण: पर:।।

वैष्णव शब्द का सम्बन्ध भगवान विष्णु से है। भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) ही वैष्णव धर्म के आराध्य और उपास्य भी हैं। वैष्णवजन अपने आराध्य को ठाकुरजी या प्रभुजी कहकर सम्बोधित करते हैं।

वैष्णव कहलाने के लिए वैष्णव संस्कार चाहिए, जैसे—

वैष्णव का जीवन भगवदीय होता है। उसका मन, बुद्धि और चित्त सब ठाकुरजी में लग जाता है, इसलिए वैष्णव को किसी सुख की अभिलाषा नहीं रह जाती क्योंकि ठाकुरजी को घर में पधराकर ‘हम तो सेवक हैं, घर के मालिक ठाकुरजी हैं और उनकी सेवा में जो सुख है उसकी तुलना में सभी सुख व्यर्थ हैं’—इस भावना से वह अपने मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर को भगवान की सेवा में लगा देता है। वह हर समय भगवान का स्मरण करता है और उसके हर श्वांस में भगवान का विश्वास बढ़ता है। सूरदासजी ने कहा है—

यामें कहा घटैगो तेरो।
नन्द नन्दन कर घर कौ ठाकुर अपुन ह्वै रह चेरो।।

वैष्णव अपने आहार की शुद्धि का बहुत ध्यान रखता है। दु:खों से विचलित नहीं होता और सुख में आपे से बाहर नहीं होता है। भगवान ही मेरे रक्षकसर्वस्य हैं—इस प्रकार के दैन्यभाव को धारणकर वह भगवान के चरणों में आत्मसमर्पण कर देता है।

वह भगवान से कुछ याचना नहीं करता। प्रारब्ध को वह भगवान का प्रसाद समझकर भोगता है। विषयों में उसको कोई राग नहीं होता लेकिन भगवान और उनके भक्तों से अनुराग होता है। मृत्यु को वह अपना प्रिय अतिथि मानता है। वैष्णव की दृष्टि सदैव चौथे पुरुषार्थ मोक्ष पर होती है। मोक्ष से उसका तात्पर्य संसार के आवागमन से मुक्ति नहीं वरन् ब्रह्मानन्द को अनुभव करना है। भगवान उसका योगक्षेम वहन करते, उसे स्मरण रखते और उसे परम पद प्रदान करते हैं।

कर्म करते समय वैष्णव सोचता है कि भगवान ही अपने लिए, अपनी प्रसन्नता के लिए इस कर्म को करा रहे हैं और कर्म पूरा हो जाने पर वह सोचता है कि भगवान ने ही अपने लिए, अपनी प्रसन्नता के लिए स्वयं ही यह कर्म करा लिया।

विनम्रता ही है सच्चे वैष्णव की पहचान

एक वैष्णव तीर्थयात्रा करता हुआ वृन्दावन जा रहा था। रास्ते में संध्या होने पर उसने एक गांव में रात बितानी चाही । वह सिवाय वैष्णव के किसी और के घर ठहरना नहीं चाहता था । उसे मालूम हुआ कि इस गांव में सभी वैष्णव रहते हैं । उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने गांव में जाकर एक गृहस्थ का दरवाजा खटखटाया । अंदर से एक व्यक्ति आया तो यात्री ने कहा—‘भाई! मैं वैष्णव हूँ, सुना है कि इस गांव में सभी वैष्णव रहते हैं । मैं एक रात यहां ठहरना चाहता हूँ ।’

गृहस्थ ने कहा—‘मैं तो अधम हूँ, मेरे सिवाय इस गांव में और सब वैष्णव हैं । हां, आप कृपा करके मुझे आतिथ्य करने का अवसर दें तो मैं अपने को धन्य समझूंगा ।’ यात्री ने सोचा—मुझे तो वैष्णव के घर ठहरना हैं, इसलिए उसने दूसरे व्यक्ति के दरवाजे पर जाकर पूछा । वहां भी रहने वाले व्यक्ति ने बड़ी नम्रता के साथ यह कहते हुए अपने यहां ठहरने की प्रार्थना की कि ‘भाई! मैं तो अत्यन्त नीच हूँ । मुझे छोड़कर यहां अन्य सभी वैष्णव हैं ।’

इस तरह वह यात्री पूरे गांव में भटका परन्तु किसी ने भी अपने को वैष्णव नहीं बताया बल्कि सभी ने बड़ी ही नम्रता से अपने को दीन-हीन व तुच्छ कहा । सभी गांववालों की ऐसी विनम्रता देखकर उसकी आंखें खुल गईं और वैष्णवता का झूठा चोला पहनने का उसका भ्रम दूर हो गया।

वैष्णवता का अभिमान करने से ही कोई वैष्णव नहीं होता

उसे समझ में आ गया कि वैष्णवता का अभिमान करने से ही कोई वैष्णव नहीं होता । वैष्णव तो वही है जो भगवान विष्णु की तरह अत्यन्त विनम्र है । भगवान विष्णु के हृदय पर भृगुरेखा ही उनकी विनम्रता की पहचान है । उसकी मन की आंखें खुल गईं और उसने अपने को सबसे नीचा समझकर एक वैष्णव के घर रात्रि विश्राम किया ।

भगवान विष्णु के हृदय पर भृगुरेखा

एक बार भृगु ऋषि देवों की परीक्षा करने के लिए भगवान नारायण के पास आए। भगवान नारायण शेषशय्या पर सोये हुए थे । लक्ष्मीजी सेवा कर रही थीं। भृगु ऋषि को क्रोध आ गया। सोचने लगे कि ये तो सारा दिन सोते ही रहते हैं । उन्होंने नारायण की छाती पर लात मार दी। नारायण जागे । प्रभु ने भृगु ऋषि से कहा–‘आपके कोमल चरणों को आघात लगा होगा, लाइए आपकी सेवा करूँ।’ प्रभु ने भृगु-लांछन-चिह्न छाती में धारण कर लिया।

छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात।।

लक्ष्मीजी ने कहा–‘इस ब्राह्मण को सजा दीजिए।’ पर प्रभु ने तो भृगु ऋषि की सेवा करनी शुरू कर दी । लक्ष्मीजी नाराज हो गयीं। लक्ष्मीजी ने नारायण से कहा–‘विद्या बढ़ती है तो साथ में अभिमान भी बढ़ता है जिससे विद्या और तप का विनाश हो जाता है; इसलिए इन्हें सजा दीजिए ।’ पर प्रभु ने इन्कार कर दिया। नाराज होकर लक्ष्मीजी वैकुण्ठ छोड़कर कोल्हापुर में जाकर रहीं ।

सच्चे वैष्णव के लक्षण

किसी गृहस्थ के दो पुत्र थे । एक पुत्र सवेरे ब्राह्ममुहुर्त में उठकर स्नान आदि करके पूजा करता और दूसरा पुत्र सुबह सात बजे सोकर उठता । सुबह जल्दी उठकर पूजा करने वाले को घमण्ड हो गया कि मैं बड़ा वैष्णव हूँ और ये तो बड़ा ही मूर्ख है जो सोता रहता है ।

उसने इसकी शिकायत अपने पिता से की। पिता ने कहा—‘चाहे वह मूर्ख है किन्तु वह किसी की निंदा तो नहीं करता । तुम जल्दी उठकर उसकी बुराई करने में लग जाते हो, उसका तिरस्कार करने में आनन्द अनुभव करते हो। यह सच्चे वैष्णव का लक्षण नहीं है ।’

किसी भी प्राणी के प्रति दुर्भावना रखना परमात्मा के प्रति बुरी भावना रखने के समान

पूर्वभाषी प्रसन्नात्मा सर्वेषां वीतमत्सर:।
अनसूयो गुणग्राही धार्मिको वैष्णव: स्मृत:।। (वैष्णवस्मृति)

  • सभी मनुष्यों से प्रसन्न होकर पहले बोलने वाला,
  • प्रसन्नहृदय, ईर्ष्यारहित,
  • किसी में भी दोष न देखने वाला,
  • अच्छी बातों को ग्रहण करने वाला,
  • धार्मिक और सभी कर्मों को भगवान को अर्पण करने वाला,
  • काम-क्रोध-लोभ रहित,
  • कृष्णसेवा और कृष्णकथारस में ही रत रहने वाला,
  • जो सब में ईश्वर के दर्शन करे,
  • जिससे कोई उद्विग्न न हो,
  • जिसे यह चिन्ता रहे कि मुझसे किसी का नुकसान न हो जाए, वही सच्चा वैष्णव है ।

समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, पर स्त्री जेने मात रे।
जिहृवा थकी असत्य न बोले, पर धन नव झाले हाथ रे।।

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कब से शुरु हुई शिवलिंग पूजन की परम्परा ?

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आ गई महाशिवरात्रि पधारो शंकरजी ।
कष्ट मिटाओ पार उतारो दयालु शंकरजी ।।
तुम मन-मन में हो, मन-मन में है नाम तेरा ।
तुम हो नीलकंठ, है कंठ-कंठ में नाम तेरा ।।
क्या भेंट चढ़ाएं हम, निर्धन का घर सूना है ।
ले लो ये दो आंसू ही, गंगाजल का नमूना है ।।

भगवान शिव की पूजा दो रूपों—मूर्ति और लिंग में क्यों की जाती है ?

लिंगपुराण के अनुसार शिव अविनाशी, परब्रह्म परमात्मा हैं । भगवान शिव के दो रूप हैं—सकल और निष्कल । रूप व कलाओं से युक्त होने के कारण उन्हें ‘सकल’ (समस्त अंग व आकार वाला ) कहा जाता है और लिंग रूप में अंग-आकार से रहित निराकार होने के कारण  उन्हें ‘निष्कल’ कहते हैं । शिवलिंग शिव के निराकार स्वरूप का प्रतीक है । अन्य देवताओं के आविर्भाव के समय उनका साकार रूप प्रकट होता है, जबकि भगवान शिव के साकार और निराकार दोनों ही रूपों में दर्शन होते हैं । यही कारण है कि लोग लिंग और मूर्ति —दोनों ही रूपों में भगवान शिव की पूजा करते हैं ।

ब्रह्माजी और भगवान विष्णु के मध्य हुआ श्रेष्ठता का विवाद

पूर्वकल्प में ब्रह्माजी और भगवान विष्णु के विवाद और अभिमान को मिटाने के लिए भगवान शिव ने अग्निस्तम्भ के रूप में अपना निष्कल स्वरूप प्रकट किया । उसी समय से संसार में भगवान शिव के निर्गुण लिंग व सगुण मूर्ति की पूजा प्रचलित हुई ।

चतुर्युगी के अंत में प्रलय होने पर चारों ओर जल-ही-जल हो गया । उस प्रलय के जल में भगवान विष्णु कमल पर शयन कर रहे थे । उन्हें देखकर माया से मोहित ब्रह्माजी ने कहा—‘तुम कौन हो, जो इस तरह निश्चिन्त होकर सो रहे हो ?’ भगवान विष्णु ने हंसते हुए ब्रह्माजी से कहा—‘वत्स ! बैठो ।’ यह सुनकर ब्रह्माजी ने गुस्से से कहा—‘तुम कौन हो जो मुझे वत्स कह रहे हो, तुम नहीं जानते कि मैं सृष्टि का कर्ता ब्रह्मा हूँ ।’

भगवान विष्णु ने कहा—‘जगत का कर्ता, भर्ता, हर्ता मैं हूँ । तुम तो मेरे नाभिकमल से उत्पन्न हुए हो, अत: तुम मेरे पुत्र हो । मेरी माया से मोहित होकर तुम मुझे ही भूल गये ?’

दोनों में विवाद होने लगा । दोनों ही अपने को ईश्वर सिद्ध कर रहे थे । हंस और गरुड़ पर चढ़कर दोनों आपस में युद्ध करने लगे । इससे भयभीत होकर देवगणों ने कैलास जाकर भगवान शिव से विवाद को शान्त करने की गुहार लगाई ।  

अग्निस्तम्भ (Pillar of Fire) के समान ज्योतिर्लिंग का प्राकट्य

भगवान शिव इस विवाद की शान्ति के लिए एक अति प्रकाशवान ज्योतिर्लिंग (प्रकाशस्तम्भ pillar of light या अग्निस्तम्भ pillar of fire) के रूप में प्रकट हुए । इस ज्वालामय लिंग का कोई ओर-छोर नजर नहीं आता था । उस लिंग को देखकर ब्रह्माजी और भगवान विष्णु सोचने लगे कि हम दोनों के बीच में यह कौन-सी वस्तु आ गयी है ? उन्होंने निश्चय किया कि जो कोई इस लिंग के अंतिम भाग को छूकर आएगा वही परमेश्वर माना जाएगा ।

Vishnu and Brahma made salutations to Shiva and offered him a seat. The Pillar of fire is Bhagwan Shiv.
अग्निस्तम्भ (Pillar of Fire) के समान ज्योतिर्लिंग का प्राकट्य

उस लिंग के आदि व अंत को जानने के लिए भगवान विष्णु विशाल वराह का रूप धारण कर लिंग के नीचे की ओर गए और ब्रह्मा हंस का रूप धारण कर ऊपर की ओर उड़े । दोनों थक कर वापिस आ गए किन्तु दोनों को ही उस ज्योतिर्लिंग के ओर-छोर का पता नहीं लगा । दोनों ही विचार करने लगे कि यह क्या है जिसका कहीं न आदि है न अंत?

ब्रह्माजी और भगवान विष्णु ने उस अग्निस्तम्भ को साष्टांग प्रणाम कर प्रार्थना की—‘भगवन् ! हमें अपने यथार्थ स्वरूप का दर्शन कराइए ।’ तभी उन्हें ‘ॐ ॐ’ की ध्वनि सुनाई दी । उन्होंने देखा कि ज्योतिर्लिंग की दांयी ओर अकार, बांयी ओर उकार और बीच में मकार है । अकार सूर्य की तरह, उकार अग्नि की तरह और मकार चन्द्रमा की तरह चमक रहे थे । सम्पूर्ण वेदों में इस प्रणव को ब्रह्म कहा गया है । दोनों ने उन तीनों वर्णों के ऊपर साक्षात् ब्रह्म की तरह भगवान शिव को देखा ।

भगवान शिव ने उन्हें दिव्य ज्ञान देते हुए कहा—‘जो अग्निस्तम्भ तुम दोनों को पहले दिखाई दिया था, वह मेरा निर्गुण, निराकार और निष्कल स्वरूप है, जो मेरे ब्रह्मभाव को दिखाता है; यही वास्तविक स्वरूप है, इसी का ध्यान करना चाहिए और साक्षात् महेश्वर मेरा सकल रूप है ।

ब्रह्माजी और भगवान विष्णु द्वारा की गयी शिव पूजा का दिन कहलाता है शिवरात्रि

भगवान शिव के दर्शन पाकर ब्रह्माजी और भगवान विष्णु ने विभिन्न वस्तुओं—चंदन, अगरु, वस्त्र, यज्ञोपवीत, पुष्पमाला, हार, नूपुर, केयूर, किरीट, कुण्डल, पुष्प, नैवेद्य, ताम्बूल, धूप, दीप, छत्र, ध्वजा, चंवर आदि से भगवान शिव की पूजा की और स्तुति करते हुए कहा—

नमो निष्कलरूपाय नमो निष्कलतेजसे ।
नम: सकलनाथाय नमस्ते  सकलात्मने ।।

प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अचल भक्ति का वरदान देते हुए कहा—‘तुम दोनों ज्योतिर्लिंग की उपासना कर सृष्टि का कार्य बढ़ाओ । आज के दिन तुम्हारे द्वारा मेरी पूजा होने से यह दिन परम पवित्र ‘शिवरात्रि’ के नाम से प्रसिद्ध होगा । इस समय जो मेरे लिंग और मूर्ति की पूजा करेगा, उसे पूरे वर्ष भर की मेरी पूजा का फल प्राप्त होगा । पूजा करने वालों के लिए मूर्ति और लिंग दोनों समान है, फिर भी मूर्ति से लिंग का स्थान ऊंचा है । शिवलिंग का पूजन सभी प्रकार के भोग और मोक्ष देने वाला है ।’

उच्च कोटि के साधक ज्योतिर्लिंग का ध्यान हृदय में, आज्ञाचक्र में या ब्रह्मरन्ध्र में करते हैं परन्तु साधारण लोगों के लिए पूजा का यह रूप अत्यन्त कठिन है । अत: भगवान शिव लिंग के रूप में प्रतिष्ठित हुए । उसी समय से संसार में शिवलिंग के पूजन की परम्परा शुरु हुई ।

ब्रह्ममुरारि सुरार्चितलिंगं निर्मलभासित शोभितलिंगं ।
जन्मदु:ख विनाशकलिंग तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगं ।। (लिंगाष्टक १)

अर्थात्—जो लिंग स्वरूप में ब्रह्मा, विष्णु एवं समस्त देवताओं द्वारा पूजित है और निर्मल कान्ति से सुशोभित है, जो लिंग जन्मजय दु:ख का विनाशक है अर्थात् मोक्ष देने वाला है, उस सदाशिव लिंग को मैं प्रणाम करता हूँ ।

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अद्भुत है शिवलिंग की उपासना

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सृष्टि के आरम्भ से ही ब्रह्मा आदि सभी देवता, रामावतार में भगवान श्रीराम, ऋषि-मुनि, यक्ष, विद्याधर, सिद्धगण, पितर, दैत्य, राक्षस, पिशाच, किन्नर आदि विभिन्न प्रकार के शिवलिंगों का पूजन करते आए हैं। जहां शिवलिंग की उपासना से देवताओं को स्वर्ग का राज्य, कुबेर को लंका का निवास, मन के समान वेगशाली पुष्कर विमान, लोकपाल का पद  तथा राज्य-सम्पत्ति प्राप्त हुई; मार्कण्डेय, लोमश आदि ऋषियों को दीर्घ आयु, ज्ञान आदि की प्राप्ति हुई; वहीं पृथ्वी पर राजाओं ने शिवपूजन से अष्ट सिद्धि नवनिधि के साथ चक्रवर्ती साम्राज्य प्राप्त किया । इसलिए लिंग के रूप में सदैव भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए । लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में भगवान विष्णु व ऊपरी भाग में प्रणव रूप में भगवान शिव विराजमान रहते हैं । लिंग की वेदी पार्वती हैं और लिंग महादेव हैं । जो वेदी के साथ लिंग की पूजा करता है उसने शिव और पार्वती का पूजन कर लिया ।

देवताओं के द्वारा विभिन्न प्रकार के शिवलिंगों का पूजन

ब्रह्माजी की आज्ञा से विश्वकर्मा ने विभिन्न पदार्थों से शिवलिंगों का निर्माण कर देवताओं को दिए ।

चित्र सोना, हीरा, पन्ना, नीलम, अष्टधातु और पीतल का शिवलिंग
चित्र सोना, हीरा, पन्ना, नीलम, अष्टधातु और पीतल का शिवलिंग

किस देवता ने की किस प्रकार के शिवलिंग की पूजा

  • विष्णु ने सदा नीलकान्तमणि (नीलम) से बने लिंग की पूजा की;
  • इन्द्र ने पद्मरागमणि (पुखराज) से निर्मित लिंग की;
  • कुबेर ने सोने के लिंग की;
  • विश्वेदेवों ने चांदी के शिवलिंग की;
  • वसुओं ने चन्द्रकान्तमणि से बने लिंग की;
  • वायु ने पीतल से बने लिंग की;
  • अश्विनीकुमारों ने मिट्टी से बने लिंग की;
  • वरुण ने स्फटिक के लिंग की;
  • आदित्यों ने तांबे से बने लिंग की;
  • सोमराट् ने मोती से बने लिंग की
  • अनन्त आदि नागों ने प्रवाल (मूंगा) निर्मित लिंग की;
  • दैत्यों और राक्षसों ने लोहे से बने लिंग की;
  • चामुण्डा आदि सभी मातृशक्तियों ने बालू से बने लिंग की;
  • यम ने मरकतमणि (पन्न) से बने लिंग की;
  • रुद्रों ने भस्मनिर्मित लिंग की;
  • लक्ष्मी ने लक्ष्मीवृक्ष बेल से बने लिंग की;
  • गुह ने गोयम (गोबर) लिंग की;
  • मुनियों ने कुश के अग्रभाग से निर्मित लिंग की;
  • वामदेव ने पुष्पलिंग की;
  • सरस्वती ने रत्नलिंग की;
  • मन्त्रों ने घी से निर्मित लिंग की;
  • वेदों ने दधिलिंग की; और
  • पिशाचों ने सीस से बने लिंग की पूजा की ।

विभिन्न प्रकार के शिवलिंग की पूजा का फल

सुन्दर घर, बहुमूल्य आभूषण, सुन्दर पति/पत्नी, मनचाहा धन, अपार भोग और स्वर्ग का राज्य—ये सब शिवलिंग की पूजा के फल हैं । शिवोपासना करने वाले मनुष्य की न तो अकालमृत्यु होती है और न सर्दी या गर्मी आदि से ही उसकी मृत्यु होती है । लिंग विभिन्न वस्तुओं से बनाए जाते हैं और उनके पूजन का फल भी अलग होता है अत: अपनी मनोकामना के अनुसार शिवलिंग का चयन कर पूजन करना चाहिए ।

  • दो भाग कस्तूरी, चार भाग चंदन तथा तीन भाग कुंकुम से गंध लिंग बनाया जाता है । इसकी पूजा से शिव सायुज्य की प्राप्ति होती है ।
  • सुगन्धित पुष्पों से पुष्प लिंग बनाकर पूजा करने से राज्य की प्राप्ति होती है ।
  • बालु से ‘बालुकामय लिंग’ बनाकर पूजन करने से व्यक्ति शिव सायुज्य पाता है ।
  • आरोग्य लाभ के लिए मिश्री से ‘सिता खण्डमय लिंग’ का निर्माण किया जाता है ।
  • हरताल, त्रिकटु को लवण में मिलाकर ‘लवणज लिंग बनाया जाता है। यह वशीकरण करने वाला और सौभाग्य देने वाला है ।
  • भस्ममय लिंग सर्वफल प्रदायक माना गया है ।
  • जौ, गेहूँ और चावल के आटे का बने यव गोधूम शालिज लिंग के पूजन से स्त्री, पुत्र तथा श्री सुख की प्राप्ति होती है ।
  • तिल को पीस कर तिलपिष्टोत्थ लिंग बनाया जाता है । यह मनोकामना पूर्ण करता है ।
  • गुडोत्थ लिंग प्रीति में बढ़ोतरी करता है ।
  • वंशांकुर निर्मित लिंग बांस के अंकुर से बनाया जाता है । इससे वंश बढ़ता है ।
  • केशास्थि लिंग शत्रुओं का नाश करता है ।
  • दूध, दही से बने शिवलिंग का पूजन कीर्ति, लक्ष्मी और सुख देता है ।
  • रत्ननिर्मित लिंग लक्ष्मी प्रदान करने वाला है ।
  • पाषाण लिंग समस्त सिद्धियों को देने वाला है ।
  • धातुनिर्मित लिंग धन प्रदान करता है ।
  • काष्ठ लिंग भोगसिद्धि देने वाला है ।
  • दूर्वा से बना लिंग अकालमृत्यु का नाश करता है ।
  • कर्पूरज लिंग मुक्ति देने वाला है ।
  • मौक्तिक लिंग सौभाग्य देने वाला है ।
  • स्वर्ण लिंग महामुक्तिप्रद है ।
  • धान्यज लिंग धान्य देने वाला है ।
  • फलोत्थ लिंग फलप्रद है ।
  • नवनीत लिंग कीर्ति और सौभाग्य देने वाला है ।
  • धात्रीफल (आंवला) से बना लिंग मुक्ति देने वाला है।
  • पीतल और कांसे का लिंग मुक्ति देने वाला है ।
  • सीसे का लिंग शत्रुनाशक है ।
  • अष्टधातुज लिंग सर्वसिद्धि देने वाला है ।
  • स्फटिक लिंग सर्वकामप्रद होता है ।
  • मिट्टी से बना पार्थिव लिंग सभी सिद्धियों को देने वाला और शिवसायुज्य को देने वाला है ।
  • पारद लिंग का सबसे अधिक माहात्म्य है। ‘पारद’ शब्द में प=विष्णु, आ=कालिका, र= शिव, द= ब्रह्मा—ये सब स्थित होते हैं। पारदलिंग की एक बार भी पूजा करने से धन, ज्ञान, सिद्धि और ऐश्वर्य मिलते हैं ।
  • नर्मदा नदी के सभी कंकर ‘शंकर’ माने गए हैं। इन्हें नर्मदेश्वर या बाणलिंग भी कहते हैं। लिंगार्चन में बाणलिंग का अपना अलग ही महत्व है। यह हर प्रकार के भोग व मोक्ष देने वाला है।

कलियुग में इन चीजों से बने शिवलिंग की पूजा का है निषेध

तांबा, सीसा, रक्तचंदन, शंख, कांसा, लोहा—इनसे बने लिंगों की पूजा कलियुग में वर्जित है ।

शिवरात्रि पर अपनी कामना के अनुसार करें शिवलिंग का चयन

शिव की उपासना में जहां रत्नों व मणियों से बने लिंगों की पूजा में अपार वैभव देखने को मिलता है, वहीं मिट्टी से शिवलिंग बनाकर केवल, जल, चावल और बिल्वपत्र अर्पित कर देने व ‘बम-बम भोले’ कहने से ही शिव कृपा सहज ही प्राप्त हो जाती है।

औढरदानी उदार अपार जु नैक सी सेवा तें ढुरि जावैं।
दमन अशान्ति, समन संकट विरद विचार जनहिं अपनावै ।।
ऐसे कपालु कृपामय देव के क्यों न सरन अबहिं चलि जावैं ।
बड़भागी नरनारि सोई जो साम्ब सदाशिव को नित ध्यावैं ।। (शिवाष्टक)

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यमराज को मिला मृत्युदण्ड

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प्रबल प्रेम के पाले पड़कर शिव को नियम बदलते देखा ।
उनका मान टले टल जाये, भक्त का बाल-बांका न होते देखा ।।

जब से भगवान हैं, तभी से उनके भक्त हैं और जब से भगवान की कथाएं हैं, तभी से भक्तों की कथा शुरु होती है । बिना भक्तों के अकेले भगवान की कोई कथा-लीला हो ही नहीं सकती; क्योंकि भक्त ही भगवान की लीला के अंग होते हैं ।

मृत्यु को कोई जीत नहीं सकता। स्वयं ब्रह्मा भी चतुर्युगी के अंत में मृत्यु के द्वारा परब्रह्म में लीन हो जाते हैं।लेकिन भगवान शिव ने अनेक बार मृत्यु को पराजित किया है इसलिए वे ‘मृत्युंजय’ और काल के भी काल महाकाल कहलाते हैं ।

ईश्वर के प्रिय भक्त का स्वामी ईश्वर ही होता है । उस पर मौत का भी अधिकार नहीं होता है । यमराज भी उस पर जबरदस्ती करे तो मौत (यमराज) की भी मौत हो जाती है । यह प्रसंग कोई काल्पनिक नहीं हैं वरन् महान शिवभक्त राजा श्वेत के जीवन पर आधारित है ।

महान शिवभक्त श्वेतमुनि

प्राचीन काल में कालंजर में शिवभक्त राजा श्वेत राज्य करते थे । उनकी भक्ति से राज्य में अन्न, जल की कमी नहीं थी । राज्य में राग, द्वेष, चिन्ता और अकाल नहीं था । वृद्ध होने पर राजा श्वेत पुत्र को राज्य सौंप कर गोदावरी नदी के तट पर एक गुफा में शिवलिंग स्थापित कर शिव की आराधना में लग गए । अब वे राजा श्वेत से महामुनि श्वेत बन गए थे । उनकी गुफा के चारों ओर पवित्रता, दिव्यता और सात्विकता का राज्य था । निर्जन गुफा में मुनि ने शिवभक्ति का प्रकाश फैलाया था । श्वेतमुनि को न रोग था न शोक; इसलिए उनकी आयु पूरी हो चुकी है, इसका आभास भी उन्हें नहीं हुआ । उनका सारा ध्यान शिव में लगा था । वे अभय होकर रुद्राध्याय का पाठ कर रहे थे और उनका रोम-रोम शिव के स्तवन से प्रतिध्वनित हो रहा था ।

काल के भी काल महाकाल

यमदूतों ने मुनि के प्राण लेने के लिए जब गुफा में प्रवेश किया तो गुफा के द्वार पर ही उनके अंग शिथिल हो गए । वे गुफा के द्वार पर ही खड़े होकर श्वेतमुनि की प्रतीक्षा करने लगे । इधर जब मृत्यु का समय निकलने लगा तो चित्रगुप्त ने मृत्युदेव से पूछा—‘श्वेत अब तक यहां क्यों नहीं आया ? तुम्हारे दूत भी अभी तक नहीं लौटे हैं । ऐसी अनियमितता ठीक नहीं है ?’ यह सुनकर क्रोधित मृत्युदेव स्वयं श्वेत के प्राण लेने के लिए आए । लेकिन गुफा के द्वार पर कांपते हुए यमदूतों ने मृत्युदेव से कहा—‘श्वेत तो अब राजा न रहकर महामुनि हैं, वे शिव के परम भक्त व उनके द्वारा सुरक्षित हो गए है, हम उनकी ओर आंख उठाकर देखने में भी समर्थ नहीं हैं ।‘

मृत्यु उसका क्या कर सकती है जिसने मृत्युंजय की शरण ली है?

मृत्युदेव स्वयं पाश लेकर श्वेतमुनि की कुटिया में प्रवेश करने लगे । श्वेतमुनि उस समय भगवान शंकर की पूजा कर रहे थे । सहसा अपने सामने काले वस्त्र पहने, काले व विकराल शरीर वाले मृत्युदेव को देखकर वे चौंक पड़े और शिवलिंग का स्पर्श कर बोले—‘मृत्युदेव ! आप यहां क्यों पधारे हैं । आप यहां से चले जाइए । जब वृषभध्वज मेरे रक्षक हैं तो मुझे किसी का भय नहीं, महादेव इस शिवलिंग में विद्यमान हैं ।’

मृत्युदेव ने अनसुनी करके कहा—‘मुझसे ग्रस्त प्राणी को ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से कोई भी नहीं बचा सकता । मैं तुम्हें यमलोक ले जाने आया हूँ ।’

श्वेतमुनि ने निर्भयता से शिवलिंग को अंक में भरते हुए कहा—‘तुमने काल के भी काल महाकाल की भक्ति को चुनौती दी है, भगवान उमापति कण-कण में व्याप्त हैं । विश्वासपूर्वक उनको पुकारने पर वे भक्त की रक्षा अवश्य करते हैं  ।’

‘मुझे तुम्हारे आराध्य से कोई भय नहीं। तुम कहते हो कि इस लिंग में महादेव हैं पर यह तो निश्चेष्ट है, तब यह कैसे पूज्य है ?’ यह कहकर क्रोधित मृत्युदेव ने हाथ में पाश लेकर श्वेतमुनि पर फंदा डाल दिया ।

शिव की आज्ञा से श्वेतमुनि की रक्षा के लिए उनके समीप भैरव बाबा खड़े थे । उन्होंने मृत्युदेव को वापिस लौट जाने की चेतावनी दी ।

मौत की भी मौत

भक्त पर मृत्यु का यह आक्रमण भैरव बाबा को सहन नहीं हुआ । उन्होंने मृत्युदेव पर डंडे से प्रहार कर दिया जिससे मृत्युदेव वहीं पर ठंडे हो गए ।

कांपते हुए यमदूतों ने यमराज के पास जाकर सारा हाल सुनाया । मृत्युदेव की मृत्यु का समाचार सुनकर  क्रोधित यमराज हाथ में यमदण्ड लेकर भैंसे पर सवार होकर अपनी सेना (चित्रगुप्त, आधि-व्याधि आदि) के साथ वहां पहुंचे ।

शिवजी के पार्षद पहले से ही वहां खड़े थे । सेनापति कार्तिकेय ने शक्तिअस्त्र यमराज पर छोड़ा जिससे यमराज की भी मृत्यु हो गयी । यमदूतों ने भगवान सूर्य के पास जाकर सारा समाचार सुनाया ।

अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर भगवान सूर्य ब्रह्माजी व देवताओं के साथ उस स्थान पर आए जहां यमराज अपनी सेना के साथ मरे पड़े थे । देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की ।

‘हमारा प्राकटय विश्वास के ही अधीन है’—यह कहकर भगवान शिव प्रकट हो गए। उनकी जटा में पतितपावनी गंगा रमण कर रही थीं, भुजाओं में फुफकारते हुए सर्पों के कंगन पहन रखे थे, वक्षस्थल पर भुजंग का हार और कर्पूर के समान गौर शरीर पर चिताभस्म का श्रृंगार सुन्दर लग रहा था ।

देवताओं ने कहा—‘भगवन् ! यमराज सूर्य के पुत्र हैं । वे लोकपाल हैं, आपने ही इनकी धर्म-अधर्म व्यवस्था के नियन्त्रक के रूप में नियुक्ति की है । इनका वध सही नहीं है । इनके बिना सृष्टि का कार्य असम्भव हो जाएगा । अत: सेना सहित इन्हें जीवित कर दें नहीं तो अव्यवस्था फैल जाएगी ।’

भगवान शंकर ने कहा—‘मैं भी व्यवस्था के पक्ष में हूँ। मेरे और भगवान विष्णु के जो भक्त हैं, उनके स्वामी स्वयं हम लोग हैं । मृत्यु का उन पर कोई अधिकार नहीं होता । स्वयं यमराज और उनके दूतों का उनकी ओर देखना भी पाप है । यमराज के लिए भी यह व्यवस्था की गयी है कि वे भक्तों को प्रणाम करें ।’

भगवान शिव ने दिया यमराज को प्राणदान

भगवान शिव ने देवताओं की बात मान ली । शिवजी की आज्ञा से नन्दीश्वर ने गौतमी नदी का जल लाकर यमराज और उनके दूतों पर छिड़का जिससे सब जीवित हो उठे । यमराज ने श्वेतमुनि से कहा—‘सम्पूर्ण लोकों में अजेय मुझे भी तुमने जीत लिया है, अब मैं तुम्हारा अनुगामी हूँ । तुम भगवान शिव की ओर से मुझे अभय प्रदान करो ।’

श्वेतमुनि ने यमराज से कहा—‘भक्त तो विनम्रता की मूर्ति होते हैं । आपके भय से ही सत्पुरुष परमात्मा की शरण लेते हैं ।’ प्रसन्न होकर यमराज अपने लोक को चले गए।

शिवजी ने श्वेतमुनि की पीठ पर अपना वरद हस्त रखते हुए कहा—‘‘आपकी लिंगोपासना धन्य है, श्वेत ! विश्वास की विजय तो होती है ।’

श्वेतमुनि शिवलोक चले गए । यह स्थान गौतमी के तट पर मृत्युंजय तीर्थ कहलाता है ।

वामदेवं महादेवं लोकनाथं जगद्गुरुम् ।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्यु: करिष्यति ।।

अर्थात्—जिनके वामदेव, महादेव, विश्वनाथ और जगद्गुरु नाम हैं, उन भगवान शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ, मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

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ग्रह-नक्षत्र, कर्मफल और सुख-दु:ख

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प्रभु बैठे आकाश में लेकर कलम दवात ।
खाते में वह हर घड़ी लिखते सबकी बात ।।
मेरे मालिक की दुकान में सब लोगों का खाता ।
जितना जिसके भाग्य में होता वह उतना ही पाता ।।
क्या साधु क्या संत, गृहस्थी, क्या राजा क्या रानी ।
प्रभु की पुस्तक में लिखी है सबकी कर्म कहानी ।।
सभी जनों के जमाखर्च का सही हिसाब लगाता ।
बड़े-बड़े कानून प्रभु के, बड़ी बड़ी मर्यादा ।।
किसी को कौड़ी कम नहीं देता और न दमड़ी ज्यादा ।
इसीलिए तो दुनिया में वह जगतसेठ कहलाता ।।
करते हैं सभी फैसले प्रभु आसन पर डट के ।
उनके फैसले कभी न बदले, लाख कोई सर पटके ।।
समझदार तो चुप रहता है, मूर्ख शोर मचाता ।
अच्छी करनी करो चतुरजन, कर्म न करियो काला ।।
धर्म कर्म मत भूलो रे भैया, समय गुजरता जाता ।
मेरे मालिक की दुकान में सब लोगों का खाता ।।

स्वकर्म से ही बनती है मनुष्य की जन्मकुण्डली

सबको अपना भविष्य जानने की इच्छा होती है, इसके लिए हम ज्योतिष का सहारा लेते हैं । ज्योतिषशास्त्र कर्मफल बताने की विद्या है । ज्योतिषशास्त्र किसी भी मनुष्य के भावी सुख-दु:ख की भविष्यवाणी करता है और ग्रहों को इसका कारण मानकर ग्रहशान्ति के लिए दान-जप-हवन आदि उपाय बताता है ।

कर्मों की गहन गति

यह संसार मनुष्य की कर्मभूमि और भोगभूमि दोनों है। जन्म-जन्मान्तर में किए हुए समस्त कर्म संस्काररूप से मनुष्य के अंतकरण में एकत्र रहते हैं, उनका नाम संचित कर्म है । उनमें से जो वर्तमान जन्म में फल देने के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं, उनका नाम प्रारब्ध कर्म’ है और वर्तमान समय में किए जाने वाले कर्मों को क्रियमाण कर्म’ कहते हैं । ज्योतिषशास्त्र इन्हीं कर्मों के फल को उसी प्रकार दिखलाता है जैसे अंधेरे में पड़ी हुई वस्तु को दीपक का प्रकाश ।

ग्रह-नक्षत्र शुभ-अशुभ फल नहीं देते, मनुष्य के कर्म से मिलता है सुख-दु:ख

महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार एक बार भगवान शंकर से पार्वतीजी ने पूछा—मनुष्यों की जो अच्छी-बुरी अवस्था है, वह सब उनकी अपनी ही करनी का फल है, किन्तु संसार में लोग शुभ-अशुभ कर्म को ग्रहजनित मानकर ग्रह-नक्षत्रों की आराधना करते रहते हैं, क्या यह ठीक है ?

भगवान शंकर ने कहा—‘ग्रहों ने कुछ नहीं किया । ग्रह-नक्षत्र शुभ-अशुभ कर्मफल को उपस्थित नहीं करते हैं, अपना ही किया हुआ सारा कर्म शुभ-अशुभ फल देने वाला है ।’

शुभ कर्मफल की सूचना शुभ ग्रहों द्वारा और बुरे कर्मों की सूचना अशुभ ग्रहों द्वारा होती है

वास्तव में किसी भी मनुष्य के सुख-दु:ख का कारण ग्रह-नक्षत्र नहीं है । ग्रह कर्मों के फलदाता और कर्मफलों के सूचक हैं। जीवों के कर्मों का फल देने वाले भगवान श्रीविष्णु ही ग्रहरूप में रहते हैं । सूर्य का रामावतार, चन्द्रमा का कृष्णावतार, मंगल का नृसिंहावतार, बुध का बुद्धावतार, बृहस्पति का वामनावतार, शुक्र का परशुरामावतार, शनि का कूर्मावतार, राहु का वराहावतार और केतु का मीनावतार है । (लोमशसंहिता)

मनुष्य के कर्मफल का भण्डार अक्षय है उसे भोगने के लिए ही जीव चौरासी लाख योनियों में शरीर धारण करता आ रहा है। इसीलिए मानव शरीर का एक नाम ‘भोगायतन’ है।

कर्मफल अटल हैं इन्हें भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता है। हम अपने सुख-दु:ख, सौभाग्य-दुर्भाग्य के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं, इसके लिए विधाता या अन्य किसी को दोष नहीं दिया जा सकता है—ऐसा जानकर शान्त रहना चाहिए।

रामचरितमानस में तुलसीदासजी कहते हैं—

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ।। (राचमा २।९२।४)

प्रकृति ने मानव जीवन में सन्तुलन के लिए यह व्यवस्था की है कि कुण्डली में छ: भाव सुख के व छ: भाव दु:ख के हैं । दु:ख के बीज से सुख का अंकुर फूटता है। सुख के फल में दु:ख की गुठली होती है । सुख-दु:ख दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जैसा बोयेंगे वैसा पायेंगे

जो हम बोते हैं, वही हमें कई गुना होकर वापिस मिलता है । प्रकृति की इस व्यवस्था से सुख बांटने पर वह हमें कई गुना होकर वापिस मिलता है और दूसरों को दु:ख देने पर वह भी कई गुना होकर हमारे पास आता है । जैसे बिना मांगे दु:ख मिलता है, वैसे ही बिना प्रयत्न के सुख मिलता है ।

करम प्रधान बिस्व करि राखा ।
जो जस करइ तो तस फलु चाखा ।। (राचमा २।२१९।४)

जब सुख-दु:ख हमारे ही कर्मों का फल है तो सुख आने पर हम क्यों फूल जाएं और दु:ख पड़ने पर मुरझाएं क्यों ? क्योंकि सुख-दु:ख सदा रहने वाले नहीं और क्षण-क्षण में बदलने वाले हैं । सुख-दु:ख जब अपनी ही करनी का फल हैं तो एक के साथ राग और दूसरे के साथ द्वेष किसलिए ? गीता में भगवान कहते हैं—

इहैव तैर्जित सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन: । (५। १९)

अर्थात्—जिन लोगों के मन में सुख-दु:ख के भोग में समता आ गई है उन्होंने तो इसी जन्म में और इसी शरीर से ही संसार को जीत लिया और वे जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो गए ।

मनुष्य स्वयं भाग्यविधाता

भाग्य का विधान अटल है । जितने भी ज्योतिषीय उपाय हैं, वे सब तात्कालिक हैं । मनुष्य यदि अपने को एक  खूंटे (इष्टदेव) से बांध ले और ध्यान-जप, सत्कर्म और ईश्वरभक्ति को अपना ले तो जीवन में सब कुछ शुभ ही होगा । कर्म रूपी पुरुषार्थ से ही मनचाहे फल की प्राप्ति होती है । मनुष्य स्वयं भाग्यविधाता है काल तो केवल कर्मफल को प्रस्तुत कर देता है ।

यदि मनुष्य जन्म-मरण के जंजाल से छूटना चाहता है तो भगवान ने उसका भी रास्ता गीता में बताया है—

‘ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरते तथा ।’ (अध्याय ४। ३७)

ज्ञानरूपी अग्नि संचित कर्म के बड़े-से-बड़े भण्डार को क्षणभर में जला डालती है । ज्ञान की चिनगारी जब पाप के ईंधन पर गिरती है तो पाप जलते हैं । ज्ञान को अपनाने पर कर्म सुधरेंगे । तत्वज्ञान होने से कर्म वास्तव में कर्म नहीं रह जाते तब उनका फल तो कैसे ही हो सकता है ? अत: समस्त कर्मों के साथ उनका कर्मफल भी मिट जाता है और जीव को पुन: शरीर धारण नहीं करना पड़ता ।

यह ज्ञान क्या है? यह है—

हम भगवान के हैं, वे हमारे हैं, फिर उनसे हमारा भेद क्या? हम दासत्व स्वीकार कर लें और जो कुछ करें उनके लिए करें (सब कर्म कृष्णार्पण कर दें) या फल की भावना का त्याग कर दें नहीं तो कर्म रूपी भयंकर सर्प काटता ही रहेगा। करने में सावधान रहें और जो हो जाए उसमें प्रसन्न रहे एवं भगवन्नाम जपते रहें, आप एक सच्चे कर्मयोगी बन जाएंगे।

कर से कर्म करो विधि नाना ।
मन राखो जहां कृपा निधाना ।।

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भगवान श्रीकृष्ण और माया

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माया महा ठगनी हम जानी ।
तिरगुन फांस लिए कर डोले, बोले मधुरे बानी ।।
केसव के कमला वे बैठी, शिव के भवन भवानी ।
पंडा के मूरत वे बैठीं, तीरथ में भई पानी ।।
योगी के योगन वे बैठी, राजा के घर रानी ।
काहू के हीरा वे बैठी, काहू के कौड़ी कानी ।।
भगतन की भगतिन वे बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्माणी ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, यह सब अकथ कहानी ।।  (कबीर)

कबीरदासजी का कहना है कि माया महा ठगिनी है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता । यह सत्व, रज, तम—इन तीन गुणों की फांसी लेकर और मीठी वाणी बोलकर जीव को बंधन में जकड़ देती है ।

माया या योगमाया

भगवान की यह योगमाया उनकी अत्यन्त प्रभावशाली वैष्णवी ऐश्वर्यशक्ति है जिसके वश में सम्पूर्ण जगत रहता है । उसी योगमाया को अपने वश में करके भगवान लीला के लिए दिव्य गुणों के साथ मनुष्य जन्म धारण करते हैं और साधारण मनुष्य से ही प्रतीत होते हैं । इसी मायाशक्ति का नाम योगमाया है ।

गीता (४।६) में भगवान श्रीकृष्ण का कथन है—‘मैं अजन्मा और अविनाशी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।’

मायाधिपति श्रीकृष्ण और माया

सृष्टि के आरम्भ में परमब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ने माया को अपने पास बुलाकर कहा कि मैंने संसार की रचना कर ली है अब इस संसार को चलाना तेरा काम है । माया ने कहा–‘भगवन् ! मुझे स्वीकार है, किन्तु एक प्रार्थना है ।’ भगवान ने कहा–‘कहो, क्या प्रार्थना है?’

माया ने कहा–’प्रभु ! इस संसार को चलाने के लिए जिन आकर्षणों की आवश्यकता है, वह तो सब-के-सब आपके पास हैं, उनमें से एक-आध मुझे भी दें ताकि मैं जीवों को अपने जाल में फंसाकर रख सकूं ।’

भगवान ने कहा–‘बोलो क्या चाहिए ?’  माया ने कहा–‘प्रभु ! आप आनन्द के सागर हैं, मेरे पास दु:ख के सिवाय क्या है ?  कृपया आप उस आनन्द के सागर की एक बूंद मुझे भी दे दें ताकि मैं उस एक बूंद का रस संसार के इन समस्त जीवों में बांटकर उन्हें अपने वश में रख सकूं, अन्यथा वे मेरी बात नहीं मानेंगे और सीधे आपके दरबार में पहुंच जाएंगे ।’

भगवान ने अपने आनन्द के सागर की एक बूंद माया को देकर कहा—‘जा, इस बूंद को पांच भागों में विभक्त करके मनुष्यों में बांट देना ।’ प्रसन्न होकर माया ने भगवान से कहा–‘प्रभु ! आप निश्चिन्त रहें, आपके द्वारा सौंपे गए कार्य में कोई विघ्न नहीं आने दूंगी ।’

माया ने आनन्द रूपी सागर की बूंद को पांच भागों–रूप, रस गन्ध, शब्द और स्पर्श में विभक्त कर संसार में फैला दिया । इसलिए संसार में सुख और आनन्द प्राप्ति का इन पांच स्थानों के अलावा और कोई स्थान नहीं है । ये पांच गुण–रूप, रस गन्ध, शब्द और स्पर्श क्रमश: हमें अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश और वायु से प्राप्त होते हैं ।

माया के पांच स्थान हैं पांच ज्ञानेन्द्रियां

इन्हीं पांच तत्त्वों से इस शरीर की रचना हुई है । इन्हीं पांच तत्त्वों को ग्रहण करने के लिए भगवान ने हमें आंख, नाक, कान, जिह्वा और त्वचा—ये पांच ज्ञानेन्द्रियां दे रखी हैं । नासिका के द्वारा हम पृथ्वी के गन्धरूपी गुण को, जिह्वा के द्वारा जल के रसरूपी गुण को, कानों के द्वारा आकाश के शब्दरूपी गुण को और आंखों के द्वारा अग्नि के रूप गुण अर्थात् सुन्दरता को और त्वचा द्वारा वायु के स्पर्श गुण को ग्रहण करते हैं ।

माया के द्वारा फेंके गए मायाजाल में मनुष्य बहुत बुरी तरह जकड़ा हुआ है । मायापति श्रीकृष्ण की माया से मनुष्य ही नहीं वरन् बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी भ्रमित हो जाते हैं ।

मायाधिपति श्रीकृष्ण का दुर्वासा ऋषि को अपनी माया का दर्शन कराना

कृष्णावतार में एक दिन दुर्वासा ऋषि परमात्मा श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए व्रज में आए । उन्होंने महावन के निकट कालिन्दी के तट पर श्रीकृष्ण को गोपसखाओं के साथ बालु में लोटते और आपस में मल्लयुद्ध करते हुए देखा—‘धूलिधूसर सर्वांगं वक्रकेशं दिगम्बरम् ।’

श्रीकृष्ण का सारा शरीर धूल से भरा था, बाल टेढ़े-मेढ़े बिखरे हुए, नंग-धडंग—शरीर पर कोई वस्त्र नहीं और वे गोपबालकों के पीछे दौड़े चले जा रहे थे । परब्रह्म श्रीकृष्ण इस रूप में ! ऋषि आए थे परमात्मा के दर्शन की अभिलाषा से, परन्तु ब्रह्म को जिस वेष में देखा, वह आश्चर्य में पड़ गए। परब्रह्म के जो लक्षण उनके हृदय में बैठे हुए थे वे तो श्रीकृष्ण से मिलते नहीं थे ।

भगवान की माया ने उनके मन में एक शंका और पैदा कर दी—

‘क्या ये ईश्वर हैं ? भगवान हैं तो फिर साधारण बालक की तरह भूमि पर क्यों लोट रहे हैं ? नहीं, ये परमात्मा श्रीकृष्ण नहीं हैं । ये तो नन्दबाबा के पुत्रमात्र हैं, ये ईश्वर नहीं हैं !!’

भगवान की लीला का आयोजन योगमाया ही करती है

दुर्वासा ऋषि को भगवान श्रीकृष्ण का मायावैभव प्रकट कराने के लिए योगमाया प्रकट हुईं । योगमाया सारे खेल का आयोजन करती है । सबके सामने भगवान योगमाया से ढके रहते हैं परन्तु प्रेमीभक्तों के सामने भगवान योगमाया से अनावृत (प्रकट रूप में) रहते हैं ।

श्रीकृष्ण नन्हीं-नन्हीं भुजाओं को उठाये हुए, दौड़ते हुए ऋषि की गोद में आकर बैठ गए और जोर से हंसने लगे ।भगवान हंसकर ही तो जीवों को फंसा लेते हैं । यही तो उनका जादू है ।

खिलखिलाकर हंसते श्रीकृष्ण के मुख में श्वास के साथ योगमाया दुर्वासा ऋषि को खींच लेती है और होंठों के कपाट बंद कर देती है।  अब योगमाया ने दुर्वासा ऋषि को भगवान का वैभव दिखाना शुरु किया। भगवान के मुख में दुर्वासा ऋषि ने सातों लोकों का, पाताल सहित सारे ब्रह्माण्ड का, प्रलय का और अंत में गोलोक का दर्शन किया जहां दिव्य कमल पर साक्षात् गोलोकबिहारी श्रीराधाकृष्ण बैठे हुए थे ।

गोलोकबिहारी श्रीकृष्ण दुर्वासा ऋषि को देखकर हंसने लगे । उनका मुंह खुला और श्वास के साथ ऋषि बाहर आ गए । ऋषि ने आंख खोलकर देखा तो वे गोलोक में नहीं व्रज में उसी कालिन्दीतट पर बालु में खड़े हुए हैं, श्रीकृष्ण सखाओं के साथ वैसे ही खेल रहे हैं और वैसे ही हंस रहे हैं ।

दुर्वासा ऋषि का सारा संशय दूर हो गया और वे समझ गए कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म परमात्मा हैं । अश्रुपूरित नेत्रों से वे भूमि पर लोट गए और वहां की धूल उठा-उठाकर अपने ऊपर डालनी शुरु कर दी । दुर्वासा ऋषि ने ‘नन्दनन्दन स्तोत्र’ के द्वारा भगवान की स्तुति की और ‘कृष्ण-कृष्ण’ रटते हुए बदरिकाश्रम की ओर चले गए ताकि एकान्त में प्यारे श्रीकृष्ण के ध्यान में निमग्न रह सकें ।

नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमाया समावृत: ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ।। (गीता ७।२५)

अर्थात्—अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके सामने प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ, इसलिए यह अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित, अविनाशी परमात्मा को तत्त्व से नहीं जानता है, अर्थात् मुझे जन्मने-मरने वाला मानता है।

भगवान जब मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं तब जैसे बहुरूपिया किसी दूसरे स्वांग में लोगों के सामने आता है, उस समय अपना असली रूप छिपा लेता है; वैसे ही भगवान अपनी योगमाया को चारों ओर फैलाकर स्वयं उसमें छिपे रहते हैं । साधारण मनुष्यों की दृष्टि उस माया के परदे से पार नहीं जा सकती; इसलिए अधिकांश लोग उन्हें अपने जैसा ही साधारण मनुष्य मानते हैं । जो भगवान के प्रेमी भक्त होते हैं, जिन्हें भगवान अपने स्वरूप, गुण, लीला का परिचय देना चाहते हैं, केवल उन्हीं के सामने वे प्रत्यक्ष होते हैं ।

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श्रीलड्डूगोपाल की पूजा की सरल विधि

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करै कृष्ण की जो भक्ति अनन्यं ।
सुधन्यं, सुधन्यं, सुधन्यं, सुधन्यं ।।
सदाँ परिक्रमा दंडवत, नैम लीने ।
सुने गान गोविन्द, गाथा प्रवीने ।।
अलंकार, श्रृंगार, हरि के बनावे ।
रचै राजभोग, महाद्रव्य लावे ।।
करै कृष्ण की जो भक्ति अनन्यं ।
सुधन्यं, सुधन्यं, सुधन्यं, सुधन्यं ।। (श्रीनागरीदासजी)

घर-घर में विराजित श्रीलड्डूगोपाल या गोपालजी

‘योगी जिन्हें ‘आनन्द’ कहते हैं, ऋषि-मुनि ‘परमात्मा’ कहते हैं, संत ‘भगवान’ कहते हैं, उपनिषद् ‘ब्रह्म’ कहते हैं, वैष्णव ‘श्रीकृष्ण’ कहते हैं और माताएं व बहनें प्यार से ‘गोपाल’, ‘लाला’ ‘बालकृष्ण’ या ‘श्रीलड्डूगोपाल’ कहती हैं, वह एक ही तत्त्व है । ये सब अनेक नाम एक ही परब्रह्म के हैं ।’

ब्रजमण्डल ही नहीं देश-विदेश के अधिकांश वैष्णवों के घर में भगवान श्रीकृष्ण का बालस्वरूप ‘श्रीलड्डूगोपाल’ या ‘गोपालजी’ के रूप में विराजमान है । स्त्रियां इनकी सेवा-लाड़-मनुहार गोपी या यशोदा के भाव से करती हैं, तो कई लोग श्रीलड्डूगोपाल की सेवा स्वामी, सखा, पुत्र या भाई के भाव से करते हैं ।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है—‘जो मेरी जिस रूप में आराधना या उपासना करता है, मैं भी उसे उसी रूप में उसी भाव से प्राप्त होता हूँ और उसे संतुष्ट कर देता हूँ।‘

वैष्णवों के कारण ही है भगवान की शोभा

भक्ति करने का अर्थ है भगवान की मूर्ति में, भगवान के मंत्र में मन को पिरो देना । भगवान के बालस्वरूप को घर में प्रतिष्ठित कर देने के बाद उन्हें घर का स्वामी मानते हुए घर का प्रत्येक काम उन्हीं की प्रसन्नता के लिए करना भक्ति है ।

  • मीराबाई के लिए कहा जाता है कि वह अपने गोपाल का सुन्दर श्रृंगार करतीं और उनके सम्मुख कीर्तन व नृत्य करती थीं । भगवान को श्रृंगार की जरुरत नहीं है । श्रृंगार से भगवान की शोभा नहीं बढ़ती वरन् आभूषणों की शोभा भगवान के पहनने से बढ़ती है । साधक जितने समय तक भगवान का श्रृंगार करता है उसकी आंखें व मन भगवान पर ही टिकी रहती हैं जिससे उसका मन शुद्ध होता है और भगवान से प्रेम बढ़ता है । बालकृष्ण के स्वरूप के श्रृंगार में आंखें फंस जाएं तो मनुष्य की नैया पार हो जाती है ।
  • विदुरजी और विदुरानी प्रतिदिन बालकृष्ण का तीन घंटे तक ध्यान फिर पुष्पों से श्रृंगार करते थे । वे विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करते हुए भगवान के श्रीचरणों में तुलसी अर्पित करते थे । कीर्तन से बालकृष्ण को प्रसन्न करके भगवान की कथा भगवान को ही सुनाते थे । बालकृष्ण का दर्शन करते हुए उनकी आंखों में आंसू बहने लगते व शरीर में रोमांच होने लगता था । इस प्रकार सेवा, ध्यान, जप, कीर्तन, कथा आदि में निमग्न रहकर वे मन को भगवान से दूर जाने ही नहीं देते थे । विदुर-विदुरानी की भक्ति से आकर्षित होकर द्वारिकानाथ उनके घर खिंचे चले आए व उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए ।

श्रीलड्डूगोपाल की पूजा की सरल विधि

प्रभु सेवा को खरच न लागे ।
अपनों जन्म सुफल कर मूरख क्यों डरपे जो अभागे ।।
उदर भरन को करी रसोइ सोइ भोग धरे ।
महाप्रसाद होय घटे न किनको अपनो उदर भरे ।।
मीठो जल पीवन को लावे तामें झारी भरे ।
अंग ढांकनकूं चहिये कपड़ा तामें साज करे ।।
जो मन होय उदार तुमारो वैभव कछु बढ़ावो ।
नहिं तो मोरचंद्रिका गुंजा यह सिंगार धरावो ।।
अत्तर फूल फल जो कछु उत्तम प्रभु पहिलेहि धरावो ।
जो मन चले वस्तु उत्तम पे प्रभु को धर सब खावो ।।
कर सम्बन्ध स्वामी सेवक को चल मारग की रीति ।
पूरन प्रभु भाव के भूखे देखें अंतर की प्रीति ।।
यामें कहा घट जाय तिहारो घर की घर में रहिहे ।
वल्लभदास होय गति अपनी भलो भलो जग कहिहे ।।

इस पद में यह बताया गया है कि ठाकुरजी (व्रज में श्रीलड्डूगोपाल को ठाकुरजी कहते हैं) की सेवा में कोई अलग से खर्च नहीं होता है । वे अभागे हैं जो खर्चे के डर से उनकी पूजा नहीं करते और अपना जन्म सफल करने से वंचित रह जाते हैं । घर के सदस्यों के लिए जो भोजन बने उसी से पहिले ठाकुरजी को भोग लगा दो, वह महाप्रसाद बन जाएगा किन्तु उसमें से एक किनका भी कम नहीं होगा । घर में अपने पीने के लिए जो जल है, उसी से ठाकुरजी के पीने के लिए झारी भर दो । अपने शरीर को ढकने के लिए आप वस्त्र लाते हैं, उसी से उनका पीताम्बर बना दो । यदि श्रद्धा और सामर्थ्य हो तो कुछ वैभव (सोना-चांदी के श्रृंगार) की वस्तुएं उनके लिए ले आओ, नहीं तो केवल मोरमुकुट और गुंजामाला से भी ठाकुरजी प्रसन्न हो जाते हैं । इत्र, फल-फूल घर में हों तो पहिले ठाकुरजी को अर्पण कर दो । अगर तुम्हारा मन कुछ अच्छा खाने को करे तो पहिले ठाकुरजी को अर्पण करके खाओ । ठाकुरजी के साथ स्वामी का सम्बन्ध रखते हुए उन्हीं के बताए मार्ग पर चलें । वे तो केवल भाव के भूखे हैं और साधक के मन के भाव ही देखते हैं । इस तरह ठाकुरजी की सेवा करने से कुछ घटता भी नहीं, सब कुछ घर का घर में ही रहता है और मनुष्य का लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं ।

श्रीलड्डूगोपाल को प्रसन्न करने के विशेष उपाय

बालरूप श्रीलड्डूगोपाल से जैसा प्रेम आप करेंगें, उससे हजारगुना प्रेम वह आपके साथ करेंगे । जो श्रीलड्डूगोपाल की सेवा-ध्यान में तन्मय रहता है उसके ऊपर संसार के सुख-दु:ख का प्रभाव नहीं पड़ता है । उसके अनेक जन्मों के पाप एक ही जन्म में जल जाते हैं और दारिद्रय दूर होकर घर में स्थिर लक्ष्मी का वास होता है क्योंकि श्रीलड्डूगोपाल का एक नाम है—‘भक्तदारिद्रयदमनो’ । श्रीलड्डूगोपाल को प्रसन्न करने के लिए उनकी सेवा इस प्रकार करें—

—शंख में जल भरकर ‘ॐ नमो नारायणाय’ या ‘गोपीजनवल्लभाय नम:’ या ‘श्रीकृष्णाय नम:’ का उच्चारण करते हुए बालकृष्ण को नहलाना चाहिए । इससे मनुष्य के सारे पाप दूर हो जाते हैं।

—संभव हो तो प्रतिदिन अन्यथा द्वादशी और पूर्णिमा को श्रीलड्डूगोपाल को गाय के दूध से स्नान कराकर चंदन अर्पित करना चाहिए।

—स्कन्दपुराण के अनुसार प्रतिदिन प्रात:काल में जो श्रीलड्डूगोपाल को माखन-मिश्री, दूध-दही व तुलसी की मंजरियां, चंदन का इत्र व कमल का पुष्प अर्पण कर प्रसन्न करता है, वह इस लोक में समस्त वैभव प्राप्त करके मृत्यु के बाद उनके परम धाम को प्राप्त करता है।

—भगवान बालकृष्ण को श्यामा तुलसी की श्याम मंजरी अति प्रिय है ।

—श्रीलड्डूगोपाल की सेवा करने वाले वैष्णव को गले में तुलसी की कण्ठी पहननी चाहिए । गले में तुलसी माला धारण करने का अर्थ है कि यह शरीर कृष्णार्पण कर दिया है, यह शरीर अब परमात्मा का हुआ ।

—श्रीलड्डूगोपाल को माखन-मिश्री अत्यन्त प्रिय है । माखन दूध का सारतत्त्व है । बालकृष्ण की सेवा करने वाले वैष्णव सार-भोगी बनते हैं ।

—भगवान को अर्पित भोग की वस्तु में तुलसी रखते हैं, तब वह वस्तु कृष्णार्पण होती है । जिस घर में भगवान को भोग लगाया जाता है उस घर में लक्ष्मीजी और अन्नपूर्णा अखण्डरूप से विराजमान रहती हैं । उस पवित्र अन्न को खाने से मनुष्य की बुद्धि सात्विक रहती है और शरीर में रोग उत्पन्न नहीं होते हैं ।

—श्रीलड्डूगोपाल का प्रिय मन्त्र दामोदर-मन्त्र है—‘श्रीदामोदराय नम:’ । इस मन्त्र को दामोदरमास (कार्तिक मास) में करने से भगवान बालगोपाल शीघ्र ही प्रसन्न होकर सिद्धि प्रदान करते हैं । भगवान का कथन है कि अपने दामोदर नाम से मुझे ऐसी प्रसन्नता होती है जिसकी कहीं तुलना नहीं है ।

—श्रीलड्डूगोपाल की पूजा करने वाले वैष्णवों को प्रतिदिन गोपालसहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए । इसके अतिरिक्त श्रीमद्भागवतपुराण के दशम स्कन्ध का प्रतिदिन पाठ (चाहे एक श्लोक का ही क्यों न हो) और गीता का पाठ भी बालकृष्ण को बहुत प्रिय है ।

—श्रीलड्डूगोपाल की प्रतिदिन प्रदक्षिणा व साष्टांग प्रणाम करने से भी उनकी कृपा शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है ।

—श्रीगोपालजी के सहस्त्रों नामों में से कुछ नाम हैं–’नित्योत्सवो नित्यसौख्यो, नित्यश्रीर्नित्यमंगल:।’ (श्रीगोपालसहस्त्रनाम)

अर्थात् वे नित्य उत्सवमय, सदा सुखसौख्यमय, शोभामय और मंगलमय हैं । श्रीकृष्ण के लिए माता यशोदा नित्य ही उत्सव मनाती थीं । बालकृष्ण ने जब पहली बार करवट ली तो उस दिन माता ने कटि-परिवर्तन उत्सव मनाया था और गरीब ग्वालों और गोपियों की पूजाकर उन्हें दान दिया था । इसी कारण व्रजमण्डल में भगवान श्रीकृष्ण के नित्य कोई-न-कोई उत्सव होते रहते हैं ।

घर में ठाकुरजी को प्रतिष्ठित करने के बाद जब भी संभव हो, उनकी प्रसन्नता के लिए उत्सव किए जाने चाहिए । उत्सव भगवान को स्मरण करने और जगत को भुलाने के लिए हैं । उत्सव के दिन भूख-प्यास भुलाई जाती है, देह का बोध भुलाया जाता है । उत्सव में धन गौण है, मन मुख्य है । विभिन्न उत्सवों पर भगवान को ऋतु अनुकूल सुन्दर पोशाक व श्रृंगार धारण कराकर दर्पण दिखाना चाहिए क्योंकि बालकृष्ण अपने रूप पर ही मोहित होकर रीझ जाते हैं । बच्चे की भांति उन्हें सुन्दर खिलौने—गाय, मोर, हंस, बतख, झुनझना, फिरकनी, गेंद-बल्ला, झूला आदि सजाकर प्रसन्न करना चाहिए ।

—श्रीलड्डूगोपाल को प्रतिदिन कोमल नर्म बिस्तर पर शयन करानी चाहिए ।

प्रेम-बंधन से ही बंधते हैं भगवान

यदि वैष्णव भगवान की अपेक्षा जगत से अधिक प्रेम करता है तो यह बात ठाकुरजी को नहीं सुहाती । वे सोचते हैं प्रेम करने योग्य मैं हूँ, यह मुझे क्यों नहीं भजता ? मनुष्य जब भगवान का नाम-जप-सेवा-अर्चना करता है, तो उन्हें उसके योगक्षेम की चिन्ता होती है । ‘मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं’—ऐसा भाव रखकर जो बालगोपाल की सेवा करते हैं तथा भगवान के सिवाय किसी और वस्तु की कामना नहीं करते हैं, उन्हें भगवान अपने स्वरूप का दर्शन कराकर अपने धाम में भेज देते हैं ।

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रात्रि में सोते समय करें यह उपाय, जाग्रत होंगी आन्तरिक शक्तियां

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या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।। (देवीसूक्तम् १२)

‘श’ नाम ऐश्वर्य का और ‘क्ति’ नाम पराक्रम का है अत: ऐश्वर्य-पराक्रमस्वरूप और इन दोनों को देने वाली को ‘शक्ति’ कहते हैं ।

बह् वृचोपनिषद् में कहा गया है–‘सृष्टि के आदि में एक देवी ही थी, उसने ही ब्रह्माण्ड उत्पन्न किया; उससे ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र उत्पन्न हुए । अन्य सब कुछ उससे ही उत्पन्न हुआ । वह ऐसी पराशक्ति है ।’

सारा जगत अनादिकाल से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शक्ति की उपासना में लगा हुआ है । सभी जगह शक्ति का ही आदर और बोलबाला है क्योंकि शक्तिहीन वस्तु जगत में टिक ही नहीं सकती है ।

‘शक्तिहीन को न आत्मा की और न परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है ।’

एक कहावत है कि ‘कमजोरों के लिए संसार में कहीं स्थान नहीं है ।’ कोई निर्बल व्यक्ति स्वतन्त्र नहीं हो सकता है ।

परमात्मा भी शक्ति के साथ ही पूजे जाते हैं । शक्ति के बिना शिव भी शव ही हैं । जैसे पुष्प की गंध चारों ओर फैल कर पुष्प का परिचय कराती है, उसी तरह शक्ति ही परमात्मा का बोध कराती है । कोई इस शक्ति को पराशक्ति, ज्ञानशक्ति, इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति कहते हैं तो कोई इसे जगन्माता, जगदम्बा, जगज्जननी, आद्याशक्ति या देवी के नाम से स्मरण करते हैं । इस शक्ति का निवास सब प्राणियों में है, सब उसकी प्रिय संतान हैं।

मनुष्य एक शक्तिसम्पन्न चेतन आत्मा है

परमात्मा ने किसी को निर्बल या बलवान नहीं बनाया है । मनुष्य निरा मिट्टी का पुतला या हाड़-मांस और रक्त का थैला नहीं है, न ही वह निर्जीव मुर्दे के समान है ।  प्रत्येक मनुष्य एक शक्तिसम्पन्न चेतन आत्मा है जिसके अंदर दैवी-शक्ति छिपी हुई है परन्तु वह गुप्त है । मनुष्य को अपने को हीन या पापी समझकर निराश नहीं होना चाहिए; वरन् अपने अंदर निहित अपार शक्ति को जगाने के लिए शक्ति की उपासना करनी चाहिए क्योंकि शक्ति ही सब कुछ है । शक्ति की ही सर्वत्र आवश्यकता है । शक्ति की उपासना से मनुष्य जिस अवस्था को प्राप्त करना चाहे, वैसी अवस्था प्राप्त कर सकता है और जो कुछ चाहे वह सब कुछ कर सकता है ।  परन्तु अपनी आंतरिक शक्ति को जगाने के लिए मनुष्य को प्रयत्नशील, पुरुषार्थी और परिश्रमी बनना होगा ।

आद्य शंकराचार्य को दिया मां ने शक्ति की उपासना का आदेश

आद्य शंकराचार्य निर्गुण-निराकार अद्वैत ब्रह्म के उपासक थे । एक बार वे काशी आए तो वहां उन्हें अतिसार (दस्त) हो गया जिससे वे अत्यन्त दुर्बल हो गए । एक दिन वे एक स्थान पर बैठे थे, तब उन पर कृपा करने के लिए मां अन्नपूर्णा एक गोपी का रूप बनाकर एक बड़ी दही की मटकी लेकर उनके पास आकर बैठ गयीं ।

कुछ देर बाद उस गोपी ने कहा—‘स्वामीजी ! मेरी मटकी को उठवा दीजिए ।’ शंकराचार्यजी ने कहा—‘मुझमें शक्ति नहीं है, मैं तुम्हारी मटकी उठवाने में समर्थ नहीं हूँ ।’ मां ने कहा—‘तुमने शक्ति की उपासना की होती, तब तुममें शक्ति आती, शक्ति की उपासना के बिना शक्ति कैसे आ सकती है ?’

यह सुनकर शंकराचार्यजी की आंखें खुल गईं । उन्होंने आदिशक्ति की स्तुति के लिए अनेक स्तोत्रों की रचना की ।

शक्ति की उपासना करने के लिए मनुष्य को कुछ गुण विकसित करने होते हैं–

—जिन मनुष्यों का मन कलुषित है, चित्त में अहंकार भरा है, जीभ सदैव झूठ और कड़वी जबान बोलती है, भावनाएं कुत्सित हैं, इन्द्रियां सदैव भोगों में लिप्त रहती हैं, उनके पूजा-पाठ आदि बेकार ही जाते हैं; क्योंकि दुर्गुणों को देखकर इष्टदेव रुष्ट भी हो जाते हैं ।

—दुर्गासप्तशती में लिखा है कि देवी रुष्ट होने पर सभी अभीष्ट कामनाओं का नाश कर देती है–

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥ (सप्तश्लोकी दुर्गा ६)

अर्थात्—देवी ! आप प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हैं और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हैं । जो लोग आपकी शरण में हैं, उनपर विपत्ति तो आती ही नहीं; आपकी शरण में गए हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं ।

—इसलिए जो अपने अंदर सद्गुणों का विकास करके आर्तभाव से आद्याशक्ति के चरणों में अपने को समर्पण कर देते हैं उनके सब कष्टों और अभावों को मिटाकर मां अपनी शक्ति उनके जीवन में भर देती है ।

—मनुष्य को अपने अहंकार, काम, क्रोध, असत्य व लोभ रूपी असुरों की बलि मां आदिशक्ति के चरणों में अर्पित कर देनी चाहिए ।

–छोटे-से-छोटा जीव भी मां की संतान है । वही सबकी रक्षा और पालन करती हैं। इसलिए सभी प्राणियों से प्रेम और निरीह प्राणियों पर दया करनी चाहिए क्योंकि मां का एक रूप दया है—

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम: ।। (देवीसूक्तम् २३)

–शुद्ध विचार और शुद्ध आचरण से ही मां प्रसन्न होती हैं ।

–शक्ति की पूजा वशीकरण, मारण, मोहन, उच्चाटन व किसी का बुरा करने के लिए कभी नहीं करनी चाहिए।

–दैवीय गुणों की प्राप्ति के लिए, सभी की भलाई के लिए व मोक्ष प्राप्ति के लिए शक्ति की पूजा करनी चाहिए ।

–शक्ति की उपासना करने वाले मनुष्य को निर्भय, स्वतन्त्र और साहसी होना चाहिए ।

रात्रि में सोते समय करें ये अचूक उपाय, जाग्रत होंगी आन्तरिक शक्तियां

आदिशक्ति बुद्धिरूप में सभी के अंदर स्थित है । अत: मनुष्य को शक्ति की उपासना कर अपने अंदर स्थित शक्तियों को जाग्रत करना चाहिए । इसके लिए एक अचूक उपाय है—

—रात्रि में सोते समय बिस्तर पर सुखासन में बैठ जाएं ।

—सब ओर से ध्यान खींचकर अपने हृदयमन्दिर पर ध्यान केन्द्रित करें क्योंकि वही आदिशक्ति का निवासस्थान है ।

—साधक को अपने मन को उस महान आदिशक्ति से जोड़ देना चाहिए जिससे संसार में सब शक्तियां प्रवाहित हो रही हैं । अपने आगे-पीछे, ऊपर-नीचे सब तरफ उस आदिशक्ति को उपस्थित देखें ।

—‘मां’ शब्द में कितना प्रेमामृत भरा हुआ है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता । पुत्र जब अपनी मां को ‘मां-मां’ कहकर पुकारता है तब माता का हृदय प्रेम से भर जाता है । ऐसे ही भक्तजन जब ‘मां-मां’ कहकर अपने आराध्य को पुकारता है तब उसके हृदय में एक दिव्य आनन्द की धारा बहने लगती है ।

—मां से प्रार्थना करें–‘जिस प्रकार बिना पंख के पक्षी और भूख से पीड़ित बछड़े अपनी मां की बाट जोहते हैं, वैसे ही मैं आपके दर्शनों की बाट जोह रहा हूँ, मुझे अपना दर्शन दें।’

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:
स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।
दारिद्रय दु:खभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता ।। (सप्तश्लोकी दुर्गा २)

अर्थात्–‘हे मां ! तुम्हारा स्मरण करने से समस्त जीवों के भय का नाश होता है और शान्तचित्त से स्मरण करने से तुम अत्यन्त शुद्ध बुद्धि देती हो । दरिद्रता, दु:ख और भय का नाश करने वाली तुम्हारे सिवा कौन है । सभी के उपकार के लिए तुम्हारा चित्त सदैव दया से भरा रहता है ।’

—सोते समय देवी का ध्यान करते हुए इस मन्त्र का कई बार पूर्ण श्रद्धा के साथ जाप करना चाहिए ।

—जिन-जिन कामनाओं को मनुष्य पूर्ण करना चाहता है, मां का चिन्तन करते हुए उन्हें उनसे कह देना चाहिए । विद्या, धन, बल, ऐश्वर्य–ये सब आदिशक्ति से ही उत्पन्न होते हैं और आदिशक्ति की उपासना से तत्काल ये सब पदार्थ साधक को प्राप्त हो जाते हैं । मां असाध्य से भी असाध्य कार्य को सिद्ध कर देती हैं और साधक में आश्चर्यजनक आंतरिक शक्ति जाग्रत हो जाती हैं ।

इस प्रयोग का विलक्षण प्रभाव यह होगा कि मां जगदम्बा तुमसे प्रेम करेंगी, तुम उन्हें भूल भी जाओ पर वे तुम्हें कभी नहीं भूलेंगी; क्योंकि पुत्र चाहें कुपुत्र क्यों न हो, माता कभी कुमाता नहीं होती है ।

आदिशक्ति अम्बे ! इस जग का सारा शोक बिदारें ।
दया करें सबपर अनुदिन ही, सबकी दशा संवारें ।।
मानव के मन में स्थित जो काम, शोक, भय भारी ।
परम कृपा कर उन्हें मिटा दें, जननी देव-दुलारी ।। (डॉ. श्रीश्यामबिहारीजी मिश्रा)

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देवी मंगलचण्डिका का मन्त्र व स्तोत्रपाठ करता है सर्वमंगल

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मंगल-ही-मंगल करने व सभी शक्तियां देने वाली देवी मंगलचण्डिका

‘चण्डी’ शब्द का अर्थ ‘दक्ष या चतुर’ और ‘मंगल’ शब्द का अर्थ है ‘कल्याण’; अत: जो कल्याण करने में दक्ष हो उसे ‘मंगलचण्डिका’ कहते हैं । एक अन्य अर्थ के अनुसार दुर्गा को चण्डी कहते हैं और पृथ्वी के पुत्र का नाम मंगल है; अत: जो मंगलग्रह की आराध्या हैं उन्हें मंगलचण्डिका कहते हैं ।

ॐ सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते ।। (सप्तश्लोकी दुर्गा)

भगवान शिव सृष्टिकार्य के लिए अर्धनारीश्वर बन गए जिनका दायां भाग पुरुष और बायां भाग प्रकृति या मूलप्रकृति कहा जाता है । इन्हीं मूलप्रकृति का अंश मां मंगलचण्डिका हैं । वे मूलप्रकृति के मुख से प्रकट हुई हैं और सभी प्रकार के मंगल प्रदान करने वाली हैं । उत्पत्ति के समय वे मंगलरूपा तथा संहार के समय कोपरूपा होती हैं । देवी मंगलचण्डिका मूलप्रकृति दुर्गा का ही एक रूप हैं । ये स्त्रियों की इष्टदेवी हैं ।

देवी का ‘मंगलचण्डिका’ नाम क्यों प्रसिद्ध हुआ

  • सभी प्रकार के मंगलों के बीच देवी प्रचण्ड मंगला हैं, इसलिए मंगलचण्डिका कहलाती हैं।
  • भूमिपुत्र मंगलग्रह की अभीष्ट देवी होने से मंगल इनकी पूजा करते हैं, इसलिए वे मंगलचण्डिका के नाम से जानी जाती हैं।
  • मनुवंश में उत्पन्न सम्पूर्ण पृथ्वी के स्वामी राजा मंगल की आराध्या होने से देवी मंगलचण्डिका कहलाती हैं।

भगवान शंकर ने की सर्वप्रथम देवी मंगलचण्डिका की पूजा

त्रिपुरासुर से युद्ध के समय भगवान शंकर संकट में पड़ गए । त्रिपुरासुर ने युद्ध में भगवान शंकर का विमान आकाश से नीचे गिरा दिया । इस दुर्गति को देखकर भगवान विष्णु व ब्रह्मा ने उन्हें देवी दुर्गा की स्तुति करने के लिए कहा । शंकरजी के स्तुति करने पर देवी दुर्गा रूप बदलकर मंगलचण्डिका के रूप में भगवान के सामने प्रकट हो गयीं और बोलीं–‘अब आपको कोई भय नहीं है, भगवान विष्णु वृषभरूप में आपका वाहन बनेंगे और मैं शक्तिरूप में आपकी सहायता करुंगी और आप उस दानव को मार डालोगे ।’  उसी क्षण वे शक्तिरूप से भगवान शिव में प्रविष्ट हो गयीं । विशेष शक्तिसम्पन्न होने से भगवान शंकर ने त्रिपुरासुर का वध कर दिया ।

देवी मंगलचण्डिका की पूजा के लिए मंगलवार का है विशेष महत्व

भगवान शंकर ने विभिन्न उपचारों (वस्तुओं) से सबसे पहले मंगलवार के दिन देवी मंगलचण्डिका का पूजन किया । इसलिए मंगलवार का दिन देवी मंगलचण्डिका की उपासना के लिए विशेष फलदायी है ।

देवी मंगलचण्डिका का मूल मन्त्र

भगवान शंकर ने यजुर्वेद की माध्यन्दिन शाखा में कहे गए इक्कीस अक्षरों वाले मन्त्र से देवी को पाद्य, अर्घ्य, वस्त्र, पुष्प, नैवेद्य आदि विभिन्न वस्तुएं अर्पित कीं । यह मन्त्र है–

‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं सर्वपूज्ये देवि मंगलचण्डिके हुं हुं फट् स्वाहा ।’

यह मन्त्र दस लाख जप करने पर कल्पवृक्ष की भांति साधक की सभी कामनाएं पूरी कर देता है।

देवी मंगलचण्डिका का ध्यान

देवी मंगलचण्डिका सोलह वर्ष की आयुवाली सुस्थिर यौवना हैं, उनके बिम्बाफल के समान लाल होंठ हैं, चम्पा के समान श्वेत वर्ण है, कमल के समान मुख वाली हैं, आंखें जान पड़ती हैं मानो खिले हुए नीलकमल हों । सबका भरण-पोषण करने वाली ये देवी सबको सभी वस्तुएं प्रदान करने में समर्थ हैं । संसाररूपी घोर समुद्र में पड़े हुए व्यक्तियों के लिए वे ज्योति स्वरूप हैं ।

भगवान शंकर द्वारा की गयी देवी मंगलचण्डिका की स्तुति

जगत की माता देवी मंगलचण्डिके ! तुम सभी विपत्तियों का नाश करने वाली हो और हर्ष और मंगल प्रदान करने के लिए सदैव तैयार रहती हो । मेरी रक्षा करो, रक्षा करो । खुले हाथ सज्जनों को हर्ष और मंगल प्रदान करने वाली, तुम मंगलदायिका, शुभा, मंगलदक्षा, मंगला, मंगलार्हा तथा सर्वमंगलमंगला कहलाती हो । साधु पुरुषों को मंगल प्रदान करना तुम्हारा स्वाभाविक गुण है । तुम सबके लिए मंगलों की आश्रयरूपा हो । मंगलग्रह ने तुम्हें अपनी अधिष्ठात्री देवी मानकर मंगलवार के दिन तुम्हारी पूजा की है । मनुवंश में उत्पन्न राजा मंगल तुम्हारी निरन्तर पूजा करते हैं । तुम मंगलों के लिए भी मंगल हो । जगत के सभी मंगल तुम पर आश्रित हैं । मंगल की अधिष्ठात्री देवी ! तुम सबको मोक्षरूप मंगल प्रदान करती हो । मंगलवार के दिन पूजी जाने वाली देवी ! तुम जगत्सर्वस्व, मंगलाधार और सर्वमंगलमयी हो ।

इस स्तोत्र का श्रद्धा के साथ पाठ करने से सदा मंगल होता है, कभी भी अमंगल नहीं होता। पुत्र-पौत्र सहित परिवार में मंगल-ही-मंगल छाया रहता है ।

देवी मंगलचण्डिका का किस-किस ने किया पूजन

सबसे पहले भगवान शंकर ने सभी मंगलों को देने वाली देवी मंगलचण्डिका की पूजा मंगलवार को की थी । दूसरी बार मंगलग्रह ने, तीसरी बार राजा मंगल ने उनकी पूजा की । चौथी बार मंगलवार को कुछ सुन्दर महिलाओं ने और पांचवी बार अपना कल्याण चाहने वाले कुछ पुरुषों ने देवी मंगलचण्डिका का पूजन किया । तब से सभी देवताओं, मनुओं, मुनियों और मानवों द्वारा देवी का पूजन किया जाने लगा ।

सर्वमंगलमंगला देवी मंगलचण्डी पराक्रम, शक्ति, बल, विद्या, ओज और ऐश्वर्य प्रदान करने वाली हैं ।

मंगल की सेवा सुन मेरी देवा हाथ जोड़ तेरे द्वार खड़े ।
पान सुपारी ध्वजा नारियल ले मंगला तेरी भेंट धरें ।।
सुन मंगलचण्डिके कर न विलम्बे संत खड़े जयकार करें ।
संतन प्रतिपाली सदा खुशहाली जय देवी कल्याण करें ।।

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नवरात्र में मां जगदम्बा को किस दिन लगाएं कौन सा भोग

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महामाया मां जगदम्बा परम कृपालु हैं और उनकी कृपा का भण्डार अटूट है । अन्य देवता अपने हाथों में अभय और वर मुद्रा धारण करते हैं अर्थात् वर और अभय देने के लिए हाथ काम में लेते हैं ; परन्तु करुणामयी मां ही एक ऐसी हैं जो इन दोनों मुद्राओं को धारण करने का स्वांग नहीं रचतीं । उनके दोनों चरण ही भक्तों को अभय और वर देने में समर्थ हैं क्योंकि उनके दोनों हाथ तो सदैव असुरों/शत्रुओं का संहार करने में लगे रहते हैं । भक्तों के लिए तो उनके चरण ही पर्याप्त हैं ।’

करुणामयी मां जगदम्बा

नवरात्र के नौ दिन अपनी सामर्थ्य के अनुसार मां की विभिन्न राजसी उपचारों से पूजा करनी चाहिए व अनेक प्रकार के फलों व पदार्थों का भोग लगाना चाहिए । इस संसार में आकर जो मां जगदम्बा की उपासना करता है, वह चाहे घोर-से-घोर संकट में ही क्यों न पड़ा हो, मां स्वयं उसकी रक्षा करती हैं, साधक की समस्त कामनाएं पूर्ण करती हैं और उसे सद्बुद्धि प्रदान करती हैं । स्वप्न में भी उसे कभी नरक का भय नहीं होता है । सभी जगह वह धन व आदर-मान प्राप्त करता है ।

देवी की आराधना से सकाम भक्तों को मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है तो निष्काम भक्त मोक्ष प्राप्त करते हैं।  श्रीदुर्गासप्तशती के अनुसार देवी की आराधना से जहां ऐश्वर्य की इच्छा रखने वाले राजा सुरथ ने अखण्ड साम्राज्य प्राप्त किया वहीं वैराग्यवान समाधि वैश्य ने मोक्ष की प्राप्ति की थी ।

तिथि व वार के अनुसार मां को अर्पित करें भोग और पाएं मनचाहा फल

तिथि के अनुसार मां को अर्पित किया जाने वाला विशेष भोग

श्रीदेवीभागवतपुराण में मां जगदम्बा को प्रसन्न करने के लिए देवी पक्ष (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक) में प्रतिदिन मां के अलग-अलग भोग बताए गए हैं और उन्हें दान करने का निर्देश है । मां जगदम्बा जगज्जननी हैं; सभी उनकी संतान हैं अत: मां को अर्पित किया गया यह भोग ब्राह्मणों, वटुकों (लांगुरा) व गरीब लोगों को देवी का रूप समझकर दान देना चाहिए ।

—प्रतिपदा तिथि में मां जगदम्बा के षोडशोपचार पूजन के बाद उन्हें गाय के घी का भोग लगायें और उसे ब्राह्मण को दे दें । इसके फलस्वरूप मनुष्य कभी रोगी नहीं होता है ।

—द्वितीया तिथि को मां का पूजन करके चीनी का भोग लगावे और ब्राह्मण को दान दें । ऐसा करने से मनुष्य दीर्घायु होता है।

—तृतीया के दिन मां जगदम्बा को दूध का भोग लगायें और ब्राह्मण को दे दें । यह सभी दु:खों से मुक्ति प्राप्त करने का अचूक उपाय है ।

—चतुर्थी तिथि को मां को मालपुए का नैवेद्य अर्पण कर ब्राह्मण को दे देना चाहिए । इस दान से जीवन की सारी विघ्न-बाधाएं दूर हो जाती हैं ।

—पंचमी तिथि को मां की पूजा के बाद केला अर्पण करें और वह प्रसाद ब्राह्मण को दे दें । ऐसा करने से मनुष्य का बुद्धि-कौशल बढ़ता है ।

—षष्ठी तिथि के दिन मां के भोग में मधु (शहद) का महत्व है अत: मधु का भोग अर्पण करके उसे ब्राह्मण को देने से मनुष्य को सुन्दर रूप प्राप्त होता है ।

—सप्तमी तिथि के दिन जगदम्बा को गुड़ अर्पण कर ब्राह्मण को देना चाहिए । ऐसा करने से मनुष्य के सारे शोक दूर हो जाते हैं ।

—अष्टमी तिथि के दिन भगवती को नारियल का भोग लगा कर ब्राह्मण को दान करना चाहिए । ऐसा करने से मनुष्य को कभी किसी भी प्रकार का संताप (दु:ख, क्लेश, ज्वर आदि) नहीं होता है ।

—नवमी तिथि में देवी को धान का लावा (खील) का भोग लगाकर ब्राह्मण को दान करने से मनुष्य इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त करता है ।

—दशमी तिथि को मां को काले तिल से बने मिष्ठान्न का भोग लगाकर ब्राह्मण को दान करना चाहिए । ऐसा करने से मनुष्य को यमलोक का भय नहीं सताता है ।

—एकादशी को भगवती को दही का भोग लगाकर ब्राह्मण को देना चाहिए । इससे मां की कृपा प्राप्त होती है ।

—द्वादशी को मां का चिउड़ा का भोग लगाकर ब्राह्मणों में बांट देने से मां अपना कृपाहस्त सदैव साधक के ऊपर रखती हैं ।

—त्रयोदशी को चने का भोग लगाकर ब्राह्मण को दान करने से साधक को पुत्र-पौत्रादि का सुख प्राप्त होता है ।

—चतुर्दशी के दिन मां जगदम्बा को सत्तू का भोग लगाकर जो ब्राह्मण को देता है, उस पर भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं ।

—पूर्णिमा के दिन मां को खीर का भोग लगाकर ब्राह्मण को दान देने से पितरों को सद्गति प्राप्त होती है ।

मां जगदम्बा के सात वारों के सात विशेष भोग

श्रीदेवीभागवतपुराण में मां जगदम्बा के लिए सात वारों के भी सात भोग बताए गए हैं । नवरात्र ही नहीं, जो लोग प्रतिदिन देवी की आराधना करते हैं, वे भी तिथि व वार के अनुसार मां को भोग अर्पित कर मां की विशेष कृपा प्राप्त कर सकते हैं ।

—रविवार को मां का खीर का भोग लगाना चाहिए ।

—सोमवार को मां को दूध अर्पण करें ।

—मंगलवार को केले का भोग लगाने से मां प्रसन्न होती हैं ।

—बुधवार के दिन मां को मक्खन का भोग लगाना चाहिए।

—बृहस्पतिवार को खांड (बूरे) का भोग लगाएं ।

—शुक्रवार को चीनी का भोग लगायें ।

—शनिवार को गाय के घी का नैवेद्य निवेदित करें।

अंत में मां दुर्गा की एक छोटी सी प्रार्थना बोल दी जाए तो सोने पर सुहागा हो जाए–

भरा अमित दोषों से हूँ मैं,
श्रद्धा-भक्ति-भावना-हीन ।
साधनहीन कलुषरत अविरत,
संतत चंचल चित्त मलीन ।।
पर तू है मैया मेरी,
वात्सल्यमयी, शुचि स्नेहाधीन ।
हूँ कुपुत्र पर पाकर तेरा,
स्नेह रहूंगा कैसे दीन ? (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)

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गौ के नाम पर है श्रीकृष्णलोक का नाम

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गोकुलेश गोविन्द प्रभु, त्रिभुवन के प्रतिपाल ।
गो-गोवर्धन हेतु हरि, आपु बने गोपाल ।।
लीला मात्र न जानिए, है अति मरम विशाल ।
गो-विभूति गोलोक की, गोपालक गोपाल।। (श्रीराधाकृष्णजी श्रोत्रिय, ‘साँवरा’)

गौ मनुष्यों के लिए गोलोक से उतरा हुआ परमात्मा श्रीकृष्ण का एक आशीर्वाद है या यह कहिए कि साक्षात् स्वर्ग ही गाय के रूप में पृथ्वी पर उतर आया है । गौ के बिना जीवन नहीं, गौ के बिना कृष्ण नहीं और कृष्णभक्ति भी नहीं है ।

गौ-गोप-गोपियां और गोपाल से विभूषित है गोलोक

गोलोक ब्रह्माण्ड से बाहर और सबसे ऊपर है । उससे ऊपर दूसरा कोई लोक नहीं है । वहीं तक सृष्टि की अंतिम सीमा है, उसके ऊपर सब शून्य है ।

श्रीगर्ग-संहिता के अनुसार गोलोक में वृन्दावन नाम का ‘निज निकुंज’ है, जो गोष्ठों (गौशाला) और गौओं के समूह से भरा हुआ है। रत्नमय अलंकारों से सजी करोड़ों गोपियां श्रीराधा की आज्ञा से उस वन की रक्षा करती हैं । वहां करोड़ों पीली पूंछ वाली सवत्सा गौएं हैं जिनके सींगों पर सोना मढ़ा है व दिव्य आभूषणों, घण्टों व मंजीरों से विभूषित हैं । नाना रंगों वाली गायों में कोई उजली, कोई काली, कोई पीली, कोई लाल, कोई तांबई तो कोई चितकबरे रंग की हैं । अथाह दूध देने वाली उन गायों के शरीर पर गोपियों की हथेलियों के चिह्न (छापे) लगे हैं । वहां गायों के साथ उनके छोटे-छोटे बछड़े और धर्मरूप सांड भी मस्ती में इधर-उधर घूमते रहते हैं ।

श्रीकृष्ण के समान श्यामवर्ण वाले सुन्दर वस्त्र व आभूषणों से सजे-धजे गोप हाथ में बेंत व बांसुरी लिए हुए गौओं की रक्षा करते हैं और अत्यन्त मधुर स्वर में भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करते रहते हैं ।परमात्मा श्रीकृष्ण अपने सर्वोच्च लोक गोलोक में गोपाल रूप में ही रहते हैं और गौ उनके परिकरों (परिवार का अंग) के रूप में  प्रतिष्ठित हैं।

अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक भगवान श्रीकृष्ण की पूज्या व इष्ट है गौ

परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण के चिन्मय जीवन और लीला-अवतारी जीवन का मुख्य सम्बन्ध गौ से है । इसीलिए वे सदैव गौ-गोप और गोपियों से घिरे हुए चित्रित किए जाते हैं ।

श्रीकृष्णरूप में अवतार ग्रहण करने की प्रार्थना करने के लिए भूदेवी गौ का रूप धारण करके ही भगवान श्रीहरि के पास गयीं थीं । साक्षात् ब्रह्म श्रीकृष्ण गोलोक का परित्याग कर भारतभूमि पर गोकुल (गोधन) का बाहुल्य देखकर अत्यन्त लावण्यमय ‘गोपाल’ का रूप धरकर गौ, देवता, ब्राह्मण और वेदों के कल्याण के लिए अवतीर्ण हुए—

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ।
जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नम: ।।

भगवान श्रीकृष्ण ने ‘गोपाल’ बनकर गायों की सेवा (चराना, नहलाना, गोष्ठ की सफाई, दुहना, खेलना) की और उनकी रक्षा की । उनके सखा सहचर सब के सब गोपबालक ही हैं । उनकी हृदयवल्लभाएं  (प्रियाएं) भी घोषवासिनी अर्थात् ग्वालों की बहन-बेटियां हैं । वह लीलापुरुषोत्तम श्रीकृष्ण सुबह से संध्या तक नंगे पैर तपती धूप में गाय-बछड़ों के झुण्ड को लिए हुए अपनी जादूभरी बंशी में मधुर नाद छेड़ते हुए बड़े प्यार से उन्हें चराते है, इस कुंज से उस कुंज तक विचरते रहते है । गायों के खुरों की रज उड़-उड़कर जब उनके श्रीअंगों पर लगती है तो वे ‘पाण्डुरंग’ कहलाते हैं और उस रज के धारण करने से अपने को धन्य मानते हैं । यशोदाजी द्वारा जूते धारण करने का आग्रह भी उन्होंने इसलिए अस्वीकार कर दिया क्योंकि उनकी प्रिय गायें भी वनों में नंगे पैर विचरण करती हैं ।

श्रीमद्भागवत में श्रीशुकदेवजी कहते है कि भगवान गोविन्द स्वयं अपनी समृद्धि, रूप-लावण्य एवं ज्ञान-वैभव को देखकर चकित हो जाते थे (३।२।१२) । श्रीकृष्ण को भी आश्चर्य होता था कि सभी प्रकार के ऐश्वर्य, ज्ञान, बल, ऋषि-मुनि, भक्त, राजागण व देवी-देवताओं का सर्वस्व समर्पण–ये सब मेरे पास एक ही साथ कैसे आ गए? शायद ये मेरी गोसेवा का ही परिणाम है ।

समस्त विश्व का पेट भरने वाले परब्रह्म श्रीकृष्ण की क्षुधा गोमाता के माखन से ही मिटती है—

‘जाको ध्यान न पावे जोगी।
सो व्रज में माखन को भोगी ।।

जो गोपाल बनकर आया है, उसकी रक्षा गायें ही करेंगी–भगवान पर संकट आने पर  उनकी रक्षा का भार भी गोमाता पर आता है । माता यशोदा ने सोचा कि पूतना राक्षसी के स्पर्श से लाला को नजर लगी होगी। गाय की पूंछ से नजर उतारने की प्रेरणा गोपियों को भगवान ने ही दी अत: गोष्ठ में ले जाकर गोपियों ने बालकृष्ण की बाधा उनके मस्तक पर गोपुच्छ फिराकर, गोमूत्र से स्नान कराकर, अंगों में गोरज और गोबर लगाकर उतारी ।

श्रीकृष्ण ने गौओं को इन्द्र से भी अधिक मान दिया फलस्वरूप गौओं ने श्रीकृष्ण का अपने दूध से अभिषेक करके ‘गायों का इन्द्र गोविन्द’ बनाया । श्रीकृष्ण का सर्वश्रेष्ठ मन्त्र है—‘गोविन्दाय गोपीजनवल्लाभ स्वाहा ।’ भगवान श्रीकृष्ण ने अपने लोक को गायों के नाम पर गोलोक का नाम दिया।

गौएं देवताओं के लोकों से भी ऊपर गोलोक में क्यों निवास करती हैं ?

महाभारत (८३।१७-२२) के अनुसार—देवराज इन्द्र के पूछने पर कि गौएं देवताओं के लोकों से भी ऊपर गोलोक में क्यों निवास करती हैं ? ब्रह्माजी ने कहा—

‘गौएं साक्षात् यज्ञस्वरूपा हैं—इनके बिना किसी भी प्रकार का यज्ञ नहीं हो सकता है । गौ के घी से देवताओं को हवि प्रदान की जाती है । गौ की संतान बैलों से भूमि को जोतकर यज्ञ के लिए गेहूं, चावल, जौ, तिल आदि हविष्य उत्पन्न किया जाता है । यज्ञभूमि को गोमूत्र से शुद्ध करते हैं व गोबर के कण्डों से यज्ञाग्नि प्रज्वलित की जाती है । यज्ञ से पूर्व शरीर की शुद्धि के लिए पंचगव्य लिया जाता है जो दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोमय से बनाया जाता है । ब्राह्मण में मन्त्र का निवास है और गौ में हविष्य स्थित है । इन दोनों से ही मिलकर यज्ञ सम्पन्न होता है ।

गौएं मानव जीवन का आधार हैं—समस्त प्राणियों को धारण करने के लिए पृथ्वी गोरूप ही धारण करती है । गौ, विप्र, वेद, सती, सत्यवादी, निर्लोभी और दानी—इन सात महाशक्तियों के बल पर ही पृथ्वी टिकी है पर इनमें गौ का ही प्रथम स्थान है।

गाय मानव की दूसरी मां है, जन्म देने वाली मां के बाद गौ का ही स्थान है । जगत के पालन-पोषण के लिए गौएं ही मनुष्य को अन्न और दुहने पर अमृतरूपी दूध देती हैं। इनके पुत्र बैल खेती के काम में आते हैं और अनेक प्रकार के बीज और अन्न पैदा करते हैं । बैल भूख-प्यास का कष्ट सहकर बोझ ढोते रहते हैं । इस प्रकार गौएं अपने कर्म से मनुष्यों, देवताओं और ऋषि-मुनियों का पोषण करती हैं ।

गाय के रोम-रोम से सात्विक विकिरण

गाय का स्वभाव सात्विक, शांत, धीर एवं गंभीर है । इनके व्यवहार में शठता, कपटता नहीं होती है । सात्विक मन और बुद्धि से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है । गौएं बड़ी ही पवित्र होती हैं । गौओं से उत्पन्न दूध, दही, घी, गोबर, मूत्र और रोचना (गोषडंग)—ये छ: चीजें अत्यन्त पवित्र हैं ।

—गौओं के गोबर से लक्ष्मी का निवासस्थान बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ है ।

—नीलकमल और रक्तकमल के बीज भी गोबर से ही उत्पन्न हुए हैं ।

—गौओं के मस्तक से उत्पन्न ‘गोरोचना’ देवताओं को अर्पण करने से सभी कामनाओं को पूरा करता है ।

—गौ के मूत्र से उत्पन्न गुग्गुल सभी देवताओं का आहार है ।

—सभी देवताओं और वेदों का गौओं में ही निवास है ।

गौएं सदैव अपने कर्म में लगी रहती हैं इसीलिए देवलोकों से ऊपर गोलोक में निवास करती हैं ।

गौ के सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण (७।५।२।३४) में कहा गया है–’गौ वह झरना है, जो अनन्त, असीम है, जो सैंकड़ों धाराओं वाला है।’

एक समय आता है जब पृथ्वी पर बहने वाले झरने सूख जाते हैं । इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर भी नहीं ले जा सकते हैं किन्तु गाय रूपी झरना इतना विलक्षण है कि इसकी धारा कभी सूखती नहीं । अपनी संतति (संतानों) के द्वारा सदा बनी रहती है । साथ ही इस झरने को एक-स्थान से दूसरे स्थान पर ले भी जा सकते हैं।

ऐसी संसार की श्रेष्ठतम पवित्र सर्वदेवमयी, सर्वतीर्थमयी, यज्ञस्वरूपा गौ का स्थान गोलोक के सिवाय और कहां हो सकता है?

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हनुमानजी की पूजाविधि और सिद्ध मन्त्र

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हनुमानजी अपने अखण्ड ब्रह्मचर्य के पालन से कलियुग में सबसे अधिक पूजित और प्रसिद्ध हैं । आपत्तियों के निवारण के लिए  उनके वीररूप की और सुखप्राप्ति के लिए दास रूप की आराधना की जाती है। वानर होने पर भी श्रीराम की दास्यभक्ति के प्रताप से वे स्वयं देवता बन गए । माता जानकी के वरदान से हनुमानजी स्वयं अष्टसिद्धि और नवनिधियों को देने में समर्थ हैं—

‘अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता ।
अस बर दीन जानकी माता ।। (हनुमानचालीसा)

भगवान श्रीराम ने हनुमानजी को वरदान दिया कि जो कोई मेरे साथ तुम्हारी कीर्ति-कथा का भक्तिभाव से गान करेगा वह भवसागर से पार हो जाएगा—

मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं ।
संसार सिंधु अपार पारप्रयास बिनु नर पाइहैं ।। (मानस ६।१०५। छं १)

कैसे करें हनुमानजी की उपासना

हनुमानजी की उपासना ब्रह्मचर्यपालन, शत्रुओं के नाश, काम-विजय, कार्यसिद्धि, दु:खों को दूर करने, रोगों के नाश, साधक को पूर्ण प्रभु विश्वासी बनाने और अंतकाल में प्रभु श्रीराम से मिलाने के लिए की जाती है । हनुमानजी के स्मरण से ही बुद्धि, बल, यश, धीरता, निर्भयता, आरोग्य, सुदृढ़ता और बोलने में महारत प्राप्त होती है और मनुष्य के अनेक रोग दूर हो जाते हैं । भूत-प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस उनके नाम लेने मात्र से ही भाग जाते हैं—

भूत पिसाच निकट नहिं आवै ।
महावीर जब नाम सुनावै ।।

—हनुमानजी की उपासना करने वाले व्यक्ति को शुद्धता, पवित्रता और सात्विकता का पालन करना चाहिए ।

—हनुमानजी की उपासना में पूजा, जप, पाठ और ध्वजा-पताका आदि प्रमुख हैं ।

—हनुमानजी की प्रतिमा का पंचोपचार या षोडशोपचार पूजन करें ।

—हनुमानजी को कुएं के शुद्ध ताजा जल या गंगाजल से ही स्नान कराना चाहिए । पर्वों पर दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से बने पंचामृत से स्नान कराकर शुद्ध जल से स्नान कराना चाहिए।

—हनुमानजी को केसर मिला मलयागिरि चन्दन या लालचन्दन लगाएं ।

—शुद्ध घी या तिल या चमेली के तेल में सिन्दूर मिलाकर हनुमानजी को चोला चढ़ाना चाहिए । इससे हनुमानजी प्रसन्न होते हैं। लंका विजय के बाद जब श्रीरामचन्द्रजी ने सभी को उपहार प्रदान किए तो उस समय सीताजी ने हनुमानजी को एक बहुमूल्य मणियों की माला दी, किन्तु उसमें श्रीराम-नाम न होने से हनुमानजी उदास हो गए । तब सीताजी ने उन्हें अपनी मांग का सिन्दूर देकर कहा कि ‘यह मेरा मुख्य सौभाग्यचिह्न है, इसको मैं धन-धाम व रत्नों से भी अधिक प्रिय मानती हूँ, तुम इसको स्वीकार करो ।’ हनुमानजी ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया । इसीलिए हनुमानजी को तेलमिश्रित सिन्दूर का सर्वांग में लेप करते हैं ।

—हनुमानजी पर पुरुषवाचक नाम वाले फूल ही चढ़ाये जाते हैं क्योंकि हनुमानजी अखण्ड ब्रह्मचारी हैं । गुलाब, गेंदा, कमल, केवड़ा, हजारा और सूरजमुखी आदि की बनी माला और पुष्प हनुमानजी को अर्पण करें ।

—हनुमानजी को जो नैवेद्य चढ़ाया जाए वह शुद्ध घी में बना होना चाहिए । घर पर बनाया प्रसाद सर्वश्रेष्ठ है ।हनुमानजी को गुड़, भुना चना, पुए, केला, अमरूद और बेसन के लड्डू और बूंदी का भोग लगता है । प्रात:काल उन्हें गुड़, नारियल का गोला और मोदक (लड्डू) का; दोपहर को गेहूँ की रोटी का चूरमा या घी में बने रोट, और रात्रि में आम, अमरूद या केला अर्पण करना चाहिए ।

—घी में भीगी हुए एक या पांच बत्तियों से हनुमानजी की आरती करनी चाहिए ।

—हनुमानजी श्रीरामचन्द्रजी की कथा सुनकर प्रसन्न होते हैं इसलिए वाल्मीकीय रामायण, रामचरितमानस और विशेषकर सुन्दरकाण्ड के पाठ से विशेष रूप से प्रसन्न होते है ।

—पूजन के बाद जप करने से हनुमानजी को प्रसन्न होते देर नहीं लगती । ‘राम-राम’ या ‘सीताराम’ जपना शुरु कर दीजिए बस वे रामभक्त प्रसन्न होकर स्वयं उपस्थित हो जाते हैं ।

हनुमानजी के कुछ सिद्ध मन्त्र

कार्यसिद्धि के लिए इस मन्त्र की एक माला प्रतिदिन करें— 

‘ॐ हनुमते नम:’

सब प्रकार से रक्षा और कामना पूर्ति के लिए इस मन्त्र की एक माला प्रतिदिन करें—

अंजना गर्भ सम्भूत कपीन्द्र सचिवोत्तम ।
रामप्रिय नमस्तुभ्यं हनूमन् रक्ष सर्वदा ।।

अर्थात्—अंजना के गर्भ से उत्पन्न हुए, सुग्रीव के श्रेष्ठ मन्त्री, श्रीराम के प्यारे हनुमान ! आपको प्रणाम है । आप मेरी सदा रक्षा करें ।

शत्रुनाश, आत्मरक्षा और संपत्ति प्राप्ति का मन्त्र

मर्कटेश महोत्साह सर्वशोकविनाशन ।
शत्रून् संहर मां रक्ष श्रियं दापय में प्रभो ।।

अर्थात्—हे वानराधीश, महान उत्साही, सब प्रकार के शोक का नाश करने वाले ! मेरे शत्रुओं का नाश कर दो, मेरी रक्षा करो और मुझे सम्पत्ति प्रदान करो ।

संकट दूर करने के लिए करें हनुमानजी का यह विशेष उपाय

देवशयनी एकादशी से देवप्रबोधिनी एकादशी (१२१ दिन) तक प्रतिदिन ११, २१, ३१, १०८ जितने बन सकें तुलसीपत्र पर कदम्ब की डाल की कलम बनाकर अष्टगंध से ‘राम’ लिखकर ‘ॐ हनुमते नम:’ इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए हनुमानजी के मस्तक पर चढ़ाएं । इस प्रयोग से सभी प्रकार के अनिष्ट व संकट दूर हो जाते हैं । इससे सम्बधित एक प्रसंग है—

भगवान श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद एक दिन माता जानकी ने वात्सल्यभाव से हनुमानजी से कहा–’कल मैं तुम्हें अपने हाथों से भोजन बनाकर खिलाऊंगी।’ हनुमानजी के आनन्द का क्या कहना? जगन्माता सीता स्वयं अपने हाथों से भोजन बनाकर खिलाएं, ऐसा सौभाग्य किसे मिलता है? दूसरे दिन जनकनन्दिनी सीता ने अनेक प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बनाये और हनुमानजी को आसन पर बिठाकर परोसने लगीं । माता के स्नेह से भाव-विभोर होकर हनुमानजी बड़े प्रेम से भोजन करने लगे । माता सीता जो कुछ भी थाली में परोसतीं, एक ही बार में वह हनुमानजी के मुख में चला जाता । माता की रसोई का भोजन समाप्त होने को आया पर हनुमानजी के खाने की गति कम न हुई। माता जानकी बड़ी चिन्तित हुईं कि अब क्या किया जाए? लक्ष्मणजी यह देखकर सब समझ गए और सीताजी से बोले–’ये रुद्र के अवतार हैं, इनको इस तरह कौन तृप्त कर सकता है?’

लक्ष्मणजी ने एक तुलसीदल पर चन्दन से ‘राम’ लिखकर हनुमानजी की थाली में रख दिया। वह तुलसीदल मुख में जाते ही हनुमानजी ने तृप्ति की डकार ली और थाली में बचे हुए भोजन को पूरे शरीर पर मल लिया और राम-नाम का कीर्तन करते हुए नृत्य करने लगे।

हनुमानजी की उपासना में रखें ये सावधानियां

जिस प्रकार हनुमानजी में महावीर होने पर भी अपने बल का अभिमान नहीं है, ज्ञानियों में अग्रगण्य होने पर भी अत्यन्त विनीत हैं, रामकाज के लिए अपने पर्वताकार शरीर को मच्छर के समान बना लेते हैं; उसी तरह हनुमानजी के उपासक को अभिमान, झूठे दर्प का त्यागकर स्वार्थ रहित सेवा के आदर्श को अपनाना चाहिए तभी हनुमानजी की कृपा प्राप्त हो सकती हैं । हनुमानजी जब मनुष्य को सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के लिए उपासना करते देखते हैं तो वे निराश हो जाते हैं ।

आज मनुष्य तकनीकी रूप से बहुत समृद्ध होते हुए भी मानसिक रूप से अस्त-व्यस्त दिखाई देता है । अत: यदि हनुमानजी जैसे सर्वगुणसंपन्न चरित्र से प्रेरणा ली जाए तो शरीर को रोग और दुर्बलताओं से, बुद्धि को अज्ञान और अशुभ विचारों से, कर्मेन्द्रियों को जड़ता और आलस्य से, हृदय को कठोरता, भय और स्वार्थ से तथा आत्मा को अहंकार के पंजे से मुक्त कर सकते हैं ।

लाल देह लाली लसे अरु धरि लाल लंगूर ।
ब्रजदेह दानव दलन जय जय जय कपि सूर ।।

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राम हैं वैद्य और राम-नाम है रामबाण औषधि

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श्रीराम ही सबसे बड़े और सच्चे वैद्य

‘व्याधि अनेक हैं, वैद्य अनेक हैं, उपचार भी अनेक हैं; किन्तु यदि व्याधि को एक ही देखें और उसको मिटाने वाला वैद्य एक राम ही है—ऐसा समझें तो हम बहुत-से झंझटों से बच जायेंगे । आश्चर्य है—वैद्य मरते हैं, डॉक्टर मरते हैं फिर भी हम उनके पीछे भटकते हैं । किन्तु जो ‘राम’ मरता नहीं, सदा जीवित रहता है और अचूक वैद्य है, उसे हम भूल जाते हैं । राम-नाम ही सारी बीमारियों का सबसे बड़ा इलाज है, इसलिए वह सारे इलाजों से ऊपर है ।’  (महात्मा गांधी)

जिसके हृदय में राम-नाम है उसे और किसी दवा की आवश्यकता नहीं

महात्मा गांधी ने आगाखां महल में जब २१ दिनों तक उपवास किया तब उन्होंने इसका रहस्य बतलाते हुए लिखा—‘उन २१ दिनों तक मैं जो टिका रहा, उसका कारण वह पानी नहीं था जो मैं पीता था, न वह संतरे का रस था जिसे मैंने कुछ दिनों लिया था; मेरी जो असामान्य डॉक्टरी देखभाल हो रही थी वह भी इसका कारण नहीं थी । मैंने अपने भगवान को, जिसे मैं ‘राम’ कहता हूँ, अपने हृदय में बसा रखा था, इसलिए मैं टिका रहा ।

महात्मा गांधी १९४७ में नोवाखाली में बीमार हो गए परन्तु उन्होंने डॉक्टर बुलाने और दवा खाने से मना करते हुए कहा—‘मेरा सच्चा डॉक्टर तो राम ही है । जहां तक उसे मुझसे काम लेना होगा, वहां तक वह मुझे जिलायेगा, नहीं तो उठा लेगा ।’ वे केवल राम-नाम का उच्चारण करते रहे और स्वस्थ हो गए ।

साबरमती आश्रम में सामूहिक प्रार्थना में स्वयं हाथ से ताल देते हुए गांधीजी रामधुन—रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीतारामगाते थे । गांधीजी का कहना था कि—‘राम-नाम जब गले से उतरकर हृदय में प्रविष्ट हो जाता है, तब सब प्रकार के रोग एवं शोक से मुक्ति मिल जाती है।’

गांधीजी को राम-नाम इतना सिद्ध हो गया कि उन्हें हाथ में जप करने की माला भी विघ्न लगने लगी और वे माला को छोड़ कर कहते—‘करका मनका छोड़ के, मनका मनका फेर ।’

जैसे एक बच्चा अपनी मां को पुकारता है, वैसे ही प्रभु राम को पुकारते हुए गांधीजी यह पद गाते—

रघुवर तुमको मेरी लाज ।
हौं तौं पतित पुरातन कहये,
पार उतारो जहाज ।।

उनके जीवन के अंतिम शब्द थे—‘रा……म   हे…….रा…….।’

राम-नाम कैसे करता है रोग का इलाज

‘रा’ अक्षर के कहत ही निकसत पाप पहार ।
पुनि भीतर आवत नहिं देत ‘म’कार किंवार ।।

अर्थात्—‘रा’ अक्षर के कहते ही सारे पाप शरीर से बाहर निकल जाते हैं और वे दुबारा शरीर में प्रविष्ट नहीं हो पाते क्योंकि ‘म’ अक्षर तुरन्त शरीर के सारे दरवाजे (किवाड़) बन्द कर देता है । मानव शरीर पापों को भोगने के लिए मिला है, जब सारे पाप ही शरीर से निकल जाएंगे तो शरीर अपने-आप स्वस्थ, पवित्र और ओजयुक्त हो जाएगा ।

हमारे दु:ख कायिक, वाचिक और मानसिक—ये तीन प्रकार के होते हैं । निरन्तर राम-नाम का जप करते रहने से मनुष्य के शरीर व प्राणों का व्यायाम हो जाता है जिससे शरीर स्वस्थ रहता है । राम-नाम का जप करते रहने से मनुष्य अन्य अपशब्दों का उच्चारण नहीं करता है  जिससे वाणी शुद्ध हो जाती है । पवित्र राम-नाम लेते रहने से आसपास का वातावरण शुद्ध हो जाता है, मनुष्य के बुरे विचार और आदतें दूर हो जाती हैं और वह पवित्रता, महानता और उच्च आदर्शों के मार्ग पर चलने लगता है । यही आध्यात्मिक उन्नति धीरे-धीरे हमें स्वास्थ्य, सुख, शान्ति और संतुलन की ओर ले जाती है ।

मनोवैज्ञानिकों ने भी माना है कि चिन्ताओं, व्याकुलताओं और दुर्बलताओं से लड़ने की सब प्रकार की शक्ति मनुष्य को ईश्वर से ही मिलती है । राम-नाम मनुष्य में आत्मविश्वास, उत्साह व गुप्त पुरुषार्थ पैदा करने की रामबाण दवा है जोकि सभी रोगों पर विजय पाने का सबसे अच्छा साधन है ।

राम-नाम जपतां कुतो भयं, सर्व ताप शमनैक भेषजम्ं…….।।

अर्थात्—‘राम-नाम’ जपने वालों को कोई भय कहां ! यह तो सभी तापों को दूर करने की एकमात्र औषधि है । राम-नाम का सहारा लेकर मनुष्य शान्ति की शय्या पर सुखपूर्वक सोता है—यह बात संतों व आयुर्वेद के आचार्यों ने भी स्वीकार की है ।

पाप कटें दु:ख मिटें, लेत राम-नाम ।
भव समुद्र सुखद नाव, एक राम-नाम।।

राम-नाम जैसा कोई जादू नहीं

त्रेता में केवल एक रावण था, लेकिन कलियुग में अनगिनत बीमारियां रूपी रावण हैं । उन रावणों पर विजय पाने के लिए राम की शक्ति की आवश्यकता है और वह शक्ति ‘रामनाम’ में निहित है क्योंकि त्रेता में स्वधामगमन से पहले श्रीराम ने अपनी सारी शक्तियां अपने नाम में संन्निहित कर दी थीं ।

श्रीसमर्थ गुरु रामदास ने लिखा है कि संसार रोग है । इसकी दिव्य दवा ‘राम-नाम’ है। रोग की दशा में पथ्य का भोजन और संयम प्रधान है । ‘राम-नाम’ रूपी औषधि और संयम रूपी पथ्य के योग से रोगों का शीघ्र ही नाश हो जाता है । तीन करोड़ राम-नाम जपने से हाथ की रेखाएं बदलने लगती हैं । कुण्डली के प्रतिकूल ग्रह अनुकूल होने लगते हैं और साधक के शरीर में कोई महारोग नहीं रह जाता है ।

श्रीचैतन्य-चरितामृत में लिखा है कि गौरांग महाप्रभु ने ‘हरे राम हरे कृष्ण’—इस नाम संकीर्तन से कई कोढ़ियों और असाध्य रोगियों को रोगमुक्त कर दिया ।

वैज्ञानिक श्रीजगदीशचन्द्र बसु ने परीक्षण से यह सिद्ध कर दिया कि पेड़-पौधे भी संकीर्तन की मधुर ध्वनि से नीरोग होकर अच्छी तरह बढ़ते हैं ।

‘श्रीराम जय राम जय जय राम’—का निरन्तर जप ही सब रोगों की मूल चिकित्सा है क्योंकि—

राम-नाम के दो अक्षर में क्या जानें क्या बल है ।
नामोच्चारण से ही मन का धुल जाता सब मल है ।।
गद्गद् होता कण्ठ, नयन से स्त्रावित होता जल है ।
पुलकित होता हृदय ध्यान आता प्रभु का पल-पल है ।।

मीराबाई ने तो स्पष्ट कह दिया—

दरद की मारी बन बन डोलूं बैद मिल्या नहिं कोय ।
मीरा की प्रभु पीड़ मिटैगी, जो बैद सांवलिया होय ।।

महारसायन राम-नाम को लेने की है कुछ शर्तें

—इसकी पहली शर्त है कि राम-नाम दिल से निकलना चाहिए । जब तक मनुष्य अपने अंदर-बाहर की सच्चाई, ईमानदारी और पवित्रता के गुणों को नहीं अपनाता, तब तक उसके दिल से राम-नाम नहीं निकल सकता है ।

—दिल में राम-नाम को बसा लेने के लिए बहुत धैर्य की आवश्यकता होती है ।

—जीभ के चटोरों के लिए राम-नाम किसी काम का नहीं । जिसने सारी वासनाओं को त्याग दिया है वही सच्चे अर्थ में ‘रामरस’ को पी सकता है ।

कलियुग में मनुष्य की आयु तो अल्प है, उसमें भी मनुष्य सोचता रहता है क्या-क्या किया जाए ? क्योंकि पुराणों का पार नहीं है, वेदों का भी अंत नहीं है, संतों की वाणियां (उपदेश) भी अनेक हैं—किस-किस में मन लगाया जाए ? काव्य भी अनन्त हैं, किस-किस का पान (अपनाया) किया जाए ? परन्तु सब का निचोड़ यह है कि सारा समय मन-ही-मन राम-नाम लेते रहिए । इस तरह करने से एक दिन ऐसा आएगा, जब राम-नाम मनुष्य के सोते-जागते का साथी बन जाएगा और रामजी की कृपा से तन-मन और आत्मा पूरी तरह से स्वस्थ हो जाएंगे ।

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अत्यन्त फलदायी हैं हनुमानजी के 108 नाम

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संसार में ऐसे तो उदाहरण हैं जहां स्वामी ने सेवक को अपने समान कर दिया हो, किन्तु स्वामी ने सेवक को अपने से ऊंचा मानकर सम्मान दिया है, यह केवल श्रीरामचरित्र में ही देखने को मिलता है । श्रीरामचरितमानस में जितना भी कठिन कार्य है, वह सब हनुमानजी द्वारा पूर्ण होता है । मां सीता की खोज, लक्ष्मणजी के प्राण बचाना, लंका में संत्रास पैदा करना, अहिरावण-वध, श्रीराम-लक्ष्मण की रक्षा–जैसे अनेक कार्य हनुमानजी ने किए । आज भी हनुमानजी को जो करुणहृदय से पुकारता है, हनुमानजी उसकी रक्षा अवश्य करते हैं। कितने भी संकट में कोई हो, हनुमानजी का नाम उसे त्राण देता है ।

हे रामदूत! हे पवनपुत्र! हे संकटमोचन! हे हनुमान !
तुम दुष्टों के हो कालरूप, तुम महाबली, तुम ओजवान ।।
जनकसुता के कष्ट हरे सब, रावण का मद चूर किया ।
प्रेम-भाव से तुम्हें पुकारा, तुमने संकट दूर किया ।।
मेरे अंतर में प्रतिदिन ही, गूंजे तेरा अमर गान ।
हे रामदूत! हे पवनपुत्र! हे संकटमोचन! हे हनुमान! (श्रीअनूपकुमारजी गुप्त ‘अनूप’)

भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी भक्तगण हनुमानजी की आराधना बड़े ही श्रद्धा से करते हैं। हनुमानजी की जाग्रत देवता के रूप में मान्यता है; इसलिए इनकी आराधना से तत्काल फल की प्राप्ति होती है ।

अष्टोत्तरशतनाम (१०८ नाम) का महत्व

भगवान के पूजन व अर्चन में अष्टोत्तरशतनाम व सहस्त्रनाम का अत्यधिक महत्त्व है। विशेष कामनाओं की पूर्ति के लिए अष्टोत्तरशत नामावली का पाठ या विशेष सामग्री द्वारा १०८ नामों से पूजा-अर्चना की शास्त्रों में बहुत महिमा बताई गयी है। इन नामों का पाठ अनन्त फलदायक, सभी अमंगलों का नाश करने वाला, स्थायी सुख-शान्ति को देने वाला, अंत:करण को पवित्र करने वाला और भगवान की भक्ति को बढ़ाने वाला है। यहां सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाले हनुमानजी के अष्टोत्तरशत नाम दिए जा रहे हैं–

हनुमानजी के प्रसिद्ध १०८ नाम (अष्टोत्तरशत नामावली)

हनुमानजी के नाम स्मरण से ही बुद्धि, बल, यश, धीरता, निर्भयता, आरोग्य, सुदृढ़ता और बोलने में महारत प्राप्त होती है और मनुष्य के अनेक रोग दूर हो जाते हैं । भूत-प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस उनके नाम लेने मात्र से ही भाग जाते हैं

१. ॐ अंजनीगर्भसम्भूताय नम:
२. ॐ वायुपुत्राय नम:
३. ॐ चिरंजीवने नम:
४. ॐ महाबलाय नम:
५. ॐ कर्णकुण्डलाय नम:
६. ॐ ब्रह्मचारिणे नम:
७. ॐ ग्रामवासिने नम:
८. ॐ पिंगकेशाय नम:
९. ॐ रामदूताय नम:
१०. ॐ सुग्रीवकार्यकर्त्रे नम:
११. ॐ बालिनिग्रहकारकाय नम:
१२. ॐ रुद्रावताराय नम:
१३. ॐ हनुमते नम:
१४. ॐ सुग्रीवप्रियसेवकाय नम:
१५. ॐ सागरक्रमणाय नम:
१६. ॐ सीताशोकनिवारणाय नम:
१७. ॐ छायाग्रहीनिहन्त्रे नम:
१८. ॐ पर्वताधिश्रिताय नम:
१९. ॐ प्रमाथाय नम:
२०. ॐ वनभंगाय नम:
२१. ॐ महाबलपराक्रमाय नम:
२२. ॐ महायुद्धाय नम:
२३. ॐ धीराय नम:
२४. ॐ सर्वासुरमहोद्यताय नम:
२५. ॐ अग्निसूक्तोक्तचारिणे नम:
२६. ॐ भीमगर्वविनाशकाय नम:
२७. ॐ शिवलिंगप्रतिष्ठात्रे नम:
२८. ॐ अनघाय नम:
२९. ॐ कार्यसाधकाय नम:
३०. ॐ वज्रांगाय नम:
३१. ॐ भास्करग्रसाय नम:
३२. ॐ ब्रह्मादिसुरवन्दिताय नम:
३३. ॐ कार्यकर्त्रे नम:
३४. ॐ कार्यार्थिने नम:
३५. ॐ दानवान्तकाय नम:
३६. ॐ नाग्रविद्यानां पण्डिताय नम:
३७. ॐ वनमाल्यसुरान्तकाय नम:
३८. ॐ वज्रकायाय नम:
३९. ॐ महावीराय नम:
४०. ॐ रणांगणचराय नम:
४१. ॐ अक्षासुरनिहन्त्रे नम:
४२. ॐ जम्बूमालीविदारणे नम:
४३. ॐ इन्द्रजीतगर्वसंहन्त्रे नम:
४४. ॐ मन्त्रीनन्दनघातकाय नम:
४५. ॐ सौमित्रप्राणदाय नम:
४६. ॐ सर्ववानररक्षकाय नम:
४७. ॐ संजीवनवनगोद्वाहिने नम:
४८. ॐ कपिराजाय नम:
४९. ॐ कालनिधये नम:
५०. ॐ दधिमुखादिगर्वसंहन्त्रे नम:
५१. ॐ धूम्रविदारणाय नम:
५२. ॐ अहिरावणहन्त्रे नम:
५३. ॐ दोर्दण्डशोभिताय नम:
५४. ॐ गरलागर्वहरणाय नम:
५५. ॐ लंकाप्रासादभंजकाय नम:
५६. ॐ मारुताय नम:
५७. ॐ अंजनीवाक्यसाधकाय नम:
५८. ॐ लोकधारिणे नम:
५९. ॐ लोककर्त्रे नम:
६०. ॐ लोकदाय नम:
६१. ॐ लोकवन्दिताय नम:
६२. ॐ दशास्यगर्वहन्त्रे नम:
६३. ॐ फाल्गुनभंजकाय नम:
६४. ॐ किरीटीकार्यकर्त्रे नम:
६५. ॐ दुष्टदुर्जयखण्डनाय नम:
६६. ॐ वीर्यकर्त्रे नम:
६७. ॐ वीर्यवर्याय नम:
६८. ॐ बालपराक्रमाय नम:
६९. ॐ रामेष्ठाय नम:
७०. ॐ भीमकर्मणे नम:
७१. ॐ भीमकार्यप्रसाधकाय नम:
७२. ॐ विरोधिवीराय नम:
७३. ॐ मोहानासिने नम:
७४. ॐ ब्रह्ममन्त्रये नम:
७५. ॐ सर्वकार्याणां सहायकाय नम:
७६. ॐ रुद्ररूपीमहेश्वराय नम:
७७. ॐ मृतवानरसंजीवने नम:
७८. ॐ मकरीशापखण्डनाय नम:
७९. ॐ अर्जुनध्वजवासिने नम:
८०. ॐ रामप्रीतिकराय नम:
८१. ॐ रामसेविने नम:
८२. ॐ कालमेघान्तकाय नम:
८३. ॐ लंकानिग्रहकारिणे नम:
८४. ॐ सीतान्वेषणतत्पराय नम:
८५. ॐ सुग्रीवसारथये नम:
८६. ॐ शूराय नम:
८७. ॐ कुम्भकर्णकृतान्तकाय नम:
८८. ॐ कामरूपिणे नम:
८९. ॐ कपीन्द्राय नम:
९०. ॐ पिंगाक्षाय नम:
९१. ॐ कपिनायकाय नम:
९२. ॐ पुत्रस्थापनकर्त्रे नम:
९३. ॐ बलवते नम:
९४. ॐ मारुतात्मजाय नम:
९५. ॐ रामभक्ताय नम:
९६. ॐ सदाचारिणे नम:
९७. ॐ युवानविक्रमोर्जिताय नम:
९८. ॐ मतिमते नम:
९९. ॐ तुलाधारपावनाय नम:
१००. ॐ प्रवीणाय नम:
१०१. ॐ पापसंहारकाय नम:
१०२. ॐ गुणाढ्याय नम:
१०३. ॐ नरवन्दिताय नम:
१०४. ॐ दुष्टदानवसंहारिणे नम:
१०५. ॐ महायोगिने नम:
१०६. ॐ महोदराय नम:
१०७. ॐ रामसन्मुखाय नम:
१०८. ॐ रामपूजकाय नम:

हनुमानजी की ये अष्टोत्तरशतनामावली आज के भौतिक युग में मनुष्य के कमजोर होते हुए विश्वास को पुर्नजीवित करने में संजीवनी बूटी का काम करेगी और विभिन्न संतापों से अशान्त मन को शान्त करने में सहायक होगी।

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5 Daily bhajans of Shri Hanuman

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कैसा करिश्मा तूने हनुमान कर दिया की राम ने कलयुग तुम्हारे नाम कर दिया

– Hanuman Bhajan By Mukesh ji

हनुमत ढूंढ रहे किसी ने मेरा राम देखा

वीर हनुमाना अति बलवाना | Veer Hanumana Ati Balwana

हवा में उड़ता जाए रे मेरा राम दुलारा | SUPERHIT HANUMAN JI BHAJAN 2018

– BY SINGER RAM

चरणों में बैठे हनुमान | Chale Hanuman Karke Ram Ji Ka Dhyan

– Babo Khushboo

 

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क्या आपको स्वप्न में साँप दिखायी देते हैं?

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देवों के प्रिय हैं सर्प

मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही नागों/सर्पों को कालरूप और मारक मानकर जनमानस में उनके प्रति विशेष भय की भावना रही है । देवता तो भक्त और परोपकारियों को ही आश्रय देते हैं । यदि सर्प इतने पापी होते तो देवों के देव महादेव उन्हें कभी नहीं अपनाते और नागेन्द्रहाराय नहीं कहलाते ।  देवाधिदेव महादेव के प्रिय पात्रों में सर्प है जो उनके शरीर पर अठखेलियां करता हुआ हाथों और गले का हार बना रहता हैं ।

भगवान विष्णु क्षीरसागर में सर्पराज अनन्त की शय्या पर शयन (भुजगशयनं) करते हैं । भगवान गणेश सर्प का यज्ञोपवीत धारण (भुजंगमोपवीतिनं) करते हैं । भगवान सूर्य के रथ में बारहों महीने बारह नाग बदल-बदलकर उनके रथ का वहन करते हैं । रामावतार में शेषनागजी ने लक्ष्मणजी के रूप में मानवशरीर धारणकर रामजी की सेवा की । कृष्णावतार में वसुदेवजी जब बालकृष्ण को यमुना पार कर मथुरा से गोकुल ले जा रहे थे तो उस समय अंधेरी रात में बारिश से बचाने के लिए शेषनाग ने रक्षक के रूप में फन फैलाकर श्रीकृष्ण की रक्षा की । भगवान शिव की शिष्या मां मनसादेवी नागेश्वरी तथा नागभगिनी और विषहरी के नाम से जानी जाती हैं । इस प्रकार सर्प सदा से देवों को प्रिय रहे हैं ।

कालसर्पयोग से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है

सर्पों को काल मानना उचित नहीं है । जैसे एक सिक्के के दो पहलू होते हैं वैसे ही कालसर्पयोग के अच्छे-बुरे दोनों ही पहलू होते हैं । कभी-कभी तो यह योग इतने अधिक अनुकूल होते हैं कि व्यक्ति को विश्व में न केवल प्रसिद्धि बल्कि सम्पत्ति और वैभव भी दिला देते हैं । विश्व के अनेक सफलतम व्यक्तियों की कुण्डली के कालसर्पयोग ने ही उन्हें सफलता के शिखर पर पहुंचाया । जन्मकुण्डली में यदि अन्य शुभ योग जैसे बुधादित्ययोग या पंचमहापुरुषयोग है तो कालसर्पयोग का प्रभाव न्यूनतम हो जाता है । कालसर्पयोग एक अनुबन्धित ऋण है जो हमें पूर्वजों से मिलता है, इसे ही पितृदोष कहा जाता है ।

कुण्डली में कब बनता है कालसर्पयोग

ज्योतिषशास्त्र में सर्प को राहु का मुख और केतु को पूंछ माना जाता है । राहु-केतु—इन छाया ग्रहों को अन्य सातों ग्रहों—सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि के समान ही ग्रहमण्डल में स्थान प्राप्त है ।

कुण्डली में राहु और केतु सदैव आमने-सामने 180 डिग्री पर रहते हैं । यदि सातों ग्रह राहु-केतु के एक-तरफ सिमट जाएं और दूसरी ओर कोई ग्रह न बचे, ऐसी स्थिति को कालसर्पयोग कहा जाता है । कुण्डली में यह स्थिति ठीक वैसी ही लगती है, जैसे तराजू के एक पलड़े पर भार रख दिया जाए और दूसरा पलड़ा खाली हो ।

भाव के आधार पर प्रमुख रूप से कालसर्पयोग 12 प्रकार के होते हैं । जैसे—अनन्त कालसर्पयोग, कुलिक कालसर्पयोग, वासुकि कालसर्पयोग, शंखपाल कालसर्पयोग, पद्म कालसर्पयोग, महापद्म कालसर्पयोग, तक्षक कालसर्पयोग, कर्कोटक कालसर्पयोग, शंखनाद कालसर्पयोग, पातक कालसर्पयोग, विषधर या विषाक्त कालसर्पयोग और शेषनाग कालसर्पयोग ।

क्या आपको स्वप्न में सर्प दिखायी देते हैं?

कालसर्पयोग से प्रभावित व्यक्ति के कुछ लक्षण इस प्रकार हैं—

  • कालसर्पयोग से प्रभावित व्यक्ति को स्वप्न में सर्प दिखायी देते हैं ।
  • इस योग से पीड़ित मनुष्य मानसिक तनाव में रहता है जिसके कारण वह सही निर्णय नहीं ले पाता है । इसी कारण प्रयास करने पर भी उसे कार्यों में सफलता प्राप्त नहीं होती है ।
  • गुप्त शत्रु उसको पीड़ा पहुंचाते और कार्यों में बाधा डालते रहते हैं ।
  • इस योग से पीड़ित मनुष्य के विवाह में विलम्ब होता है और यदि विवाहित हैं तो पारिवारिक जीवन कलहपूर्ण हो जाता है।
  • इस योग के कारण मनुष्य जिस पर सबसे अधिक विश्वास करता है, उसी से धोखा मिलता है ।

कालसर्पदोष की शान्ति के उपाय

  • कालसर्पदोष की शान्ति किसी शिवमन्दिर (कालहस्ती मन्दिर तिरुपति, त्र्यम्बकेशर मन्दिर नासिक, महाकाल मन्दिर उज्जैन, गरुड़गोविन्द मन्दिर मथुरा, त्रियुगी नारायण मन्दिर केदारनाथ आदि), नदीसंगम (त्रिवेणी संगम इलाहाबाद) अथवा किसी भी नागमन्दिर (नागमन्दिर जैतगांव मथुरा, नागमन्दिर ग्वारीघाट जबलपुर, मनसादेवी मन्दिर चण्डीगढ़ आदि) व नदी किनारे के शिवमन्दिर में की जाती है ।
  • कालसर्पदोष की शान्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय रुद्राभिषेक है । श्रावणमास में इसे करने से विशेष लाभ होता है ।
  • इस दोष की शान्ति के लिए शिवताण्डवस्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करें।
  • अगर कर सकें तो प्रतिदिन अन्यथा सोमवार को शिवलिंग पर मिसरी मिला दूध चढ़ाएं ।
  • कालसर्पयोग निवारण की पूजा में शिवलिंग पर चन्दन के इत्र का प्रयोग करें ।
  • शिवपंचाक्षर मन्त्र ‘नम: शिवाय’ का नियमित जप करें ।
  • शिवपंचाक्षर स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करें । यह स्तोत्र इस प्रकार है—

नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय भस्मांग रागाय महेश्वराय ।
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मे ‘न’ काराय नमः शिवायः ॥
मन्दाकिनी सलिल चंदन चर्चिताय नंदीश्वर प्रमथनाथ महेश्वराय ।
मन्दारपुष्प बहुपुष्प सुपूजिताय तस्मै ‘म’ काराय नमः शिवायः ॥
शिवाय गौरी वदनाब्जवृन्द सूर्याय दक्षाध्वरनाशकाय ।
श्रीनीलकण्ठाय वृषध्वजाय तस्मै ‘शि’ काराय नमः शिवायः ॥
वसिष्ठ कुम्भोद्भव गौतमाय मुनीन्द्र देवार्चित शेखराय

चन्द्रार्क वैश्वानर लोचनाय तस्मै ‘व’ काराय नमः शिवायः ॥
यक्षस्वरूपाय जटाधराय पिनाकहस्ताय सनातनाय ।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै ‘य’ काराय नमः शिवायः ॥
पंचाक्षरमिदं पुण्यं यः पठेत् शिव सन्निधौ ।
शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥
॥ इति श्रीमच्छंकराचार्यविरचितं श्रीशिवपञ्चाक्षरस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

  • घर के पूजागृह में भगवान श्रीकृष्ण की मोरपंख लगी मूर्ति का प्रतिदिन पूजन करें ।
  • नवनागस्तोत्र के नौ पाठ प्रतिदिन करे । नौ नाग देवता हैं—अनन्त, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, शंखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक और कालिय ।

नवनागस्तोत्र

अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम् ।
शंखपालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा ।।
एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम् ।
सायकाले पठेन्नित्यं प्रात:काले विशेषत: ।।

  • चांदी के नाग-नागिन के जोड़े की विधिपूर्वक दूध से पूजाकर बहते जल में प्रवाहित करें ।
  • शिवलिंग पर नर्मदाजल की धारा छोड़ते हुए मां नर्मदा का नाम जपते रहें । हो सके तो इस मन्त्र का जप करते हुए नर्मदाजल की धारा शिवलिंग पर चढ़ाएं—

नर्मदायै नम: प्रातर्नर्मदायै नमो निशि ।
नमोऽस्तु नर्मदे तुभ्यं त्राहि मां विषसर्पत: ।।

  • इलाहाबाद में संगम पर तर्पण और श्राद्धकर्म करने से भी कालसर्पयोग की शान्ति हो जाती है ।
  • कालसर्पयन्त्र का प्रतिदिन चन्दन के इत्र से पूजन करने से भी इस दोष की शान्ति होती है । अगरबत्ती के धुएं से नागों को बैचेनी होती है अत: पूजा में इसका प्रयोग न करें ।

यदि किसी की कुण्डली में कालसर्पयोग है तो भगवान शिव की आराधना और उनके शरणागत होना ही सर्वश्रेष्ठ उपचार है क्योंकि संसार के कष्ट दूर करने के लिए उन्होंने कालकूट विष का पान कर लिया तो सच्ची भक्ति से कुण्डली के दोष दूर न कर सकें, यह तो असंभव है—‘भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी’ ।

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वैशाखमास में सत्तू दान की महिमा

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मनुस्मृति के अनुसार कलियुग में धर्म के चार चरणों में से केवल एक धर्म ‘दान’ ही बच गया है—‘दानमेकं कलौ युगे’ । तुलसीदासजी ने भी राचमा (७।१०३ख) में यही बात कही है—

प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुं एक प्रधान ।
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान ।।

जीवन के लिए आवश्यक पदार्थों में अन्न और जल का सबसे अधिक महत्त्व है । ये ही पृथ्वी के वास्तविक रत्न हैं । अन्नदान करने वाला मनुष्य प्राणदाता और सर्वस्वदान करने वाला कहा जाता है । छोटे-से-छोटा दानकर्म भी यदि निष्कामभाव से किया जाए तो वह भगवान को प्रसन्न करता है । यह भगवान कहां हैं ? वह हमारे इर्दगिर्द अनन्त रूपों में—भूखों, बीमारों, गरीबों व अतिथि के रूप में रहता है । इस लोक में किया गया दान बैंक में सावधि जमा कराई गयी राशि के समान है जो समय आने पर परलोक में अनन्तगुना हो जाती है । अत: सभी सक्षम मनुष्यों को अन्न का दान अवश्य करना चाहिए ।

वैशाखमास में सत्तू का दान क्यों ?

भगवान मधुसूदन को अति प्रिय वैशाखमास में दान का विशेष महत्त्व है । वैशाखमास में ही अक्षयतृतीया तिथि पर विभिन्न वस्तुओं  जैसे—सत्तू, चीनी, जल सहित घड़े, शर्बत, खरबूजा, ककड़ी, पंखा, चटाई आदि ठंडक देने वाली वस्तुओं के दान करने से भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है ।

वैशाखमास में उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश आदि स्थानों पर भीषण गर्मी पड़ती है । ग्रीष्मकाल शुरू होते ही भारत में अधिकांश लोग सत्तू का प्रयोग करते हैं, क्योंकि यह ठंडा पेय पदार्थ है। विभिन्न अनाजों जैसे जौ, चना, गेहूं आदि को सूखा भूनकर और उसको पीस कर बनाए गए चूर्ण को सत्तू कहते हैं ।

ग्रीष्म ऋतु में अत्यन्त स्वास्थ्यप्रद और सस्ता भोजन है सत्तू

ग्रीष्मकाल में जौ-चने के सत्तू को पानी में घोलकर घी और शक्कर मिलाकर पीने से शीतलता प्राप्त होती है । नमकीन सत्तू बनाने के लिए सत्तू को पानी, काला नमक और नींबू के साथ घोलकर पीने से पाचनतंत्र ठीक रहता है । सत्तू गर्मी में पेट की बीमारी और शरीर के तापमान को नियंत्रित रखने में भी मदद करता है । सत्तू का सेवन करने से मधुमेह रोग में राहत मिलती है। सत्तू में प्राकृतिक रूप से रक्त शोधन का गुण होता है, जिसकी वजह से ख़ून की गड़बड़ियों से भी बचा जा सकता है। सत्तू भूखे व्यक्ति की क्षुधा शान्त करने वाला अत्यन्त उपयोगी, सस्ता व सुपाच्य अन्न है ।

यज्ञकार्य में सत्तू को प्रजापति का स्वरूप कहा गया है—अत: सत्तूदान से भगवान प्रजापति मुझपर प्रसन्न हों—ऐसा कहकर सत्तूदान करना चाहिए ।

सेर भर सत्तूदान का राजसूय यज्ञ से बढ़कर पुण्य

यह कथा महाभारतकाल में युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय की है । कुरुक्षेत्र युद्ध में विजय पाने की खुशी में पाण्डवों ने राजसूय यज्ञ किया । दूर-दूर से आए हजारों लोगों को बड़े पैमाने पर दान दिया गया । यज्ञ समाप्त होने पर चारों तरफ पाण्डवों की जय-जयकार हो रही थी । पांचो पाण्डव तथा श्रीकृष्ण यज्ञ की सफलता की चर्चा में मग्न थे । पाण्डव इस बात से संतुष्ट थे कि इस राजसूय यज्ञ का फल उन्हें अवश्य प्राप्त होगा ।

युधिष्ठिर और सुनहरा नेवला

तभी एक नेवला जिसका आधा शरीर सुनहरा और आधा भूरा था, राजमहल के भण्डारगृह से बाहर निकला और यज्ञभूमि पर लोटने लगा । फिर वापस भण्डार गृह में चला गया । यह प्रक्रिया उसने चार-पांच बार दोहराई । इस विलक्षण नेवले की विचित्र हरकतें देख कर पांडवों को बड़ा आश्चर्य हुआ । धर्मराज युधिष्ठिर पशु-पक्षियों की भाषा जानते थे । उन्होंने नेवले से कहा—‘यह तुम क्या कर रहे हो ? तुम्हें किस वस्तु की तलाश है ?’

नेवले ने आदरभाव से युधिष्ठिर को प्रणाम किया और बोला—‘हे राजन, आपने जो महान यज्ञ सम्पन्न किया है, उससे आपकी कीर्ति दसों दिशाओं में व्याप्त हो गई है । इस यज्ञ से आपको जिस पुण्य की प्राप्ति होगी, उसका कोई अंत नहीं है । मैं तो इस पुण्य के अनन्त सागर में से पुण्य का एक छोटा-सा कण अपने लिए ढूंढ रहा हूं । लोग झूठ कहते हैं कि इससे वैभवशाली यज्ञ कभी नहीं हुआ, पर यह यज्ञ तो कुछ भी नहीं है । यज्ञ तो वह था जहां लोटने से मेरा आधा शरीर सुनहरा हो गया था ।’  

sunhera nevala, golden mongoose

 

युधिष्ठिर के उस यज्ञ के बारे में पूछने पर नेवले ने कहा—

एक बार भयानक अकाल पड़ा । लोग भूख और प्यास के मारे प्राण त्यागने लगे । चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी । उस समय एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहता था । कई दिन तक ब्राह्मण परिवार में किसी को अन्न नहीं मिला । एक दिन वह ब्राह्मण कहीं से थोड़ा-सा सत्तू मांगकर लाया और उसमें जल मिलाकर उसके चार गोल लड्डू जैसे बना लिये । जैसे ही ब्राह्मण अपने परिवार सहित उस सत्तू के लड्डूओं को खाने लगा, उसी समय एक अतिथि ब्राह्मण ने दरवाजे पर आकर कहा—‘मैं छ: दिनों से भूखा हूं कृपया मेरी क्षुधा शान्त करें ।’

अन्नदान है प्राणियों को प्राण और क्रियाशक्ति का दान

अतिथि को भगवान का रूप मानकर पहले वाले ब्राह्मण ने अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया,  मगर उसे खाने के बाद भी अतिथि की भूख नहीं मिटी । तब ब्राह्मणी ने अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया इससे भी उसका पेट नहीं भरा तो बेटे और पुत्रवधू ने भी अपने-अपने हिस्से का सत्तू अतिथि को दे दिया । अतिथि ब्राह्मण उस सत्तू को खाकर तृप्त हो गया और उसी स्थान पर हाथ धोकर चला गया । उस रात भी ब्राह्मण परिवार भूखा ही रह गया और कई दिन की भूख से उन चारों का प्राणान्त हो गया ।

जहां अतिथि ब्राह्मण ने हाथ धोए थे वहां सत्तू के कुछ कण जमीन पर गिरे पड़े थे । मैं (नेवला) उन कणों पर लोटने लगा तो जहां तक मेरे शरीर से उन कणों का स्पर्श हुआ, मेरा शरीर सुनहरा हो गया । मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह सब कैसे हो गया ?’ मैं एक ऋषि के पास पहुंचा और उन्हें सारा वृतान्त सुनाकर यह जानने की जिज्ञासा प्रकट की कि मेरे शरीर का आधा भाग सोने का कैसे हो गया?

ऋषि अपने ज्ञान के बल पर पूरी घटना जान गए थे और बोले—‘जिस जगह तुम लेटे हुए थे, उस स्थान पर सत्तू का थोड़ा-सा अंश बिखरा हुआ था। वह चमत्कारिक सत्तू तुम्हारे शरीर के जिस-जिस भाग पर लगा वह भाग स्वर्णिम हो गया है ।’

इस पर मैंने ऋषि से कहा—‘कृपया मेरे शरीर के शेष भाग को भी सोने का बनाने हेतु कोई उपाय बताइए।’

ऋषि ने कहा, ‘उस परिवार ने धर्म और मानवता के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया है । यही कारण है कि उसके बचे हुए अन्न में इतना प्रभाव उत्पन्न हो गया कि उसके स्पर्शमात्र से तुम्हारा आधा शरीर सोने का हो गया । भविष्य में यदि कोई व्यक्ति उस परिवार की भांति ही धर्मपूर्ण कार्य करेगा तो उसके बचे हुए अन्न के प्रभाव से तुम्हारा शेष शरीर भी स्वर्णिम हो जाएगा । तब से मैं सारी दुनिया में घूमता फिरता हूं कि वैसा ही यज्ञ कहीं और हो, लेकिन वैसा कहीं देखने को नहीं मिला इसलिए मेरा आधा शरीर आज तक भूरा ही रह गया है ।’

जब मैंने आपके राजसूय यज्ञ के बारे में सुना, तो सोचा, आपने इस यज्ञ में अपार सम्पदा निर्धनों को दान की है और लाखों भूखों को भोजन कराया है, उसके प्रताप से मेरा शेष आधा शरीर भी सोने का हो जाएगा । यह सोचकर मैं बार-बार यज्ञभूमि में आकर धरती पर लोट रहा था किंतु मेरा शरीर तो पूर्व की ही भांति है ।’

नेवले की बात सुनकर युधिष्ठिर लज्जित हो गए ।

भगवान श्रीकृष्ण ने बताया आडम्बररहित दान का महत्व

श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को जब इस प्रकार चिंतामग्न देखा तो बोले—यह सत्य है कि आपका यज्ञ अपने में अद्वितीय था, जिसमें आप लोगो ने असंख्य भूखे व्यक्तियों की भूख शांत की, किन्तु नि:संदेह उस परिवार का दान आपके यज्ञ से बहुत बड़ा था क्योंकि उन लोगों ने उस स्थिति में दान दिया, जब उनके पास कुछ नहीं था। अपने प्राणों को संकट में डालकर भी उस परिवार ने अपने पास उपलब्ध समस्त सामग्री उस अज्ञात अतिथि की सेवा में अर्पित कर दी । आपके पास बहुत कुछ होते हुए भी आपने उसमें से कुछ ही भाग दान किया । अतः आपका दान उस परिवार के अमूल्य दान की तुलना में पासंग भर भी नहीं है ।’

श्रीकृष्ण की बात सुनकर सभी पांडवों को समझ में आ गया कि दान, यज्ञ, तप आदि में आडम्बर होने से कोई फल प्राप्त नहीं होता है । दान आदि कार्य सदैव ईमानदारी के पैसे से ही करने चाहिए ।

दान ही है भाव भक्ति दान ही है ज्ञान शक्ति ।
दान कर्मयोग की भी सुखद कहानी है ।।
सबके कल्याण हेतु दान का प्रचार हुआ,
प्रेम सद्भाव इसकी पावन निशानी है ।।

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भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत अतिथि-सेवा

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भगवान शंकर के रौद्ररूप के अवतार हैं दुर्वासा ऋषि

भक्तों के धर्म की परीक्षा करने और उनकी भक्ति को बढ़ाने के लिए भगवान शंकर ने ही दुर्वासा ऋषि के रुप में अवतार धारण किया। भगवान शंकर के रुद्ररूप से दुर्वासा ऋषि प्रकट हुए थे, इसलिए उनका रूप अति रौद्र और स्वभाव अत्यन्त क्रोधी था । वे ‘क्रोधभट्टारक’ के नाम से भी जाने जाते हैं । किन्तु उनका एक अत्यन्त दयालु रूप भी था। दयालु रूप में भक्तों का दु:ख दूर करना और रौद्ररूप में दुष्टों का दमन करना उनका स्वभाव था।

दुर्वासा का अर्थ है—कटे-फटे मलिन वस्त्रों में रहने वाला अवधूत । दूर्वा के रस का पान करने के कारण भी उनका नाम दुर्वासा पड़ गया ।

‘अतिथि देवो भव’

वायुपुराण में कहा गया है कि योगी एवं सिद्ध पुरुष मनुष्य के कल्याण के लिए अनेक रूपों में विचरण करते (घूमते) रहते हैं, इसलिए अतिथि कोई भी क्यों न हो, सदैव ‘अतिथि देवो भव’ समझकर आदर-सत्कार करना चाहिए ।

महाभारत के शान्तिपर्व में कहा गया है कि गृहस्थ के लिए अतिथि को छोड़कर दूसरा कोई देवता नहीं है । जहां अतिथि का आदर होता है, वहां देवता प्रसन्न होते हैं । इसे भी यज्ञ माना गया है। इससे व्यक्ति धन, आयु, यश, पुण्य, स्वर्ग और असीम आनन्द प्राप्त करता है ।

भगवान श्रीकृष्ण का अतुलनीय एवं विचित्र अतिथि-सत्कार

महाभारत के अनुशासनपर्व में एक सुन्दर कथा है—

एक बार दुर्वासा ऋषि चीर धारण किए, जटा बढ़ाए, हाथ में बिल्ववृक्ष का दण्ड लिए तीनों लोकों में घूम-घूमकर चिल्लाते फिर रहे थे—‘मैं दुर्वासा हूँ। मैं रहने के लिए स्थान खोजता हुआ चारों ओर घूम रहा हूं । जो कोई भी मुझे अपने घर में अतिथि बनाना चाहता है, बताए ।  मुझे क्रोध बहुत जल्दी आता है । अत: जो कोई भी मुझे अपने घर पर आश्रय दे, वह इस बात का ध्यान रखे और सावधान रहे ।’

यह चिल्लाते हुए ऋषि त्रिलोकी में घूम आए पर किसी को भी दुर्वासारूपी विपत्ति को अपने घर में रखने का साहस नहीं हुआ । घूमते हुए दुर्वासा ऋषि द्वारका पहुंचे । भगवान श्रीकृष्ण ने जब दुर्वासा ऋषि की पुकार सुनी तो उन्हें अपने राजमहल में ठहरा लिया ।

दुर्वासा ऋषि ने ली जब श्रीकृष्ण की परीक्षा

दुर्वासा ऋषि का रहने का ढंग बहुत ही निराला था । वे अकेले ही कभी हजारों मनुष्यों का भोजन खा जाते और कभी बहुत थोड़ा खाते । किसी दिन वे महल से चले जाते और कुछ दिनों तक लौटते ही नहीं थे । कभी ठहाका मारकर जोरों से हंसते तो कभी बच्चों की तरह रोने लगते ।

एक दिन दुर्वासा ऋषि अपनी कोठरी में पलंग, बिस्तर आदि में आग लगाकर तेजी से भागते हुए श्रीकृष्ण के पास आए और बोले–’वासुदेव ! मैं इस समय खीर खाना चाहता हूँ, तुम मुझे तुरन्त खीर खिलाओ ।’

भगवान श्रीकृष्ण तो सर्वज्ञ परब्रह्म परमात्मा हैं, वह दुर्वासा ऋषि के मन की बात पहले ही ताड़ गए थे । इसलिए दुर्वासा ऋषि की पसन्द की सभी भोजन सामग्री पहले से ही तैयार थी । उन्होंने तुरन्त ही गरमागरम खीर लाकर ऋषि के सामने परोस दी ।

आधी खीर खाकर दुर्वासा ऋषि भगवान श्रीकृष्ण से बोले–’वासुदेव ! अब यह बची हुई जूठी खीर तुम अपने शरीर में चुपड़ लो ।’

शास्त्रों में कहा गया है—‘गुरु को राखौ शीश पर सब बिधि करैं सहाय’ अर्थात् गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करने से सब प्रकार से भला होता है ।

श्रीकृष्ण ने तुरन्त ही वह खीर मस्तक व सभी अंगों में चुपड़ ली । यह देखकर पास ही खड़ी रुक्मिणीजी मुस्कराने लगीं तो ऋषि ने वह खीर उनको भी शरीर पर लगाने के लिए कहा । फिर श्रीकृष्ण और रुक्मिणीजी को एक रथ में जोतकर उस पर सवार हो गए । जिस तरह एक सारथि घोड़ों को चाबुक मारता है, उसी तरह ऋषि कोड़े फटकारते हुए द्वारका के राजमार्ग पर रथ चलाने लगे । यह सब देखकर सभी यादवों को बहुत क्लेश हुआ । भगवान श्रीकृष्ण सारे शरीर में खीर पोते हुए रथ खींचे ले जा रहे थे किन्तु  कोमलांगी रुक्मिणीजी बार-बार रथ खींचते समय गिर जातीं । क्रोधभट्टारक दुर्वासा उनकी बिल्कुल भी परवाह न कर रथ खींचने को कहते रहे । अंत में जब रुक्मिणीजी बिल्कुल पस्त हो गयीं तब श्रीकृष्ण ने दुर्वासा ऋषि से कहा–’भगवन् ! मुझ पर प्रसन्न हो जाइए ।’

दुर्वासा ऋषि ने दिया श्रीकृष्ण और रुक्मिणीजी को वरदान

दुर्वासा ऋषि प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण की ओर देखने लगे और बोले –‘वासुदेव ! तुमने क्रोध को जीत लिया है । तुम्हारा कोई अपराध मुझे दिखाई नहीं देता है । प्रसन्न होकर मैं तुम्हें वर देता हूँ कि–

  • तुम त्रिलोकी में सबके प्रिय होओगे ।
  • तुम्हारी कीर्ति सब लोकों में फैलेगी ।
  • जितनी वस्तु मैंने जलाई हैं, वे सब तुम्हें वैसी ही और उससे भी अच्छी होकर मिलेंगी ।
  • इस जूठी खीर को सारे शरीर में लगा लेने से अब तुमको मृत्यु का भय नहीं रहेगा । जब तक तुम जीवित रहना चाहोगे, रह सकोगे ।

दुर्वासा ऋषि ने श्रीकृष्ण से कहा—‘तुमने अपने तलवों में खीर क्यों नहीं लगायी, बस तुम्हारे तलवे ही निर्भय न बन सके ।’

(जरा व्याध ने प्रभास क्षेत्र में मृग के संदेह में जो बाण मारा वह भगवान श्रीकृष्ण के तलवे में लगा और भगवान नित्यलीला (स्वधाम) में प्रविष्ट हो गए ।)

जब श्रीकृष्ण ने अपने शरीर की ओर देखा तो वह एकदम साफ और कांतिमान था ।

दुर्वासा ऋषि का रुक्मिणीजी को वरदान

रुक्मिणीजी को देखकर दुर्वासा बोले–

  • मेरी जूठी खीर शरीर पर लगाने से तुम्हारे शरीर पर बुढ़ापा, रोग या अकान्ति का स्पर्श भी नहीं होगा ।
  • तुम्हारे शरीर से सदैव सुगन्ध निकलेगी ।
  • सभी स्त्रियों में श्रेष्ठ होकर यश और कीर्ति प्राप्त करोगी ।
  • अंत में तुम्हें श्रीकृष्ण का सालोक्य प्राप्त होगा ।

इतना कहकर दुर्वासा ऋषि अन्तर्ध्यान हो गए । जब श्रीकृष्ण ने महल में जाकर देखा कि ऋषि ने जो भी वस्तुएं जलायीं थीं वे पहले की तरह अपने स्थान पर रखी हुई थीं । दुर्वासा ऋषि का यह अद्भुत चरित्र देखकर सब हैरान रह गए ।

सत्य है—‘करो सेवा, मिले मेवा’

सेवारूपी भक्ति से ही प्राप्त होती है अभीष्ट सिद्धियां

हम जिस किसी की सेवा करते हैं तो वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सेवा करने वाले का उपकार अवश्य करता है । सेवा जितनी सहज और सरल प्रतीत होती है, उसका निर्वाह उतना ही कठिन है । गीता (४।१७) में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग के रूप में इसे अत्यन्त कठिन बताया है—‘गहना कर्मणो गति: ।।’

तुलसीदासजी ने भी सेवक के धर्म को अत्यन्त कठोर बताते हुए कहा है—‘सब तें सेवक धरमु कठोरा ।।’

सेवा में भावनिष्ठा और समर्पण आवश्यक है जिससे पत्थरदिल मनुष्य को भी अपने अनुकूल किया जा सकता है ।

गीता (१७।१५) में कहा गया है—सेवक को आवेश पैदा न करने वाले, सत्य, प्रिय और हितकर वचन बोलने चाहिए और उसे प्रसन्न, शान्त, कम बोलने वाला और जितेन्द्रिय होना चाहिए । इसे ही वाणी का तप कहा गया है ।

सेवा जीवन धरम है, सेवा करम महान।
सेवा से सुख मिलत है, जानहु सकल जहान ।।

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अक्षय तृतीया पर करें इन चीजों का दान

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सभी कर्मों का फल हो जाता है अक्षय, इसलिए यह तिथि कहलाती है अक्षय तृतीया

वैशाख शुक्लपक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया,  आखातीज, या आखा तृतीया कहते हैं । इस दिन दिए हुए दान और किए हुए स्नान, होम, जप आदि का फल अनन्त होता है, अर्थात् सभी शुभ कर्म अक्षय हो जाते हैं । इसी से इसका नाम ‘अक्षया’ हुआ है ।

‘अक्षय’ का अर्थ है जिसका कभी  नाश या क्षय न हो अर्थात् जो सदैव स्थायी रहे । सत्यस्वरूप परमात्मा ही सदैव अक्षय और अखण्ड है ।

अक्षय तृतीया है ईश्वरीय तिथि

अक्षय तृतीया ईश्वरीय तिथि है क्योंकि इस दिन भगवान के तीन अवतार—नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम अवतार हए; इसलिए इस दिन उनकी जयन्ती मनायी जाती है।

  • नर-नारायण अवतार—भगवान के चौबीस अवतारों में चौथा अवतार नर-नारायण का है । धर्म की पत्नी मूर्ति के गर्भ से भगवान नर-नारायण प्रकट हुए । भक्ति से ही भगवान मिलते हैं । भगवान का नर-नारायण अवतार तपस्यारूपी धर्म की स्थापना के लिए हुआ था । वे आज भी बदरिकाश्रम में भगवदाराधन करते हुए विराजमान हैं । 
  • हयग्रीव अवतार—चौबीस अवतारों में सोलहवां अवतार हयग्रीव का है । मधु-कैटभ नाम के दैत्य ब्रह्माजी से वेदों को चुराकर रसातल में ले गए । ब्रह्माजी द्वारा भगवान विष्णु की स्तुति करने पर भक्त और धर्म की रक्षा के लिए और अधर्म के नाश के लिए भगवान विष्णु हयग्रीव के रूप में प्रकट हुए और दैत्यों का वधकर उनसे वेदों की पुन: प्राप्ति की ।
  • परशुराम अवतार—भगवान परशुराम भगवान विष्णु के अठारहवें अवतार हैं । ये भगवान विष्णु के आवेशावतार माने गए हैं । जिस समय परशुरामजी का अवतार हुआ, उस समय पृथ्वी पर तामसी प्रवृत्ति वाले राजाओं की अधिकता थी । उन्हीं में से एक कार्तवीर्यार्जुन ने इनके पिता जमदग्नि ऋषि का वध कर दिया, जिससे क्रुद्ध होकर इन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय राजाओं से रहित कर दिया और सारी पृथ्वी कश्यपजी को दान कर दी व स्वयं तपस्या करने चले गए । भगवान शिव द्वारा दिए गए अमोघ परशु (फरसे) को धारण करने के कारण इनका नाम ‘परशुराम’ हुआ । अक्षय तृतीया को परशुरामजी का जन्मदिन होने के कारण इसे ‘परशुराम जयन्ती’ भी कहते हैं । परशुरामजी सात चिरंजीवियों में से एक हैं अत: इस दिन को ‘चिरंजीवी तिथि’ भी कहते हैं।
  • त्रेतायुग की शुरुआत अक्षय तृतीया से हुई थी इसलिए इस दिन को युगादितिथि भी कहते हैं ।
  • इस दिन ही बद्रीनाथधाम के पट खुलते हैं ।
  • अक्षय तृतीया को वृन्दावन में श्री बांकेबिहारीजी के चरणों के दर्शन साल में एक बार होते हैं ।
  • अक्षय तृतीया स्वयंसिद्ध अभिजित् मुहुर्त है, इसलिए किसी मुहुर्त को न देखकर मांगलिक कार्य करने का दिन है ।

अक्षय तृतीया बहुत ही पवित्र और उत्तम फल देने वाली तिथि है

अक्षय तृतीया में तृतीया तिथि, सोमवार और रोहिणी नक्षत्र ये तीनों हों तो यह योग बहुत श्रेष्ठ माना जाता है । इसलिए इस दिन सुख-समृद्धि और सफलता की कामना से नए वस्त्र, आभूषण और खरीदे और पहने जाते हैं । अक्षय तृतीया को गंगास्नान या समुद्र स्नान का विशेष महत्त्व है । इस दिन पितरों का पिंडदान और तर्पण तथा ब्राह्मण भोजन भी इस विश्वास से किया जाता है कि इसका फल अक्षय होगा ।

अक्षय तृतीया पर इस तरह करें पूजा

इस दिन सूर्योदय के समय स्नान कर लक्ष्मी सहित भगवान विष्णु की पूजा कर, कथा सुनने से मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है । भगवान विष्णु की प्रसन्नता के लिए दान करने से उसका पुण्य अक्षय फल देता है ।

इस दिन भगवान (विष्णु/श्रीकृष्ण, श्रीराम) का षोडशोपचार पूजन करें । भगवान को पंचामृत से स्नान कराएं । चंदन, रोली, इत्र  लगाकर सुन्दर पुष्पमाला पहनाएं । धूप, दीप आदि निवेदित करें ।

मत्स्यपुराण के अनुसार ‘इस दिन अक्षत (बिना टूटे चावल) से भगवान विष्णु की पूजा करने से वे विशेष प्रसन्न होते हैं । इससे उपासक की संतान भी अक्षय बनी रहती है अर्थात् अकालमृत्यु नहीं होती है ।’

भगवान विष्णु की पूजा में अक्षत का प्रयोग नहीं किया जाता है किन्तु इस दिन उनकी अक्षत से पूजा की जाती है ।

भगवान के तीनों अवतारों के लिए लगाएं ये विशेष भोग

  • इस दिन नर-नारायण जयन्ती होने से भगवान को सत्तू का भोग लगाएं ।
  • परशुरामजी के लिए भगवान को ककड़ी का भोग लगाना चाहिए ।
  • भगवान हयग्रीव के लिए भीगी हुई चने की दाल अर्पित करें ।

अक्षय तृतीया को करें इन वस्तुओं का दान

इस दिन इन वस्तुओं के दान का बहुत महत्त्व है—

  • सत्तू,
  • खरबूजा, तरबूजा, आम, ककड़ी
  • दही-चावल
  • गन्ने का रस व अन्य सभी रस
  • शर्बत
  • दूध और मावा की मिठाईयां
  • जल से भरा घड़ा
  • अन्न
  • शहद
  • गर्मी में उपयोगी वस्तुएं जैसे—पंखे, जूता, छाता
  • सोना,
  • भूमि आदि

जो भी उत्तम पदार्थ हमें अच्छे लगें वह ब्राह्मणों को दान देना चाहिए ।

सभी मनोरथों की पूर्ति व सुख-सौभाग्य प्राप्ति के लिए करें धर्मघट का दान

इस दिन पार्वतीजी की पूजा का भी अत्यन्त पुण्य है । सभी मनोरथों की पूर्ति व सुख-सौभाग्य प्राप्ति के लिए  गौरीपूजा करके धर्मघट का दान करना चाहिए ।

धर्मघट के लिए एक मिट्टी का या धातु का कलश लेकर उसमें अन्न (गेहूं, चावल), जल (पानी की बोतल), पुष्प, कोई फल, तिल रखकर मन में ऐसा संकल्प करें—

‘मैं यह धर्मघट ब्रह्मा-विष्णु-शिव की प्रसन्नता के लिए ब्राह्मण को दान कर रहा हूँ, इससे मेरे समस्त मनोरथ पूर्ण हों ।’

अक्षय तृतीया है जीवन में दैवीय गुणों को अपनाने का दिन

इतनी पवित्र तिथि होने के कारण यह दिन क्षय हो जाने वाले कार्यों के स्थान पर अक्षय कार्यों—पुण्यकर्म, दान, होम-हवन, जप-तप, गंगास्नान, स्वाध्याय आदि करने का दिन है । अपनी अंतरात्मा में झांककर आत्मविश्लेषण करें और नकारात्मक कार्यों व विचारों का त्यागकर सकारात्मक कार्यों व विचारों को अपनाकर जीवन में दैवीय गुणों को अपनाने का प्रयास करें ।

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भगवान विष्णु के चरणों से निकला अमृत है गंगा

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नीराकार ब्रह्म अर्थात् जलरूप ब्रह्म या द्रवरूप में ब्रह्म

कोई ‘नराकार ब्रह्म’ (राम, कृष्ण) को भजता है , तो कोई ‘निराकार ब्रह्म’ को; परन्तु कलियुग में मनुष्य के पाप-तापों की शान्ति ‘नीराकार ब्रह्म’ से ही होती है ।

हिन्दी में ‘नीर’ जल को कहते हैं । ‘द्रव’ तरल पदार्थ को कहते हैं । अत: नीराकार ब्रह्म का अर्थ है ‘भगवान का जलमय रूप’ और यह रूप है मां गंगा ।

मनुष्यों के तापों की शान्ति के लिए ब्रह्म का द्रवरूप होना

गंगा को ‘ब्रह्मद्रव’ भी कहते हैं । ‘ब्रह्मद्रव’ का अर्थ है—आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक (शारीरिक, मानसिक और भौतिक)—इन तीनों तापों से पीड़ित मनुष्यों की दशा से परमात्मा (ब्रह्म) का द्रवित होकर उनके तापों की शान्ति के लिए जल रूप में अवतरित होना । ताप चाहे कैसा भी हो उसकी शान्ति जल से ही होती है ।  

गंगा का एक नाम ‘ब्रह्माम्बु’ है । अम्बु जल को कहते हैं, इसलिए ब्रह्म + अम्बु अर्थात् जलरूप ब्रह्म ।

भगवान की प्रत्येक लीला के पीछे लोककल्याण ही छिपा होता है । भगवान के जलमय रूप होने के पीछे भी कलियुग में मानव का कल्याण ही छिपा है । यदि गंगा का धरती पर अवतरण न हुआ होता तो कलियुग में मनुष्यों के पापों का मल कैसे धुलता?

भगवान विष्णु का चरणामृत है गंगा

आदिकवि वाल्मीकि ने अपने ‘गंगाष्टक’ में गंगा को ‘मुरारि का चरणामृत’ कहा है । अपने प्रभु विष्णु का चरणामृत जानकर भगवान शंकर ने ब्रह्मस्वरूपिणी गंगा को अपने मस्तक पर धारण किया है । कवि रसखान ने तो यहां तक कह दिया कि गंगा समस्त व्याधियों की सर्वोत्तम औषधि है इसीलिए भगवान शंकर अपने मस्तक पर स्थित गंगा के भरोसे ही आक-धतूरे चबाते रहते हैं और उन्हीं के भरोसे उन्होंने हलाहल विष का पान कर लिया—

‘आक धतूरो चबात फिरैं,
विष खात फिरैं सिव तोरे भरोसे ।।

भगवान की विभूति है गंगा

गंगा भगवान के चरणों से उत्पन्न हुई है, विष्णुपदी है, उसका महत्व केवल इतना ही नहीं है; अपितु गंगा साक्षात् परमात्मा की विभूति है । भगवान श्रीकृष्ण ने गीता (१०।३१) में गंगा को अपना स्वरूप बतलाते हुए कहा है—‘स्तोत्रसामस्मि जाह्नवी ।’  

गंगा ब्रह्मजल है, उसमें भगवान के गुण होने के कारण वह सदैव शुद्ध, पवित्र व निर्विकार रहने वाला दिव्य पदार्थ है । इसीलिए वह शारीरिक व मानसिक रोगों को दूर करने व सांसारिक भोगों के साथ मोक्ष प्रदान करने की भी क्षमता रखता है—

गंग सकल मुद मंगल मूला ।
सब सुख करनि हरनि सब सूला ।। (राचमा २।८७।४)

गंगा के द्रवरूप में आविर्भाव की कथाएं

वास्तव में गंगा गोलोक या विष्णुलोक में भगवान श्रीहरि की ही एक स्वरूपाशक्ति हैं । गंगा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुराणों में अनेक कथाएं है । यहां गंगा के नीराकार ब्रह्मस्वरूप को दर्शाती दो पौराणिक कथाओं का उल्लेख किया जा रहा है ।

ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड) में गंगा की द्रवरूप में उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है—

श्रीराधाकृष्ण का जलरूप है गंगा

एक बार गोलोक में श्रीकृष्ण कार्तिक पूर्णिमा के दिन रासमहोत्सव मना रहे थे । रासमण्डल में श्रीकृष्ण श्रीराधा की पूजा कर विराजमान थे । उसी समय श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए सरस्वती प्रकट हुईं और उन्होंने अपनी मधुर स्वरलहरी में गीत गाकर और दिव्य वीणा के वादन से सारा वातावरण झंकृत कर दिया ।

उसी समय भगवान शंकर भी श्रीकृष्ण सम्बन्धी सरस पद गाने लगे । उसे सुनकर सभी देवगण मूर्छित हो गए । जब उनकी चेतना लौटी तब वहां श्रीराधाकृष्ण के स्थान पर सारे रासमण्डल में जल-ही-जल फैला हुआ था । सभी गोप-गोपी और देवगण भगवान श्रीराधाकृष्ण को न पाकर विलाप करते हुए उनसे पुन: प्रकट होने की प्रार्थना करने लगे ।

तब भगवान श्रीकृष्ण  ने आकाशवाणी द्वारा कहा—‘मैं सर्वात्मा श्रीकृष्ण और मेरी स्वरूपाशक्ति श्रीराधा—हम दोनों ने ही भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए यह जलमय विग्रह (नीराकार स्वरूप) धारण कर लिया है ।’

यदि कोई मनुष्य गंगा का जल हाथ में लेकर प्रतिज्ञा करेगा और फिर उस अपनी की हुई प्रतिज्ञा का पालन नहीं करेगा वह नरक का भागी होगा ।

वे ही पूर्णब्रह्म श्रीकृष्ण और राधा जलरूप होकर गंगा बन गए और वह दिव्य जलराशि ही ‘देवनदी’ गंगा के नाम से प्रसिद्ध हुई । गोलोक से प्रकट होने वाली गंगा का यही रहस्य है ।

श्रीमद्देवीभागवत में गंगा के ब्रह्मद्रव रूप में आविर्भाव की कथा

दक्षकन्या सती के देहत्याग करने पर जब भगवान शिव तप करने लगे, तब देवताओं ने जगन्माता की स्तुति कर उनसे दोबारा भगवान शंकर का वरण करने की प्रार्थना की । देवी ने तब प्रसन्न होकर कहा—‘मैं दो रूपों में पर्वतराज हिमालय और मैना के घर प्रकट होऊंगी ।’ पहले वे अपने अंश रूप से वैशाख शुक्ल तृतीया (अक्षय तृतीया) को गंगा रूप में प्रकट हुईं फिर पूर्णावतार धारणकर पार्वती के रूप में प्रकट हुईं ।

हिमालय के घर में सती का अंशावतार गंगा के रूप में प्रकट होने पर ब्रह्मा आदि देवताओं ने सोचा कि सती के छायाशरीर को लेकर जब शिवजी ताण्डव कर रहे थे तो उनके पैरों के आघात से पृथ्वी रसातल में जाने लगी । जगत की रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने चक्र से छायासती के शरीर के टुकड़े कर दिए थे, उस अपराध के कारण भगवान शिव अभी तक हमसे रुष्ट हैं । यदि हम गंगा को शिवजी को प्रदान कर दें तो वे हमसे अवश्य प्रसन्न हो जाएंगे । जैसे छायासती भगवान शिव के सिर पर स्थित रहीं वैसे ही ये गंगा जलरूप में उनके सिर पर सुशोभित रहेंगी ।

गंगा की ब्रह्मलोक से भूलोक तक की यात्रा

ब्रह्माजी सहित सभी देवगण हिमालय के घर गंगा को मांगने के लिए पहुंच गए और उन्हें सारी बात बता दी । गिरिसुता गंगा पिता की आज्ञा से सदाशिव को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए ब्रह्माजी के कमण्डलु में निराकार रूप से स्थित हो कर स्वर्गलोक में आ गयीं ।  जब उनकी माता मैना को यह बात पता चली तो उन्होंने गुस्से में शाप देते हुए कहा—‘माता से बिना बात किए तुम स्वर्ग चलीं गयीं, इसलिए तुम्हें जलरूप में पुन: पृथ्वी पर आना होगा ।’

ब्रह्माजी ने मूर्तिमान गंगा को शंकरजी को दे दिया और वे शंकरजी के साथ कैलास चली गयीं । ब्रह्माजी की प्रार्थना पर एक अंश से वे निराकार रूप में उनके कमण्डलु में स्थित हो गयीं और ब्रह्माजी उन्हें ब्रह्मलोक में ले गए ।

गंगा के शंकरजी के साथ विवाह की बात सुनकर भगवान विष्णु ने उन्हें वैकुण्ठ में बुलाया । भगवान शंकर गंगाजी सहित वैकुण्ड में पधारे । भगवान विष्णु के आग्रह पर वे सुन्दर पदों का गान करने लगे । वे जो रागिनी गाते वही मूर्तिमान होकर प्रकट हो जाती ।

भगवान शंकर के गायन से भगवान विष्णु हुए द्रवरूप

भगवान शंकर के ‘श्री’ नामक रागिनी के गाने से मुग्ध होकर भगवान विष्णु स्वयं रसरूप होकर बहने लगे । ब्रह्माजी ने देखा कि स्वयं ब्रह्म भी इस समय द्रवीभूत हो गए हैं; अत: उन्होंने वह जल भी अपने कमण्डलु में रख लिया । ब्रह्मद्रव से कमण्डलु के जल का स्पर्श होते ही सारा जल गंगाजी में मिल गया और निराकारा गंगाजी जलमयी हो गयीं ।

इसके बाद वामन अवतार में जब भगवान विष्णु ने विराट् रूप धारण कर अपने एक पग से बलि की सारी पृथ्वी नाप ली, शरीर से आकाश और भुजाओं से दिशाएं घेर लीं, दूसरे पग से उन्होंने स्वर्ग को भी नाप लिया, तब भगवान द्वारा उठाया गया चरण महर्लोक, जनलोक और तपलोक को पारकर सत्यलोक में पहुंच गया ।

उनके उठे हुए चरण के अंगूठे के नख से ब्रह्माण्ड फट गया । वहां से निकले जल को ब्रह्माजी ने अपने कमण्डलु में ले लिया। ब्रह्माजी ने कमण्डलु के उसी जल से भगवान के चरण को स्नान कराया। कमण्डलु का जल देते ही वह चरण वहीं स्थिर हो गया । ब्रह्मा के कमण्डलु का वही जल विष्णुजी के पांव पखारने से  गंगा के रूप में परिणत हो गया और वे ‘विष्णुपदी’, ‘नारायणी’, ‘वैष्णवी’‘सुरसरि’ नाम से भी जानी जाने लगीं ।

गंगा का मूल मन्त्र है—‘ॐ नमो गंगायै विश्वरूपिण्यै नारायण्यै नमो नम: ‘ अर्थात् विष्णु सभी देवों का प्रतिनिधित्व करते हैं और नारायणी गंगा भगवान विष्णु का ।

भगवान शंकर बन गए ‘गंगाधर’

अंत में भागीरथ की तपस्या के फलस्वरूप गंगा का अवतरण जब धरती पर होने लगा तो उस समय का बहुत ही सुन्दर वर्णन भगवान व्यासजी ने महाभारत के वनपर्व में किया है—

‘शंकरजी अपनी जटा फैलाकर खड़े हैं । शंकरजी को खड़े देखकर आकाश से एकाएक गंगाजी गिरीं । उनमें बहुत-सी मछलियां और घड़ियाल खलबलाहट पैदा कर रहे थे । आकाश में करधनी सी मालूम पड़ने वाली उस गंगा को शंकरजी ने सिर पर यों धारण किया, जैसे मोती की माला धारण की हो ।’

भगवान के चरणों तक पहुंचाने वाली शक्ति का नाम है गंगा

गंगा शिवजी की जटाओं में बस गयीं और उसमें से बाहर न निकल सकी । राजा भगीरथ की प्रार्थना पर शिवजी ने जब अपनी जटा का एक बाल खोलकर गंगा को बाहर निकाला तो लोकमंगल को उतावली गंगा भगीरथ के रथ के पीछे चल पड़ीं और कपिलमुनि के आश्रम में जाकर राजा सगर के भस्मसात् पुत्रों को जैसे ही गंगाजी ने स्पर्श किया वे मुक्त होकर स्वर्ग पहुंच गए ।

भगवान विष्णु के पद (चरण) से निकली गंगा भगवान विष्णु के पद (लोक) को ही प्रदान कर देती हैं ।

गंगा, गीता, गायत्री, गणपति, गौरि, गुपाल ।
प्रातकाल जो नर भजैं, ते न परैं भव-जाल ।।

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