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क्या संतों को भगवान के दर्शन होते हैं ?

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भारतवर्ष है सिद्ध, संत और महात्माओं की भूमि

भारतभूमि सिद्ध, संत और महात्माओं की भूमि है । यहां एक-से-बढ़कर-एक सिद्ध संत हुए हैं । देवता, मनुष्य, राजा, प्रजा—सबमें सच्चे संतों का स्थान सबसे ऊंचा है । स्वयं भगवान नारायण ने सृष्टि के आरम्भ में संतरूप में नारायण ऋषि होकर तप किया था ।

संत हृदय नवनीत समाना

संत परमात्मा को अत्यन्त प्यारे होते हैं, क्योंकि वे केवल भगवान को चाहते हैं, उनके ऐश्वर्य या माया (वैभव) को नहीं । कुछ संत दास्यभाव से भगवान का भजन करते हैं, वह भगवान की अनन्तकाल तक पदसेवा करना चाहते हैं, तो कुछ मधुरभाव से भजन करते हैं, वह गोलोक में हमेशा भगवान के साथ रहना चाहते हैं और जो संत निर्गुणभाव से भजन करते हैं, वह भी अनन्तकाल तक भगवान की चिन्मय सत्ता में विलीन हो जाने की इच्छा रखते हैं; इसलिए ऐसे संतों के लिए भगवान ही उनके हो जाते हैं ।

क्या संतों को भगवान के दर्शन होते हैं ?

इसका उत्तर है ‘हां’ । भारतवर्ष में अनेक ऐसे संत हुए हैं जिन्हें भगवान के दर्शन हुए या जिनके साथ भगवान लीला करते थे । ऐसे संत संसार में थोड़े हैं परन्तु उनका अस्तित्व ही जगत में मंगल और कल्याण बनाए हुए है । सिद्ध संतों का स्वभाव बहुत ही भिन्न हुआ करता है । एकान्त स्थान में दिन-रात उनका भगवान के साथ शरीर-मन-वाणी और आत्मा से सम्बन्ध बना रहता है इसलिए वे अपनी मौज में बने रहते हैं । अधिकांश सच्चे संत अपने को लोगों में प्रकट नहीं करते हैं । ऐसे सच्चे संत हमारे बीच आते भी हैं परन्तु हम उन्हें पहचान नहीं पाते हैं । वे अपने अनन्य भक्तों को आज भी दर्शन देते रहते हैं ।

श्रीकृष्ण की लीला के यन्त्र हैं संत

संत भगवान की नित्यलीला के साधन होते हैं । संत और भगवान परस्पर सखा होकर लीला करते हैं । ऐसे ही एक संत ‘अहमदशाह’ का कहना है कि वैकुण्ठ में कल्पवृक्ष की छांह मुझे नहीं चाहिए मुझे तो व्रज के ढाक के वृक्ष ही सुहावने लगते हैं जहां मेरा प्रीतम प्यारा मेरे साथ गलबहियां डाले खड़ा रहता है—

काह करिय वैकुंठ लै कलप बृच्छ की छांह ।
‘अहमद’ ढाक सुहावनो, जौं पीतम-गल बांह ।।

श्रीकृष्ण और नारायण स्वामी का पकड़ा-पकड़ी का खेल

संत नारायण स्वामी का जन्म सं. १८८५ में रावलपिण्डी में हुआ था । तीस वर्ष की आयु में वे सब कुछ त्यागकर प्रेम-संन्यास ग्रहणकर गोवर्धन में कुसुम सरोवर पर रहा करते थे ।

कुसुम सरोवर

कुसुम सरोवर व्रज के प्रधान सरोवरों में से एक है । इसे कुसुमवन या पुष्पवन भी कहा गया है । यह श्रीराधाकृष्ण की श्रृंगाररस की लीला का क्षेत्र है । श्रीराधारानी अपनी सखियों के साथ यहां प्रियतम श्रीकृष्ण के लिए पुष्प चयन करने के लिए प्रतिदिन आती हैं । श्रीकृष्ण भी अपनी गोपमण्डली के साथ यहां गोचारण के लिए आते हैं । यह स्थान श्रीराधाकृष्ण की मिलनस्थली के रूप में भक्तों में पूजनीय है । इसलिए श्रीकृष्ण मिलन की इच्छा रखने वाले संतों की यह साधनास्थली रही है ।

श्रीकृष्ण और नारायण स्वामी की सख्यलीला

परम अनुरागी संत नारायण स्वामी श्रीकृष्ण को ही ब्रह्म मानते थे । श्रीकृष्ण प्रेम ही इनकी साधना का प्राण था । कुसुम सरोवर पर एक मन्दिर का पुजारी भी रहता था । एक दिन पुजारी ने देखा कि नारायण स्वामी पागल की भांति कुसुम सरोवर से गिरिराज पर्वत की ओर दौड़े जा रहे हैं । गिरिराज पर्वत के पास जाकर वे फिर पीछे की ओर दौड़ने लगे और दौड़ते-दौड़ते नारायण स्वामी कुसुम सरोवर तक लौट आए । इस प्रकार न जाने कितनी बार गिरिराज पर्वत की ओर दौड़कर जाते और फिर लौटकर कुसुम सरोवर तक दौड़ कर आते ।

पुजारी को आश्चर्य हुआ पर उसने नारायण स्वामी से कुछ पूछा नहीं । दूसरे दिन भी नारायण स्वामी वैसे ही दौड़ते रहे । यह क्रम कई दिन तक चला । एक दिन पुजारी से रहा नहीं गया और उसने नारायण स्वामी के चरण पकड़ कर पूछा–’आप इस प्रकार दौड़ते क्यों रहते हैं ?’

नारायण स्वामी उत्तर देने से बचने लगे परन्तु पुजारी अड़ गया और उनके चरण छोड़े ही नहीं । तब पुजारी का अत्यधिक प्रेम देखकर नारायण स्वामी बोले–

‘देखो ! मैं जाता हूँ कुसुम सरोवर भजन करने के लिए । लेकिन जैसे ही भजन के लिए नेत्र बंद करता हूँ वह कन्हैया मुझे कुछ दूरी पर खड़ा दिखायी देता है ।

कन्हैया की आंखें हिरन-सी नशीली ।
कन्हैया की शोखी कली-सी रसीली ।।
कन्हैया की छवि दिल उड़ा लेने वाली ।
कन्हैया की सूरत लुभा लेने वाली।। (हज़रत नफीस खलीली)

उसकी हिरन-सी नशीली आंखों की रूपमाधुरी में फंसकर मैं पागल हो जाता हूँ और जैसे ही मैं उसे पकड़ने के लिए दौड़ता हूँ, वह भाग निकलता है । मैं उसके पीछे-पीछे गिरिराज तक दौड़ता हूँ । गिरिराज पर्वत पर आकर मुझे लगता है कि वह मेरे पीछे खड़ा है तो मैं उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे दौड़ पड़ता हूँ और वह मुझे कुसुम सरोवर तक ले आता है । इस तरह कई दिनों से मैं उसे पकड़ने के लिए कुसुम सरोवर से गिरिराज पर्वत और गिरिराज पर्वत से कुसुम सरोवर तक की दौड़ लगा रहा हूँ ।’

जाहि लगन लगी घनस्याम की ।
x   x x   x x
नारायन बौरी भई डोलै, रही न काहू काम की।।

परमात्मा के लिए तो कोई विरले भाग्यवान मनुष्य ही पागल होते हैं

पुजारी ने आश्चर्यचकित होकर कहा–’आप उनसे कोई बात क्यों नहीं करते ?’

नारायण स्वामी बोले–’पहले तो बहुत-सी बात याद रहती हैं कि उनसे ये पूछूंगा, वह भी पूछूंगा किन्तु उनकी नीलमणि-सी छवि को देखते ही सब कुछ भूल जाता हूँ; केवल उनकी याद बच रहती है । इस स्थिति को बयां करते हुए उनका पद है—

मोहन बस गयौ मेरे मन मैं।
जित देखूं तित ठाडौ ही दीसै, घर बाहर आंगन में ।।
लोक लाज कुल-कान छूटि गई, याकी नेह लगन में ।
कुंडल कलित ललित बनमाला, बाजूबंद भुजन में ।।
रोम-रोम प्रति अंग-अंग में, छाय रह्यौ तन-मन में ।
नैन विशाल भ्रकुटि बर बांकी, ठाडौ सघन लतन में ।।
नारायन बिन मोल बिकी हौं, याकी मन्द हंसन में ।।

मनचोर श्रीकृष्ण

भगवान सबसे पहले भक्त का मन चुरा लेते हैं । जिसका मन भगवान ने चुरा लिया; वह फिर उस मनचोर श्रीकृष्ण से अलग कैसे रह सकता है ? इसलिए श्रीकृष्ण के सौन्दर्यजाल में फंसकर पागल होने से बचने के लिए एक भक्त नंदमहल की गली के पास भी जाने को मना करते हुए कहता है कि—

हे पथिक ! तू उस रास्ते से मत गुजरना । वह रास्ता बहुत भयानक है । वहां से गुजरने पर मनुष्य का सर्वस्व लुट जाता है । वहां एक छैल-छबीला तमालवर्ण (नीलश्याम वर्ण) का, नंगे बदन, अपने नितम्ब पर हाथ धरे, मंद-मंद मुसकराता हुआ, देखने में भोला-भाला जादूगर खड़ा है । वह तुरन्त ही पथिक का मनरूपी धन चुरा लेता है, और उसे रोकने वाला कोई नहीं है—

बटाऊ ! वा मग से मति जइयो ।
गली भयावनि भारी जा मैं सबरो माल लुटइयो ।।
ठाडो वहां तमाल-नील एक छैल छबीलो छैयो ।
नंगे बदन मदन-मद मारत, मधुर-मधुर मुसकैयो ।।
देखन कौ अति भोरो छोरो, जादूगर बहु सैयो ।
हरत चित्तधन सरबस तुरतहि, नहिं कोउ ताहि रुकैयो ।।

हमें यह विश्वास करना ही होगा कि इसी मनुष्य शरीर में, इन्हीं आंखों से भगवान का दर्शन होता है । इसी हाथ से भगवान पकड़े जाते हैं । सूरदासजी ने कहा है—

हाथ छुड़ाए जात हो, निबल जानि के मोहि ।
हृदय से जब जाओगे, मरद कहोंगो तोहिं ।।

नारायण स्वामी को भगवान की दिव्यलीला के दर्शन कई बार हुए थे । कुसुम सरोवर पर ही उनकी समाधि है ।

श्रीमद्भागवत (११।१४।१६) में संतों की महिमा गाते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘उद्धव ! तुम जैसे संत भक्त मुझको जितने प्यारे हैं, उतने मेरे आत्मरूप ब्रह्मा, शंकर, बलभद्र, लक्ष्मी और अपना आत्मा भी प्यारे नहीं है । मैं ऐसे  निरपेक्ष, शान्त, निर्वैर और समदर्शी संत के चरणरज से अपने को पवित्र करने के लिए सदा ही उसके पीछे-पीछे फिरा करता हूँ ।’

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वायुरोगों की रामबाण औषधि हैं हनुमान-मन्त्र

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कलियुग में पवनपुत्र हनुमान ग्राम-ग्राम में, घर-घर में पूजे जाते हैं । सच्चे, श्रद्धावान मनुष्य के कष्टों का निवारण करने वाला उनके समान उपकारी व दयालु कोई दूसरा देव नहीं है ।

सात चिरंजीवियों में से एक है हनुमानजी

सीताजी द्वारा दिए गए वरदान ‘अजर अमर गुननिधि सुत होहू’ और आयुर्वेद के जानकार होने से हनुमानजी ने अपने को चिरंजीवी बना लिया है ।  वायुदेव के मानस औरस पुत्र होने के कारण हनुमानजी का वायु से गहरा सम्बन्ध है । वे वायुनन्दन, पवनतनय, पवनपुत्र, वातात्मज और मारुति नाम से जाने जाते हैं, इसलिए हनुमानजी की आराधना से वातरोगों (वायुरोगों) का नाश होता है ।

महर्षि चरक ने कफ, पित्त और वायु दोषों में वायु को ही बलवान और प्रधान दोष माना है । पित्त, कफ, मल और धातु ये सब पंगु (परतन्त्र) हैं । इनको वायु जहां ले जाता है, वहीं ये बादल के समान चले जाते हैं । अधिकांश रोग वायु कुपित होने से ही उत्पन्न होते हैं ।

प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त, और धनंजय—ये दस प्रकार के प्राणवायु हैं । शास्त्रों में आत्मा सहित इन दस वायु को एकादश रूद्र कहा गया है । इन वायुओं पर जो विजय प्राप्त कर लेता है, उसे ही अष्टसिद्धियां प्राप्त होती हैं । हनुमानजी अष्टसिद्धियों के दाता हैं ।

वायुरोगों के नाश के लिए हनुमानजी की पूजाविधि और मन्त्र

—सबसे पहले किसी शुद्ध स्थान पर हनुमानजी की तस्वीर के सामने पूर्व की ओर मुख करके आसन पर बैठ जाएं ।

—चंदन, चावल, फूल, धूप-दीप व नैवेद्य से हनुमानजी का पूजन करें । हनुमानजी को शुद्ध घी में घर पर बनाया हुआ चूरमा प्रसाद चढ़ाना चाहिए । यदि रोज चूरमा का भोग न लगा सकें तो मंगलवार को अवश्य भोग लगाना चाहिए ।

—हनुमानजी के चित्र के सामने शुद्ध घी का ही दीप जलाना चाहिए ।

वायुरोग नाशक मन्त्र

वायुरोग के नाश के लिए जो मन्त्र बताए जा रहे हैं उनमें से अपनी सुविधानुसार जो आसान लगे, वह मन्त्र जाप कर सकते हैं —

पहला मन्त्र है—

नासै रोग हरै सब पीरा ।
जपत निरंतर हनुमत बीरा ।।

इस मन्त्र का ज्यादा-से-ज्यादा जप करने का प्रयत्न करना चाहिए । रात-दिन मानसिक जप भी कर सकते हैं । या प्रतिदिन केवल रात में भोजन का नियम लेकर एक सौ आठ बार जप करें तो मनुष्य छोटे-मोटे रोगों से छूट जाता है ।

दूसरा मन्त्र है—

हनूमान अंजनीसूनो वायुपुत्र महाबल ।
अकस्मादागतोत्पातं नाशयाशु नमोऽस्तु ते ।।

इस मन्त्र का जप दो प्रकार से कर सकते हैं । पहला, अनुष्ठान विधि से जप कर सकते हैं—इसमें ११ दिनों तक रोजाना ३ हजार माला का जप होना चाहिए । उसके बाद दशांश जप या हवन करके ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए, इससे शीघ्र ही रोग नष्ट हो जाता है ।

दूसरी विधि है कि सभी अवस्थाओं में चलते-फिरते, काम करते हुए, जब भी अवसर प्राप्त हो, इस मन्त्र का तब तक मानसिक जप करना चाहिए, जब तक की रोग शान्त न हो जाए ।

‘हनुमानबाहुक’ के तीन पाठ मिटा देते हैं वातरोग

तुलसीदासजी की बाहुओं में वायु-प्रकोप से भयंकर पीड़ा थी । उसी समय उन्होंने ‘हनुमानबाहुक’ की रचना की जिसके फलस्वरूप उन्हें वायु-प्रकोप से मुक्ति मिल गयी । ऐसी मान्यता है कि औषधि सेवन से जो वात कष्ट दूर नहीं हो पाता, उसे हनुमानबाहुक के केवल तीन पाठ पूरी तरह से दूर कर देते हैं । इतना ही नहीं ‘हनुमानबाहुक’ के ग्यारह हजार एक सौ आठ (११,१०८) पाठ करने से असम्भव कार्य भी सम्भव हो जाता है ।

समस्त मनोरथों को पूर्ण कर अभीष्ट फलदाता होने से ‘हनुमानबाहुक’ का पाठ नित्य किया जा सकता है । स्नान करके शुद्ध आसन पर बैठकर हनुमानजी की प्रतिमा या चित्रपट पर गुग्गुल का धूप निवेदन करें । बेसन के पांच लड्डू या पांच फल या पंचमेवा का नैवेद्य (भोग) अर्पणकर एकाग्रमन से हनुमानजी का ध्यान करते हुए ‘हनुमानबाहुक’ का नित्य पाठ करने पर वायु सम्बन्धी सभी रोगों का शमन हो जाता है।

दै गूगुल की धूप हमेशा।
करै पाठ तन मिटै कलेषा।।

इन उपायों को करते समय रखें इन बातों का ध्यान

—किसी भी मंगलवार से मन्त्रजाप शुरु किया जा सकता है ।

—जननाशौच (बच्चे के जन्म का सूतक) और मरणाशौच (मृत्यु के सूतक) में इसका प्रारम्भ नहीं करना चाहिए ।

—मन्त्रकर्ता को सात्विक आहार ही लेना चाहिए ।

—ब्रह्मचर्य पालन, क्रोध नहीं करना और सत्य बोलना एवं सदाचार से हनुमानजी विशेष प्रसन्न होते हैं । अत: यदि ये सद्गुण अपना लिए जाएं तो रोग का नाश शीघ्र हो जाता है ।

‘पवन-तनय संतन हितकारी’ हनुमानजी उपमारहित हैं, उनकी कहीं तुलना है ही नहीं । उनके उपकारों का गुणगान करना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है । वे हृदय से चाहते हैं कि प्राणियों के दु:ख दारिद्रय, आधि-व्याधि सदा के लिए मिट जाएं ।

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भगवान विष्णु का पाषाणरूप है शालग्राम

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जहां शालग्राम शिला रहती है वहां भगवान श्रीहरि व लक्ष्मीजी के साथ सभी तीर्थ  निवास करते हैं

हिमालय पर्वत के मध्यभाग में शालग्राम-पर्वत (मुक्तिनाथ) है, यहां भगवान विष्णु के गण्डस्थल से गण्डकी नदी निकलती है, वहां से निकलने वाले पत्थर को शालग्राम कहते हैं । वहां रहने वाले कीड़े अपने तीखे दांतों से  शिला को काट-काट कर उसमें चक्र, वनमाला, गाय के खुर आदि का चिह्न बना देते हैं । भगवान विष्णु सर्वव्यापक होने पर भी शालग्राम शिला में साक्षात रूप से रहते हैं जैसे काठ में अग्नि गुप्त रूप से रहती है; इसीलिए इनकी प्राण-प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं होती है और पूजा में भी आवाहन और विसर्जन नहीं किया जाता है ।

शालग्राम शिला में भगवान की उपस्थिति का सबसे सुन्दर उदाहरण वृन्दावनधाम में श्रीराधारमणजी हैं जो शालग्राम शिला से ही प्रकट हुए हैं । इसकी कथा इस प्रकार है–

एक बार श्रीगोपालभट्टजी गण्डकी नदी में स्नान कर रहे थे, तो सूर्य को अर्घ्य देते समय एक अद्भुत शालग्राम शिला उनकी अंजुली में आ गयी जिसे वे वृन्दावन लाकर पूजा-अर्चना करने लगे । एक दिन एक सेठ ने वृंदावन में भगवान के सभी विग्रहों के लिए सुन्दर वस्त्र-आभूषण बांटे । श्रीगोपालभट्टजी को भी वस्त्र-आभूषण मिले परन्तु वे उन्हें शालग्राम को कैसे धारण कराते ? भट्टजी के मन में भाव आया कि अगर मेरे आराध्य के भी अन्य विग्रहों की तरह हस्त और पाद होते तो मैं भी उन्हें सजाता । यह विचार करते हुए उन्हें सारी रात नींद नहीं आयी । प्रात:काल जब वे उठे तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा क्योंकि उनके शालग्राम द्वादश अंगुल के ललित त्रिभंगी दो भुजाओं वाले मुस्कराते हुए श्रीराधारमनजी बन गए थे । इस प्रसंग के लिए इससे ज्यादा सुन्दर उदाहरण और कोई हो नहीं सकता ।

radha raman shri krishna bhagwan ji

शालग्राम और तुलसी

छलपूर्वक तुलसी का पातिव्रत-भंग करने के कारण भगवान श्रीहरि को शाप देते हुए तुलसी ने कहा कि आपका हृदय पाषाण के समान है; अत: अब मेरे शाप से आप पाषाणरूप होकर पृथ्वी पर रहें । भगवान विष्णु पतिव्रता तुलसी (वृन्दा) के शाप से शालग्राम शिला बन गए । वृन्दा भी तुलसी के रूप में परिवर्तित हो गयीं । शालग्रामजी पर से केवल शयन कराते समय ही तुलसी हटाकर बगल में रख दी जाती है, इसके अलावा वे कभी तुलसी से अलग नहीं होते हैं । जो शालग्राम पर से तुलसीपत्र को हटा देता है, वह दूसरे जन्म में पत्नी विहीन होता है ।

सुख-समृद्धि और मोक्ष देने वाली विभिन्न प्रकार की शालग्राम शिलाएं

आकृति में विभिन्नता से शालग्राम शिला अनेक प्रकार की होती हैं—

—जिसमें एक द्वारका चिह्न, चार चक्र और वनमाला हो व श्यामवर्ण का हो वह शिला ’लक्ष्मीनारायण’ का रूप होती है ।

different types of shali gram patthar

—एक द्वार, चार चक्र व श्याम वर्ण की शिला ‘लक्ष्मीजनार्दन’ कहलाती है ।

—दो द्वार, चार चक्र और गाय के खुर का चिह्न वाली शिला ‘राघवेन्द्र’ का रूप होती है ।

—जिसमें दो बहुत छोटे चक्र चिह्न व श्यामवर्ण की हो वह ‘दधिवामन’ कहलाती है। गृहस्थों के लिए इसकी पूजा अत्यन्त शुभदायक है ।

—अत्यन्त छोटे दो चक्र व वनमाला का चिह्न वाली शिला ‘श्रीधर’ भगवान का रूप है । इसकी पूजा से गृहस्थ श्रीसम्पन्न हो जाते हैं ।

—जो शिला मोटी, पूरी गोल व दो बहुत छोटे चक्र वाली हो, वह ‘दामोदर’ के नाम से जानी जाती है ।

—जो शिला वर्तुलाकार, दो चक्र, तरकस और बाण के चिह्न से सुशोभित हो वह ‘रणराम’ के नाम से जानी जाती है ।

—जिस शिला पर सात चक्र, छत्र व तरकस हो वह भगवान ‘राजराजेश्वर’ का विग्रह मानी जाती है । इसकी उपासना से मनुष्य को राजा जैसी सम्पत्ति प्राप्त होती है ।

—चौदह चक्रों, मेघश्याम रंग की मोटी शिला को भगवान ‘अनन्त’ कहते हैं । इसके पूजन से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों फल प्राप्त होते हैं ।

—एक चक्र वाली शिला ‘सुदर्शन’, दो चक्र और गो खुर वाली ‘मधुसूदन’, दो चक्र और घोड़े के मुख की आकृति वाली ‘हयग्रीव’, और दो चक्र और विकट रूप वाली शिला ‘नरसिंह’ कहलाती है । इसकी पूजा से मनुष्य को वैराग्य हो जाता है ।

narsim bhagwan

—जिसमें द्वार-देश में दो चक्र और श्री का चिह्न हो वह ‘वासुदेव’, जिसमें बहुत से छोटे छिद्र हों वह ‘प्रद्युम्न’, जिसमें दो सटे हुए चक्र हों वह ‘संकर्षण’ और जो गोलाकार पीले रंग की हो वह ‘अनिरुद्ध’ कहलाती है।

कैसे करें भगवान शालग्राम का अभिषेक

एक तांबे की कटोरी या प्लेट में तुलसी रखकर उस पर शालग्राम को रख दें । फिर शंख में जल भरकर घण्टी बजाते हुए श्रीविष्णवे नम: या ॐ नमो भगवते वासुदेवाय या ॐ नमो नारायणाय, या पुरुषसूक्त के मन्त्रों का पाठ करते हुए भगवान शालग्राम का अभिषेक किया जाता है । यदि स्नान कराने वाले जल में इत्र व सफेद चन्दन मिला लें तो यह और भी उत्तम है । शालग्राम शिला के स्नान का जल ‘शालग्राम-सिलोदक’ या ‘अष्टांग’ कहलाता है।

  • शालग्राम-सिलोदक (स्नान के जल) को यदि श्रद्धापूर्वक ग्रहण किया जाए तो मनुष्य को कोई रोग नहीं होता है, व जन्म, मृत्यु और जरा से छुटकारा मिल जाता है ।
  • शालग्राम-सिलोदक के पीने से अकालमृत्यु और अपमृत्यु का भी नाश हो जाता है।
  • शालग्राम-सिलोदक को अपने ऊपर छिड़कने से तीर्थ में स्नान का फल प्राप्त होता है ।
  • मरणासन्न व्यक्ति के मुख में यदि शालग्राम का जल डाल दिया जाए को वह भगवान श्रीहरि के चरणों में लीन हो जाता है ।
  • इस जल को पीने से मनष्य के सभी पाप दूर हो जाते हैं व पुनर्जन्म नहीं होता है।

भगवान शालग्राम के पूजन में रखेँ निम्न बातों का ध्यान

—शालग्रामजी की पूजा स्त्री को नहीं करनी चाहिए । वह अपने प्रतिनिधि के रूप में ब्राह्मण या परिवार के पुरुष सदस्य से शालग्रामजी की पूजा करवा सकती है ।

—शालग्राम सदैव सम संख्या में ही पूजे जाते है किन्तु दो शालग्राम की पूजा नहीं की जाती है । विषम संख्या में पूजा नहीं करने पर भी एक शालग्रामजी की पूजा का विधान है ।

शालग्राम पूजन से मिलते हैं ये चमत्कारी लाभ

ये सभी शालग्राम शिलाएं सुख देने वाली हैं क्योंकि जहां शालग्राम शिला रहती है वहां भगवान श्रीहरि व लक्ष्मीजी के साथ सभी तीर्थ सदैव निवास करते हैं । मनुष्य के बहुत से जन्मों के पुण्यों से यदि कभी गोष्पद (गाय के खुर) चिह्न से युक्त श्रीकृष्ण-शिला प्राप्त हो जाए तो उसके पूजन से पुनर्जन्म नहीं होता है । इस शिला की पहले परीक्षा कर लेनी चाहिए—

  • यदि यह काली और चिकनी है तो यह उत्तम मानी गयी है ।
  • यदि शिला की कालिमा कुछ कम हो तो यह मध्यम श्रेणी की होती है ।
  • यदि उसमें दूसरा रंग भी मिला हो तो वह मिश्रित फल देने वाली होती है ।
  • शालग्रामशिला के स्पर्श करने मात्र से करोड़ों जन्मों के पापों का नाश हो जाता है । यदि उसका पूजन किया जाए तो उसके फल के विषय में कहना ही क्या !
  • चारों वेदों को पढ़ने और तपस्या से जो पुण्य होता है, वही पुण्य शालग्राम शिला की उपासना से प्राप्त हो जाता है ।
  • जिस घर में शालग्राम विराजते हैं वहां कोई अशुभ दृष्टि या अशुभ प्राणी प्रवेश नहीं कर सकता है ।

भूलकर भी नहीं रखें पूजा में ये शालग्राम

  • शूल के समान नुकीले शालग्राम की पूजा मृत्युकारक होती है ।
  • टेड़े मुख वाले शालग्राम की पूजा से दरिद्रता आती है ।
  • खंडित चक्र वाले शालग्राम की पूजा से मनुष्य रोगी हो जाता है ।
  • फटे हुए शालग्राम की पूजा मृत्युकारक होती है ।
  • और पिंगल वर्ण के शालग्राम की पूजा अनिष्ट को जन्म देती है । अत: इन सबकी पूजा नहीं करनी चाहिए ।

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शनिदेव को तेल क्यों चढ़ाया जाता है ?

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नवग्रहों में शनिदेव को दण्डाधिकारी का स्थान दिया गया है । वे मनुष्य हो या देवता, राजा हो या रंक, पशु हो या पक्षी सबके लिए उनके कर्मानुसार दण्ड का विधान करते हैं; लेकिन जब स्वयं न्यायाधीश ही गलती करे तो परमात्मा ही उसके लिए दण्ड तय करता है । ऐसा ही कुछ शनिदेव और रामभक्त हनुमान के प्रसंग में देखने को मिलता है ।

सभी दु:खों का कारण है अभिमान

भारतीय संस्कृति में स्वयं को बड़ा नहीं माना जाता, बल्कि दूसरों को बड़ा और आदरणीय मानने की परम्परा रही है । अभिमान (घमण्ड, दर्प, दम्भ और अहंकार) ही सभी दु:खों व बुराइयों का कारण है । जैसे ही मनुष्य के हृदय में जरा-सा भी अभिमान आता है, उसके अन्दर दुर्गुण आ जाते हैं और वह उद्दण्ड व अत्याचारी बन जाता है । लंकापति रावण चारों वेदों का ज्ञाता, अत्यन्त पराक्रमी और भगवान शिव का अनन्य भक्त होते हुए भी अभिमानी होने के कारण समस्त कुल सहित विनाश को प्राप्त हुआ । परमात्मा भी विनम्र व्यक्ति से ही प्रसन्न होते हैं–

लघुता से प्रभुता मिलै, प्रभुता से प्रभु दूर ।
चींटी शक्कर लै चली हाथी के सिर धूर ।।

तुलसीदासजी (राचमा, उत्तरकाण्ड ७।७४।५-६) में कहते हैं–

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ ।
जन अभिमान न राखहिं काऊ ।।
संसृत मूल सूलप्रद नाना ।
सकल सोक दायक अभिमाना ।।

भगवान श्रीराम का स्वभाव है कि वे भक्त में अभिमान नहीं रहने देते; क्योंकि अभिमान जन्म-मरण रूप संसार का मूल है और अनेक प्रकार के क्लेशों और शोक को देने वाला है । भगवान अहंकार को शीघ्र ही मिटाकर भक्त का हृदय निर्मल कर देते हैं । उस समय थोड़ा कष्ट महसूस होता है लेकिन बाद में उसमें भगवान की करुणा ही दिखाई देती है ।

जाको प्रभु दारुण दु:ख देहीं, ताकी मति पहले हरि लेंहीं

शनिदेव को तेल क्यों चढ़ाया जाता है?’—इस प्रसंग में यह कहावत बिल्कुल सही उतरती है ।

एक बार सूर्यास्त के समय श्रीराम-भक्त हनुमानजी राम-सेतु के पास अपने आराध्य के ध्यान में मग्न थे । इससे उन्हें आस-पास की बिल्कुल स्मृति न थी । उसी समय सूर्यपुत्र शनि भी समुद्रतट पर टहल रहे थे । शक्ति और पराक्रम के अहंकार में चूर होकर शनिदेव सोचने लगे—‘सृष्टि में मेरी समता करने वाला कोई नहीं है । मेरे आगमन का समाचार सुनकर बड़े-बड़े पराक्रमी मनुष्य ही नहीं वरन् देव और दानव भी कांप उठते हैं । मेरी शक्ति का कोई उपयोग ही नहीं हो रहा है । मैं कहां जाऊं, किसके साथ दो-दो हाथ करूं ।’

तभी उनकी दृष्टि ध्यानमग्न हनुमानजी पर पड़ी । सूर्य की तीखी किरणों से अत्यन्त काले हुए शनिदेव ने हनुमानजी के साथ युद्ध करने का निश्चय किया ।

अहंकार का नशा पतन की ओर ले जाता है

हनुमानजी के पास जाकर अत्यन्त कर्कश स्वर में शनिदेव ने कहा—‘बंदर ! मैं शक्तिशाली शनि तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ । पाखण्ड छोड़कर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ।’

तिरस्कारपूर्ण वाणी सुनकर हनुमानजी ने पूछा—‘आप कौन हैं?’ अहंकार में चूर शनिदेव ने कहा—‘मैं सूर्य का पराक्रमी पुत्र शनि हूँ । संसार मेरे नाम से ही कांप उठता है । मैं तुम्हारी राशि पर आ रहा हूं, तुम्हारी शक्ति की परीक्षा लेना चाहता हूं ।’

हनुमानजी ने शनिदेव को टरकाने के लिए बहुत बहाने किए कि मैं वृद्ध हूँ, अपने प्रभु का ध्यान कर रहा हूँ परन्तु शनिदेव अपनी महानता का बखान करते रहे और बोले—‘कायरता तुम्हें शोभा नहीं देती है ।’ यह कहकर उन्होंने महावीर हनुमान का हाथ पकड़ लिया ।

कबीरदासजी के शब्दों में–’जहां आपा तहां आपदा’ अर्थात् जब मनुष्य या देवता किसी में भी अभिमान आता है तब उस पर अनेक प्रकार की आपत्तियां आने लगती हैं ।’

शनिदेव को अपना हाथ पकड़ते देखकर बजरंगबली ने अपनी पूंछ बढ़ाकर शनिदेव को उसमें लपेटना शुरु कर दिया और कुछ ही देर में शनिदेव कण्ठ तक हनुमानजी की पूंछ में बंध गए । उनका अहंकार, पराक्रम सब बेकार गया और वे असहाय होकर पीड़ा से छटपटाने लगे ।

‘अब मेरा राम-सेतु की परिक्रमा का समय हो गया है’—यह कहकर हनुमानजी रामसेतु की दौड़कर प्रदक्षिणा करने लगे । इससे उनकी विशाल पूंछ, जिसमें शनिदेव बंधे हुए थे, वानर व भालुओं द्वारा रखे गये बड़े-बड़े पत्थरों से टकराने लगी । बजरंगबली बीच-बीच में अपनी पूंछ को पत्थरों पर पटक भी देते थे ।

पत्थरों पर पटके जाने से शनिदेव का शरीर लहुलुहान हो गया । असहनीय पीड़ा से कराहते हुए वे हनुमानजी को रुकने की प्रार्थना करते हुए बोले—‘मुझे मेरी उदण्डता का फल मिल गया है अब मेरे प्राण छोड़ दीजिए ।’

भक्त हृदय नवनीत समाना

भक्तों का हृदय तो असीम करुणा से भरा होता है, जरा सी देर में ही वह पिघल जाता है । करुणावरुणालय हनुमानजी ने कहा—‘यदि तुम मेरे भक्त की राशि पर कभी न जाने का वचन दो तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ । यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हें कठोरतम दण्ड प्रदान करुंगा ।’

हनुमानजी के भक्तों को नहीं सताती शनि पीड़ा

शनिदेव ने वचन दिया—‘मैं आपके भक्त की राशि पर कभी नहीं जाऊंगा, आप मुझे बंधनमुक्त कर दें ।’

हनुमानजी ने शनिदेव को छोड़ दिया । चोट की असहनीय पीड़ा से व्याकुल होकर शनिदेव अपने शरीर पर लगाने के लिए तेल मांगने लगे । तभी से उन्हें जो तेल प्रदान करता है, उसे वे संतुष्ट होकर आशीर्वाद देते हैं । इसी कारण शनिदेव को तेल चढ़ाया जाता है ।

हनुमानजी की आराधना दूर करती है शनि पीड़ा

हनुमानजी की आराधना करने वालों को शनिदेव पीड़ा नहीं देते हैं ।▪️मंगलवार व शनिवार को  ‘श्री हनुमते नमः’ मन्त्र की एक माला का जाप, ▪️हनुमान चालीसा का पाठ, ▪️हनुमानजी की प्रतिमा को सिन्दूर का चोला चढ़ाने और भोग लगाने से शनिदेव प्रसन्न रहते हैं ।

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श्रीकृष्णकृपा से मल मास बन गया पुरुषोत्तम मास

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सन् 2018 में मई-जून के महीने में (16 मई से 13 जून तक) अत्यन्त पुण्यफलों को देने वाला पुरुषोत्तम मास है । इस वर्ष दो ज्येष्ठ मास होंगे । पुरुषोत्तम मास सब मासों का अधिपति है । भगवान श्रीकृष्ण ही पुरुषोत्तम हैं; इस मास को अपना नाम देकर वे इसके स्वामी बन गए ।

पुरुषोत्तम मास का प्रादुर्भाव (उत्पत्ति)

▪️ ऐसा माना जाता है कि हिरण्यकशिपु ने ऐसा वरदान प्राप्त किया था कि कोई भी प्राणी—नर हो या नारायण, किसी भी अस्त्र से, किसी भी सामान्य जगह पर और किसी भी सामान्य काल में उसे मार नहीं सकता था । भगवान विष्णु ने अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए बड़ी चतुराई से सभी शर्तों का पालन करते हुए हिरण्यकशिपु के वध की योजना बनाई । उन्होंने असाधारण प्राणी—नृसिंह (आधा नर आधा सिंह) का रूप धरकर, खंभे से प्रकट होकर, असाधारण जगह—अपनी जंघा पर लिटाकर, न दिन और न रात में—गोधूलि की वेला में, असाधारण शस्त्र से—अपने नाखूनों से उसकी छाती फाड़ दी । इसके लिए भगवान ने असाधारण समय—बारह महीनों में से किसी भी महीने को न लेकर तेरहवें मास का प्रादुर्भाव किया जिसे अधिक मास या मल मास या पुरुषोत्तम मास के नाम से जाना जाता है ।

▪️ अधिक माससूर्य का एक वर्ष (सौर वर्ष) 365 दिनों का होता है और चांद वर्ष 354 दिनों का होता है। दोनों के एक वर्ष की अवधि में 11 दिनों का अंतर होता है। अत: पंचागगणना के लिए हर तीसरे चांद वर्ष में एक अतिरिक्त चांद मास जोड़कर सौर वर्ष और चांद वर्ष का समय समान कर दिया जाता है । यही अधिक मास कहलाता है । अधिक मास 28 से 36 महीनों के बाद आता है ।

▪️ इस मास को मल मास या मैला मास इसलिए कहते हैं क्योंकि इसमें सूर्य की संक्रान्ति नहीं होती है । इसमें शुभ कार्य नहीं किए जाते हैं इसलिए इसे निन्दनीय माना गया ।

श्रीकृष्णकृपा से ‘मल मास’ बना ‘पुरुषोत्तम मास’

जिस पर श्रीकृष्ण अपना वरद्हस्त रख देते हैं वह त्रिलोकी में सर्वश्रेष्ठ और पूजनीय हो जाता है, सभी उसे सिर-आंखों पर बिठा लेते हैं । ऐसा ही कुछ मल मास के साथ हुआ ।

मल मास में सूर्य की संक्रान्ति नहीं होने के कारण देवता व पितरों की पूजा और शुभकार्य वर्जित होने से सभी उसकी निन्दा करने लगे । लोकापमान से दु:खी होकर मल मास वैकुण्ठ में पहुंचा और भगवान विष्णु से रो-रोकर बोला—‘मैं ऐसा अभागा हूँ जिसका न कोई नाम है न स्वामी और न कोई आश्रय । इसलिए सब लोगों ने मेरा तिरस्कार और अपमान किया है ।’ यह कहकर वह भगवान विष्णु के चरणों में शरणागत हो गया ।

शरणागत वत्सल भगवान विष्णु मल मास को लेकर गोलोक पहुंचे जहां चिन्मय ज्योति के मध्य नीलकमल के  समान साकार रुप वाले सांवले श्रीकृष्ण स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान थे । भगवान श्रीकृष्ण ने कहा—‘हमारे गोलोक में शोक-मोह के लिए स्वप्न में भी जगह नहीं है फिर ये कांपता हुआ, आंसू बहाता हुआ मेरे सम्मुख कौन रो रहा है ?’

भगवान विष्णु ने उन्हें मल मास की सारी व्यथा सुनाई । तब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा—

‘सद्गुण, कीर्ति, प्रभाव, षडैश्वर्य, पराक्रम, भक्तों को वरदान देना आदि जितने भी सद्गुण मुझ पुरुषोत्तम में हैं, उन सबको आज से मैंने मल मास को सौप दिया है । मेरा नाम जो वेद, लोक और शास्त्र में प्रसिद्ध है, आज से उसी ‘पुरुषोत्तम’ नाम से यह मल मास विख्यात होगा । मैं स्वयं इस मास का स्वामी हो गया हूँ । इस मास में मेरी आराधना करने वालों को मैं परम दुर्लभ पद (गोलोकधाम) प्रदान करुंगा ।’

अथर्ववेद में इसे भगवान का घर बताया गया है—‘त्रयोदशो मास इन्द्रस्य गृह: ।’

पुरुषोत्तम मास में भगवान श्रीविष्णु/श्रीकृष्ण को कैसे करें प्रसन्न

इस मास में श्रद्धा-भक्ति से भगवान की पूजा-आराधना, व्रत आदि करने से मनुष्य के दु:ख-दारिद्रय और पापों का नाश होकर अंत में भगवान के धाम की प्राप्ति होती है । इसके लिए ये उपाय करने चाहिए—

—इस मास में  भगवान के ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादशाक्षर मन्त्र का या श्रीराम या श्रीकृष्ण के मन्त्र ‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे’ का या शिव पंचाक्षर मन्त्र ‘नम: शिवाय’  का या ‘ॐ नमो नारायणाय’ मन्त्र के जप का अनन्त फल होता है । अंत जितना हो सके, किसी भी मन्त्र का अधिक-से-अधिक जप करना चाहिए ।

—घर के मन्दिर में घी का अखण्ड दीपक पूरे महीने जलायें ।

—शालग्राम भगवान की मूर्ति स्थापित करके स्वयं या ब्राह्मण द्वारा विधिपूर्वक पूजन करना चाहिए ।

—गीता के पुरुषोत्तम नाम के १५वें अध्याय का नित्य अर्थ सहित पाठ करना चाहिए ।

—इस मास में श्रीमद्भागवत की कथा का पाठ करना या कराने का बहुत पुण्य है ।

—यदि हो सके तो इस एक महीने में सवा लाख तुलसीदल पर राम, ॐ या कृष्ण—इनमें से कोई भी नाम चन्दन से लिखकर भगवान पर चढ़ाना चाहिए ।

—इस मास में भगवान शिव और विष्णु/श्रीकृष्ण दोनों की ही आराधना का अत्यन्त महत्त्व है ।

—इस मास में भगवान के दीपदान और ध्वजादान की भी बहुत महिमा है ।

—इस मास में पुरुषोत्तम-माहात्म्य का पाठ भी अत्यन्त फलदायी है ।

—इस महीने वैष्णवों की सेवा और उनको भोजन कराना बहुत पुण्यप्रद कहा गया है ।

—इस मास में गौओं को घास खिलानी चाहिए ।

—यदि कांसे का बर्तन हो तो उसमें अन्यथा स्टील के बर्तन में तीस मालपुआ रखकर ब्राह्मण को दान करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है ।

—अपनी श्रद्धा व सामर्थ्य के अनुसार सोना-चांदी, गाय, घी, अन्न, वस्त्र, जूता, छाता व धार्मिक पुस्तकों का दान करना चाहिए ।

पुरुषोत्तम मास के नियम

—इस मास में सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान आदि करके इस मन्त्र द्वारा पुरुषोत्तम भगवान का षोडशोपचार पूजन करना चाहिए—

गोवर्धनधरं वन्दे गोपालं गोपरुपिणम् ।
गोकुलोत्सवमीशानं गोविन्दं गोपिकाप्रियम् ।।

—नील वस्त्र धारण करने वाली श्रीराधा सहित पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करें।

—दिन में सोना नहीं चाहिए ।

—देवता, ब्राह्मण, गुरु, साधु-संन्यासी की निन्दा न करे ।

पुरुषोत्तम-व्रत करने वालों के लिए भोजन के नियम

—इस महीने व्रत करने वालों को एक समय भोजन करना चाहिए । भोजन में गेहूं, चावल, जौ, मूंग, तिल, बथुआ, मटर, चौलाई, ककड़ी, केला, आंवला, दूध, दही, घी, आम, हर्रे, पीपल, जीरा, सोंठ, सेंधा नमक, इमली, पान-सुपारी, कटहल, शहतूत , मेथी आदि खाने का विधान है । फलाहार पर रहना या चान्द्रायण व्रत करना बहुत अच्छा है ।

—पुरुषोत्तम व्रत करने वालों को मांस, शहद, चावल का मांड़, उड़द, राई, मसूर, मूली, प्याज, लहसुन,  बासी अन्न, नशीले पदार्थ आदि नहीं खाने चाहिए ।

—सामर्थ्य हो तो मास के अंत में उद्यापन, होम आदि करना चाहिए ।

पुरुषोत्तम मास में वर्जित कार्य

—इस मास में फलप्राप्ति की आशा से कोई कार्य नहीं करना चाहिए ।

—विवाह, नामकरण, श्राद्ध, कर्णछेदन व देव-प्रतिष्ठा आदि शुभकर्मों का भी इस मास में निषेध है।

कामनारहित (निष्काम भाव) से दान करने से होती है धन-धान्य व पुत्र-पौत्रों की वृद्धि

पुरुषोत्तम मास में भगवान पुरुषोत्तम को जानने की इच्छा से व्रत पूजन दान आदि करना चाहिए । गीता (१५।११) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—

यो मामेव सम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ।।

अर्थात्—जो तत्वदर्शी ज्ञानी पुरुष मुझको पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वविद् सब प्रकार से निरन्तर मुझ पुरुषोत्तम को ही भजता है ।’

इस प्रकार पूरे पुरुषोत्तम मास को एक अनुष्ठान-उत्सव की तरह मनाना चाहिए ।

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मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

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तन धन सुखिया कोई न देखा, जो देखा सो दुखिया रे ।
चंद्र दुखी है, सूर्य दुखी है, भरमत निसदिन जाया रे ।।
ब्रह्मा और प्रजापति दुखिया, जिन यह जग सिरजाया रे ।
हाटो दुखिया, बाटो दुखिया, क्या गिरस्थ बैरागी रे ।।
शुक्राचार्य जन्म के दुखिया, माया गर्व न त्यागी रे ।
धूत दुखी, अवधूत दुखी हैं, रंक दुखी धन रीता रे ।।
कहै कबीर वोही नर सुखिया, जो यह मन को जीता रे ।।

हमारा मन है हमारी ताकत

आदिशंकराचार्यजी का कहना है—‘मन की जीत मनुष्य की सबसे बड़ी जीत है । जिसने अपने मन को जीत लिया है उसने सारे जगत पर विजय प्राप्त कर ली है ।’

हमारा मन ही हमारे जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण बिन्दु है । यही हमें हंसाता है, यही हमें रुलाता है । यही खुशियों के ढेर लगा देता है तो कभी यही दुखों की गहरी खाई में ढकेल देता है । मानव मन अग्नि के समान है जो मनुष्य को बुरे और नकारात्मक विचारों में फंसाकर जीवन में आग लगा सकता है या अच्छे और सकारात्मक विचारों की ज्योति से जीवन को प्रकाशित भी कर सकता है । मन की मजबूती के आगे निर्धनता, दुर्भाग्य, मुसीबतें या बाधाएं टिक ही नहीं सकतीं । मजबूत मन और दृढ़ आत्मविश्वास को कोई नहीं हरा सकता ।

इसीलिए मैथिलीशरण गुप्तजी ने कहा है—‘नर हो, न निराश करो मन को ।’ मन की शक्तियों को कभी कमजोर न पड़ने दें ।

गीता (६।३४) में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं—

चंचलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद् दृढ़म् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।।

अर्थात्—‘मन बहुत चंचल, उद्दण्ड, बली और हठी है । मन को वश में करना वायु को वश में करने के समान है ।’

इसी आधार पर शास्त्रों में मन की कुछ विशेषताएं बतायी गयीं हैं—

▪️ मन कभी स्थिर नहीं होता; एक सेकण्ड में ही हजारों मील दूर की उड़ान भर लेता है, इसलिए मन को चंचल कहा गया है ।

▪️ मनुष्य का मन सदैव अतृप्त, भूखा रहता है । इच्छित वस्तु की प्राप्ति होने पर कुछ ही देर में उससे मन भर जाता है और फिर मन में किसी नयी वस्तु की भूख पैदा हो जाती है ।

▪️ मन बड़ा मूर्ख है । बार-बार समझाने पर भी समझता नहीं है और राग-द्वेष, ईर्ष्या, अहंकार में डूबा रहता है ।

▪️ मानव मन की एक विशेषता यह है कि यह मैला और दूषित है क्योंकि इसमें बुरे और निम्न श्रेणी के विचार भी जन्म लेते हैं ।

▪️ मानव मन को पागल भी कहा गया है क्योंकि यह इन्द्रियों का दास बनकर विषयों के पीछे दौड़ता रहता है ।

मन के इन्हीं दुर्गणों के कारण इसे ‘मनुष्य का शत्रु’ कहा गया है । मन को मनमानी न करने की सीख देते हुए कहा गया है—‘मन के मते न चालिये, यह सतगुरु की सीख ।’

संसार के सभी प्राणी सुख की खोज में लगे रहते हैं किन्तु स्थायी सुख किसी को प्राप्त नहीं होता है । किसी विद्वान ने कहा है—‘मनुष्य का मन सदा दु:ख और बैचेनी की अवस्था में इधर-से-उधर झूलता रहता है ।’ (‘Human mind swings backward and forward between ennui (dissatisfaction) and pain.’)

मन को वश में करने की साधना

गीता (६।२६) में मन को साधने के लिए भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—

यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम् ।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।।

अर्थात्—‘साधक को चाहिए कि मन जहां-जहां जाए, जिस-जिस कारण से जाए, जैसे-जैसे जाए, जब-जब जाए, उसको वहां-वहां से, उस कारण से, वैसे-वैसे और तब-तब हटाकर परमात्मा में लगाना चाहिए।’

कितने ही साधु-संन्यासी अपने मन को वश में करने के लिए हठयोग को सहारा लेते हैं । इस प्रकार का अभ्यास प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है । जिस चीज पर मन जाए, उससे मन को रोकने के लिए यदि हठ करके अभ्यास किया जाए तो फिर मन उस वस्तु पर नहीं जाता है ।

▪️ स्वामी रामकृष्ण परमहंसजी ‘टाका माटी’ के खेल का अभ्यास किया करते थे । वे एक हाथ में ‘टाका’ यानी सिक्का और दूसरे में मिट्टी का ढेला लेते और ‘टाका माटी’, ‘टाका माटी’ कहते हुए उन्हें दूर फेंक देते थे । ऐसा अभ्यास वे पैसे के प्रलोभन से बचने के लिए अर्थात् पैसा और मिट्टी को एक बराबर समझने के लिए करते थे ।

▪️ स्वामी रामतीर्थ को सेव बहुत प्रिय थे । किसी भी महत्त्वपूर्ण काम को करते हुए भी उनका मन सेवों की ओर चला जाता था । एक दिन स्वामीजी ने कुछ सेव लाकर सामने बने आले में रख दिए, जिससे कि उनकी नजर सदैव उन सेवों पर पड़े । स्वामी रामतीर्थ का मन बार-बार सेवों की ओर जाता और वे बार-बार खींचकर उसे दूसरी ओर लगाते । इस तरफ उनका अपने मन से आठ दिन तक युद्ध चलता रहा, तब तक सेव सड़ गए और फिर उन्हें फेंक दिया गया । लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि सेवों के प्रति उनके मन में जो कमजोरी थी वह दूर हो गयी और फिर कभी किसी कार्य को करते हुए उनका मन सेवों पर नहीं गया ।

मन से लड़ना व्यर्थ है

मनोविज्ञान के अनुसार मन को गतिहीन करना संभव नहीं । जैसे साइकिल पर चढ़ा व्यक्ति साइकिल को रोककर एक जगह नहीं रह सकता, उसे चलाना ही पड़ता है । हां, यह संभव है कि साइकिल को एक ओर न ले जाकर दूसरी ओर ले जाया जाए । उसी तरह मन को भी वश में करने के लिए उसकी दिशा को मोड़ देना चाहिए । इसके लिए गीता में ‘कर्मयोग’ और ‘भक्तियोग’ का श्रेष्ठ उपाय बतलाया गया है—

▪️ हमें अपने-आपको ऐसा बनाना चाहिए कि जिससे हम अपने मन को संसार के हजारों काम में व्यस्त रख सकें अर्थात् कर्मयोग; और

▪️ जो भी करें वह यह जानकर करें कि यह परमात्मा की पूजा है—

जहँ जहँ जाऊँ सोइ परिक्रमा, जोइ जोइ करूँ सो पूजा ।
सहज समाधि सदा उर राखूँ, भाव मिटा दूँ दूजा ।।

इस तरह हम अपने मन को अपना शत्रु बनाने की बजाय मित्र बना सकते है ।

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पंचमुखी हनुमान में है भगवान शंकर के पांच अवतारों की शक्ति

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शंकरजी के पांचमुख—तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव, अघोर व ईशान हैं; उन्हीं शंकरजी के अंशावतार हनुमानजी भी पंचमुखी हैं । मार्गशीर्ष (अगहन) मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को, पुष्य नक्षत्र में, सिंहलग्न तथा मंगल के दिन पंचमुखी हनुमानजी ने अवतार धारण किया । हनुमानजी का यह स्वरूप सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है । हनुमानजी का एकमुखी, पंचमुखी और ग्यारहमुखी स्वरूप ही अधिक प्रचलित हैं ।

हनुमानजी के पांचों मुखों के बारे में श्रीविद्यार्णव-तन्त्र में इस प्रकार कहा गया है—

पंचवक्त्रं महाभीमं त्रिपंचनयनैर्युतम् ।
बाहुभिर्दशभिर्युक्तं सर्वकाम्यार्थ सिद्धिदम् ।।

विराट्स्वरूप वाले हनुमानजी के पांचमुख, पन्द्रह नेत्र हैं और दस भुजाएं हैं जिनमें दस आयुध हैं—‘खड्ग, त्रिशूल, खटवांग, पाश, अंकुश, पर्वत, स्तम्भ, मुष्टि, गदा और वृक्ष की डाली ।

▪️ पंचमुखी हनुमानजी का पूर्व की ओर का मुख वानर का है जिसकी प्रभा करोड़ों सूर्य के समान है । वह विकराल दाढ़ों वाला है और उसकी भृकुटियां (भौंहे) चढ़ी हुई हैं ।

▪️ दक्षिण की ओर वाला मुख नृसिंह भगवान का है । यह अत्यन्त उग्र तेज वाला भयानक है किन्तु शरण में आए हुए के भय को दूर करने वाला है ।

▪️ पश्चिम दिशा वाला मुख गरुड़ का है । इसकी चोंच टेढ़ी है । यह सभी नागों के विष और भूत-प्रेत को भगाने वाला है । इससे समस्त रोगों का नाश होता है ।

▪️ इनका उत्तर की ओर वाला मुख वाराह (सूकर) का है जिसका आकाश के समान कृष्णवर्ण है । इस मुख के दर्शन से पाताल में रहने वाले जीवों, सिंह व वेताल के भय का और ज्वर का नाश होता है ।

▪️ पंचमुखी हनुमानजी का ऊपर की ओर उठा हुआ मुख हयग्रीव (घोड़े) का है । यह बहुत भयानक है और असुरों का संहार करने वाला है । इसी मुख के द्वारा हनुमानजी ने तारक नामक महादैत्य का वध किया था ।

पंचमुखी हनुमानजी में है भगवान के पांच अवतारों की शक्ति

पंचमुखी हनुमानजी में भगवान के पांच अवतारों की शक्ति समायी हुयी है इसलिए वे किसी भी महान कार्य को करने में समर्थ हैं । पंचमुखी हनुमानजी की पूजा-अर्चना से वराह, नृसिंह, हयग्रीव, गरुड़ और शंकरजी की उपासना का फल प्राप्त हो जाता है । जैसे गरुड़जी वैकुण्ठ में भगवान विष्णु की सेवा में लगे रहते हैं वैसे ही हनुमानजी श्रीराम की सेवा में लगे रहते हैं । जैसे गरुड़ की पीठ पर भगवान विष्णु बैठते हैं वैसे ही हनुमानजी की पीठ पर श्रीराम-लक्ष्मण बैठते हैं । गरुड़जी अपनी मां के लिए स्वर्ग से अमृत लाये थे, वैसे ही हनुमानजी लक्ष्मणजी के लिए संजीवनी-बूटी लेकर आए ।

हनुमानजी के पंचमुख की आराधना से मिलते हैं पांच वरदान

हनुमानजी के पंचमुखी विग्रह की आराधना से पांच वरदान प्राप्त होते हैं । नरसिंहमुख की सहायता से शत्रु पर विजय, गरुड़मुख की आराधना से सभी दोषों पर विजय, वराहमुख की सहायता से समस्त प्रकार की समृद्धि तथा हयग्रीवमुख की सहायता से ज्ञान की प्राप्ति होती है। हनुमानमुख से साधक को साहस एवं आत्मविश्वास की प्राप्ति होती है ।

हनुमानजी के पांचों मुखों में तीन-तीन सुन्दर नेत्र आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक तापों (काम, क्रोध और लोभ) से छुड़ाने वाले हैं ।

पंचमुखी हनुमानजी सभी सिद्धियों को देने वाले, सभी अमंगलों को हरने वाले तथा सभी प्रकार का मंगल करने वाले—मंगल भवन अमंगलहारी हैं ।

हनुमानजी ने क्यों धारण किए पंचमुख ?

श्रीराम और रावण के युद्ध में जब मेघनाद की मृत्यु हो गयी तब रावण धैर्य न रख सका और अपनी विजय के उपाय सोचने लगा । तब उसे अपने सहयोगी और पाताल के राक्षसराज अहिरावण की याद आई जो मां भवानी का परम भक्त होने के साथ साथ तंत्र-मंत्र का ज्ञाता था । रावण सीधे देवी मन्दिर में जाकर पूजा में तल्लीन हो गया । उसकी आराधना से आकृष्ट होकर अहिरावण वहां पहुंचा तो रावण ने उससे कहा—‘तुम किसी तरह राम और लक्ष्मण को अपनी पुरी में ले आओ और वहां उनका वध कर डालो; फिर ये वानर-भालू तो अपने-आप ही भाग जाएंगे ।’

रात्रि के समय जब श्रीराम की सेना शयन कर रही थी तब हनुमानजी ने अपनी पूंछ बढ़ाकर चारों ओर से सबको घेरे में ले लिया । अहिरावण विभीषण का वेष बनाकर अंदर प्रवेश कर गए । अहिरावण ने सोते हुए अनन्त सौन्दर्य के सागर श्रीराम-लक्ष्मण को देखा तो देखता ही रह गया । उसने अपने माया के दम पर भगवान राम की सारी सेना को निद्रा में डाल दिया तथा राम एव लक्ष्मण का अपहरण कर उन्हें पाताललोक ले गया।  
आकाश में तीव्र प्रकाश से सारी वानर सेना जाग गयी । विभीषण ने यह पहचान लिया कि यह कार्य अहिरावण का है और उसने हनुमानजी को श्रीराम और लक्ष्मण की सहायता करने के लिए पाताललोक जाने को कहा ।

हनुमानजी पाताललोक की पूरी जानकारी प्राप्त कर पाताललोक पहुंचे । पाताललोक के द्वार पर उन्हें उनका पुत्र मकरध्वज मिला । हनुमानजी ने आश्चर्यचकित होकर कहा—‘हनुमान तो बाल ब्रह्मचारी हैं । तुम उनके पुत्र कैसे ?’

मकरध्वज ने कहा कि जब लंकादहन के बाद आप समुद्र में पूंछ बुझाकर स्नान कर रहे थे तब श्रम के कारण आपके शरीर से स्वेद (पसीना) झर रहा था जिसे एक मछली ने पी लिया । वह मछली पकड़कर जब अहिरावण की रसोई में लाई गयी और उसे काटा गया तो मेरा जन्म हुआ । अहिरावण ने ही मेरा पालन-पोषण किया इसलिए मैं उसके नगर की रक्षा करता हूँ । हनुमानजी का मकरध्वज से बाहुयुद्ध हुआ और वे उसे बांधकर देवी मन्दिर पहुंचे जहां श्रीराम और लक्ष्मण की बलि दी जानी थी । हनुमानजी को देखते ही देवी अदृश्य हो गयीं और उनकी जगह स्वयं रामदूत देवी के रूप में खड़े हो गए ।

उसी समय श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा—‘आपत्ति के समय सभी प्राणी मेरा स्मरण करते हैं, किन्तु मेरी आपदाओं को दूर करने वाले तो केवल पवनकुमार ही हैं । अत: हम उन्हीं का स्मरण करें ।’

लक्ष्मणजी ने कहा—‘यहां हनुमान कहां ?’ श्रीराम ने कहा—‘पवनपुत्र कहां नहीं हैं ? वे तो पृथ्वी के कण-कण में विद्यमान है । मुझे तो देवी के रूप में भी उन्हीं के दर्शन हो रहे हैं ।’

श्रीराम के प्राणों की रक्षा के लिए हनुमानजी ने धारण किए पंचमुख

हनुमानजी ने वहां पांच दीपक पांच जगह पर पांच दिशाओं में रखे देखे जिसे अहिरावण ने मां भवानी की पूजा के लिए जलाया था । ऐसी मान्यता थी कि इन पांचों दीपकों को एक साथ बुझाने पर अहिरावण का वध हो जाएगा । हनुमानजी ने इसी कारण पंचमुखी रूप धरकर वे पांचों दीप बुझा दिए  और अहिरावण का वध कर श्रीराम और लक्ष्मण को कंधों पर बैठाकर लंका की ओर उड़ चले ।

‘श्रीहनुमत्-महाकाव्य’ के अनुसार एक बार पांच मुख वाला राक्षस भयंकर उत्पात करने लगा । उसे ब्रह्माजी से वरदान मिला था कि उसके जैसे रूप वाला व्यक्ति ही उसे मार सकता है । देवताओं की प्रार्थना पर भगवान ने हनुमानजी को उस राक्षस को मारने की आज्ञा दी । तब हनुमानजी ने वानर, नरसिंह, वाराह, हयग्रीव और गरुड़—इन पंचमुख को धारण कर राक्षस का अंत कर दिया ।

पंचमुखी हनुमानजी का ध्यान

पंचास्यमच्युतमनेक विचित्रवीर्यं
वक्त्रं सुशंखविधृतं कपिराज वर्यम् ।
पीताम्बरादि मुकुटैरभि शोभितांगं
पिंगाक्षमाद्यमनिशंमनसा स्मरामि ।। (श्रीविद्यार्णव-तन्त्र)

पंचमुखी हनुमान पीताम्बर और मुकुट से अलंकृत हैं । इनके नेत्र पीले रंग के हैं । इसलिए इन्हें ‘पिंगाक्ष’ कहा जाता है । हनुमानजी के नेत्र अत्यन्त करुणापूर्ण और संकट और चिन्ताओं को दूर कर भक्तों को सुख देने वाले हैं । हनुमानजी के नेत्रों की यही विशेषता है कि वे अपने स्वामी श्रीराम के चरणों के दर्शन के लिए सदैव लालायित रहते हैं ।

मन्त्र

उनका द्वादशाक्षर मन्त्र है—

‘ॐ हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुं फट् ।’

किसी भी पवित्र स्थान पर हनुमानजी के द्वादशाक्षर मन्त्र का एक लाख जप एवं आराधना करने से साधक को सफलता अवश्य मिलती है । ऐसा माना जाता है कि पुरश्चरण पूरा होने पर हनुमानजी अनुष्ठान करने वाले के सामने आधी रात को स्वयं दर्शन देते हैं ।

महाकाय महाबल महाबाहु महानख,
महानद महामुख महा मजबूत है ।
भनै कवि ‘मान’ महाबीर हनुमान महा-
देवन को देव महाराज रामदूत है।।

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अपने इष्टदेव का निर्णय कैसे करें?

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तुम्हें कहां पाऊँ भगवान  !
भूल-भुलैया की जगती में ढूंढू कैसे मैं नादान ?
मंदिर में बसते हो तुम यों कहते हैं कोई मतिमान,
कोई मस्जिद, कोई गिरजा बतलाते हैं वासस्थान ।
ऋषि-मुनियों की ओर खींचकर संतत मेरा अस्थिर ध्यान,
कोई कहते ईश-प्राप्ति का साधन है केवल तप-ज्ञान ।
भला मूढ़ मैं समझ सकूं क्यों इन उलझी बातों का सार ?
मुझे बता दो कहां छिपे हो किस आकृति में जगदाधार ! (गौरीशंकर मिश्र ‘द्विजेन्द्र)

भगवान ने क्यों धारण किए हैं विभिन्न रूप ?

परब्रह्म परमात्मा की इस सृष्टि प्रपंच में विभिन्न स्वभाव के प्राणियों का निवास है । इसलिए विभिन्न स्वभाव वाले प्राणियों की विभिन्न रुचियों के अनुसार भगवान भी विभिन्न रूप में प्रकट होते हैं । किसी का चित्त भगवान के भोलेशंकर रूप में रमता है, तो किसी का शेषशायी विष्णु रूप पर मुग्ध होता है; किसी का मन श्रीकृष्ण के नटवर वेष में फंसता है, तो किसी को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम आकर्षित करते हैं । किसी को श्रीकृष्ण की आराधिका श्रीराधा की करुणामयी रसिकता अपनी ओर खींचती है तो किसी को जगदम्बा का दुर्गारूप सुहाता है । अत: भगवान के जिस रूप में प्रीति हो उसी रूप की आराधना करनी चाहिए ।

कैसे जाने परमात्मा का कौन-सा रूप है अपना इष्ट

सनातन हिन्दू धर्म में तैंतीस कोटि देवता माने गए हैं जिनमें पांच प्रमुख देवता—सूर्य, गणेश, गौरी, शिव और श्रीविष्णु (श्रीकृष्ण, श्रीराम) की उपासना प्रमुख रूप से बतायी गयी है । कोई किसी देवता को तो कोई किसी और देवता को बड़ा बतलाता है, ऐसी स्थिति में मन में यह व्याकुलता बनी रहती है कि किसको इष्ट माना जाए ?

हृदय में जब परमात्मा के किसी रूप की लगन लग जाए, दिल में वह छवि धंस जाए, किसी की रूप माधुरी आंखों में समा जाए, किसी के लिए अत्यन्त अनुराग हो जाए, मन में उन्हें पाने की तड़फड़ाहट हो जाए तो वही हमारे आराध्य हैं—ऐसा जानना चाहिए ।

श्रीकृष्ण के मथुरा जाने के बाद जब उद्धवजी गोपियों को समझाने व्रज में आते हैं तब गोपियाँ उद्धवजी से कहती हैं–’यहां तो श्याम के सिवा और कुछ है ही नहीं; सारा हृदय तो उससे भरा है, रोम-रोम में तो वह छाया है । तुम्हीं बताओ, क्या किया जाय ! वह तो हृदय में गड़ गया है और रोम-रोम में ऐसा अड़ गया है कि किसी भी तरह निकल ही नहीं पाता; भीतर भी वही और बाहर भी सर्वत्र वही है।’

उर में माखनचोर गड़े।
अब कैसे निकसैं वे ऊधौ, तिरछे आनि अड़े।।

आराध्य के प्रति कैसी निष्ठा होनी चाहिए

मनुष्य अनेक जन्म लेता है अत: जन्म-जन्मान्तर में जो उसके इष्ट रह चुके हैं, उनके प्रति उसके मन में विशेष प्रेम रहता है । पूर्व जन्मों की उपासना का ज्ञान स्वप्न में भगवान के दर्शन से या बार-बार चित्त के एक देव विशेष की ओर आकर्षित होने से प्राप्त हो जाता है । साधक के मन और प्राण जब परमात्मा के जिस रूप में मिल जाएं जैसे गोपियों के श्रीकृष्ण में मिल गए थे, तब उन्हें ही अपना इष्ट जानना चाहिए—

कान्ह भए प्रानमय प्रान भए कान्हमय ।
हिय मैं न जानि परै कान्ह है कि प्रान है ।।

पूर्वजन्मों की साधना के अनुकूल ही हमें परिवार या कुल प्राप्त होता है । परिवार में माता-पिता या दादी-बाबा के द्वारा जिस देवता की उपासना की जाती रही है, उनके प्रति ही हम विशेष श्रद्धावान होते हैं । अत: माता-पिता, दादा-परदादा ने जिस व्रत का पालन किया हो या जिस देव की उपासना की हो, मनुष्य को उसी देवता और व्रत का अवलम्बन लेना चाहिए । साघक को अपने इष्ट को कभी कम या अपूर्ण नहीं समझना चाहिए, उसे सदैव उन्हें सर्वेश्वर समझ कर उनकी उपासना करनी चाहिए ।

जब तुलसीदासजी की प्रार्थना पर श्रीकृष्ण बने रघुनाथ

अपने आराध्य को श्रेष्ठ मानना और ईश्वर के अन्य रूपों को छोटा समझना, उनकी निन्दा करना सही नही है । क्योंकि सभी रूप उस एक परब्रह्म परमात्मा के ही हैं । जब मन में अपने आराध्य के प्रति सच्चा प्रेम और पूर्ण समर्पण होता है तो परमात्मा के हर रूप में अपने इष्ट के ही दर्शन होते हैं ।

एक बार तुलसीदासजी श्रीधाम वृन्दावन में संध्या के समय भक्तमाल के रचियता श्रीनाभाजी आदि वैष्णवों के साथ ‘ज्ञानगुदड़ी’ नामक स्थान पर मदनमोहनजी के दर्शन कर रहे थे । तब परशुराम नाम के पुजारी ने तुलसीदासजी पर कटाक्ष करते हुए कहा—

अपने अपने इष्ट को नमन करे सब कोय ।
इष्टविहीने परशुराम नवै सो निगुरा होय ।।

अर्थात् सभी को अपने इष्ट को नमन करना चाहिए । दूसरों के इष्ट को नमन करना तो निगुरा यानी बिना गुरु के होने के समान है ।

गोस्वामीजी के मन में श्रीराम और श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं था, परन्तु पुजारी के कटाक्ष के कारण गोस्वामीजी ने हाथ जोड़कर श्रीठाकुरजी से प्रार्थना करते हुए कहा—‘हे प्रभु ! हे रामजी ! मैं जानता हूँ कि आप ही राम हो, आप ही कृष्ण हो । आज की आपकी मुरली लिए हुए छवि अत्यन्त मनमोहक है लेकिन आज आपके भक्त के मन में भेद आ गया है । आपको राम बनने में कितनी देर लगेगी, यह मस्तक आपके सामने तभी नवेगा जब आप हाथ में धनुष बाण ले लोगे ।’

कहा कहों छवि आज की, भले बने हो नाथ ।
तुलसी मस्तक नवत है, धनुष बाण लो हाथ ।।

भक्त के मन की बात मदनमोहनजी जान गए और फिर उनकी मुरली और लकुटी छिप गई और हाथ में धनुष और बाण आ गया । कहाँ तो श्रीकृष्ण गोपियों और श्रीराधा के साथ बांसुरी लेके खड़े होते हैं लेकिन आज भक्त की पुकार पर श्रीकृष्ण हाथ में धनुषबाण लिए साक्षात् रघुनाथ बन गए ।

मुरली लकुट दुराय के, धरयो धनुष सर हाथ ।
तुलसी रुचि लखि दास की, कृष्ण भये रघुनाथ ।।
कित मुरली कित चन्द्रिका, कित गोपिन के साथ ।
अपने जन के कारणे, कृष्ण भये रघुनाथ ।।

यह है भक्त और इष्ट का अलौकिक सम्बन्ध !

जो लोग अपने इष्ट की उपासना करते हैं तथा दूसरों के इष्ट को तुच्छ मानकर उसका तिरस्कार करते हैं, वास्तव में वह अपने ही इष्ट का तिरस्कार करते हैं क्योंकि किसी भी देवता की निन्दा करने का अधिकार किसी को नहीं है । जहां भावना छोटी और संकीर्ण होती है वहां फल भी छोटा होता है और जहां भावना महान होती है वहां फल भी महान होता है ।

एक पिता के दो पुत्र थे । उन्होंने अपने पिता के दोनों पैरों की सेवा बांट रखी थी । एक दिन जब वे दोनों अपने-अपने हिस्से के पैरों की सेवा कर रहे थे तब संयोग से एक पैर दूसरे पैर से जा लगा । उस पैर की सेवा करने वाले लड़के ने दूसरे के पैर पर घूंसा जमा दिया । दूसरे लड़के ने अपने पैर को मार खाते देखकर दूसरे के पैर पर घूंसा मार दिया । इस तरह वे दोनों क्रोध में पिता के पैरों को पीटने लगे । पैरों में चोट लगने पर पिता ने उनकी मूर्खता पर अफसोस करते हुए कहा—‘जिसे तुम दोनों सेवा समझते हो वह वास्तव में सेवा नहीं थी वह तो तुम दोनों ने द्वेषवश अपनी मूर्खता से पिता का अनिष्ट ही किया है ।’

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भगवान की सेवा करते समय रखें इन बातों का ध्यान

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भगवान की सेवा

सेवा शब्द अत्यन्त व्यापक है इसमें प्राणिमात्र की सेवा से लेकर परमात्मा की पूजा तक ‘सेवा’ कहलाती है । भगवान की सेवा का अत्यन्त गहन अर्थ है । भगवान की सेवा या भगवत्सेवा शब्द मिठास और रस से पूर्ण है । इसका अर्थ सेव्य (आराध्य) में लीन या एकरस हो जाना है ।

भगवान की सेवा में जिह्वा द्वारा भगवान के नाम का जप-कीर्तन करना, कानों से कथा सुनना, नेत्रों से भगवान की छवि का दर्शन कर हृदय में उसे स्थापित करना, हाथों से भगवान के विग्रह की चरणसेवा करना, अंगों में गंध आदि लगाना, माला बनाना, धारण कराना, नैवेद्य अर्पित करना तथा चरणों से उनके तीर्थो की यात्रा करना व शरीर से उन्हें नाचकर रिझाना आदि कार्य आते हैं ।

भगवत्सेवा से मनुष्य का कल्याण होता है । सुख, शान्ति और संतोष मिलता है, मन में अच्छे विचारों का उदय होता है, मन में स्वाधीनता आती है और मनुष्य भगवत्प्राप्ति की ओर बढ़ने लगता है ।

भगवान के सेवक को कैसा होना चाहिए ?

जिसके हृदय में सदा शान्ति, मुख पर प्रसन्नता व चरित्र शीशे के समान निर्मल हो, जिसके एकमात्र आधार भगवान हों और जिसके जीवन का लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति हो; वही सच्चा सेवक है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘अर्जुन ! योग (साधन) न तो बहुत भोजन करने वाले कर सकते हैं और न सदा उपवास करके रहने वाले । यह बहुत सोने वालों के बस का नहीं और सदा जागते रहने वाले भी उसे अपनाने में असमर्थ हैं ।’

भगवान की सेवा करने वाले के लिए संतों ने आदेश किया है—‘नीचे बनो’ अर्थात् अपने को सबसे दीन-हीन मानकर सबको आदर-सम्मान देने वाला भगवान को बहुत प्रिय होता है । सेवा में अभिमान और स्वार्थ साधक के सारे पुरुषार्थ को मिट्टी में मिला देता है ।

ऊंचे पानी ना टिकै नीचे ही ठहराय ।
नीचा होय सो भरि पिबै ऊंचा प्यासा जाय ।।
सब तें लघुताई भली लघुता तें सब होय ।
जस दुतिया को चंद्रमा सीस नवै सब कोय ।।

अर्थात्—जैसे पानी नीचे ही ठहरता है, ऊंचे स्थान पर नहीं और पानी नीचे झुककर ही पीना पड़ता है; उसी तरह लघुता (अपने को सबसे दीन-हीन मानना) ही सर्वश्रेष्ठ है । सभी लोग दूज के चन्द्रमा को (जोकि सबसे छोटा होता है) ही नमन करते हैं ।

भगवत्सेवा हृदय का भाव है क्रिया नहीं

भगवान की सेवा में भाव मधुर रहने पर ही सेवा मधुर होती है । किसी के प्रति भी मन में कटुता का भाव रहने पर सेवा भी कटु हो जाती है क्योंकि भगवान की सेवा भाव है क्रिया नहीं । मन की कटुता शरीर के रोम-रोम को अपने रंग में रंग देती है जिससे भगवान की सेवा भी कटु हो जाती है ।

साधक को अपनी सेवा-पूजा की किसी दूसरे की सेवा से कभी तुलना नहीं करनी चाहिए । जो सेवा में दूसरों को पीछे करके स्वयं आगे बढ़ना चाहते हैं या किसी दूसरे की सेवा देखकर मन में जलन करते हैं, या सेवा के द्वारा किसी को वश में करना चाहते हैं या किसी मनोरथ की पूर्ति के लिए भगवान की सेवा करते हैं; वह सेवा नहीं बल्कि सेवा में स्वार्थ व अहंकार का ताण्डव नृत्य करते हैं ।

गीता (१२।४) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘समस्त प्राणियों की मनसा-वाचा-कर्मणा सेवा तथा हित करने वाले मुझको प्राप्त होते हैं—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:।’

भगवत्सेवा करते समय रखें इन बातों का ध्यान

श्रीरामचरितमानस (७।४३।५) में भगवान ने स्वयं कहा है—

सोइ सेवक प्रियतम मम सोई ।
मम अनुशासन मानै जोई ।।

अर्थात्—भगवान का सच्चा सेवक वही है जो उनकी आज्ञा मानता है वही उन्हें परमप्रिय है । इसलिए भगवत्सेवा के कुछ नियम हैं जिन्हें प्रत्येक साधक को मानना चाहिए । जो इन बातों को नहीं मानता वह न भक्त है और न वैष्णव । भगवान की सेवा करते समय साधक को इन गलतियों से बचना चाहिए, इन्हें सेवापराध कहा जाता है—

  • भगवान की मूर्ति के सामने अशौच अवस्था (जन्म और मरण के सूतक में) नहीं जाना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने बिना नहाये और दांत साफ किए बिना नहीं जाना चाहिए ।
  • मैले और बिना धुले वस्त्र और दूसरे के वस्त्र पहनकर भगवान की मूर्ति या चित्र को छूना नहीं चाहिए ।
  • रजस्वला स्त्री को छूकर भगवान की मूर्ति को छूना भी अपराध माना गया है ।
  • तेलमालिश करके बिना नहाये भगवान की मूर्ति को स्पर्श नहीं करना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने पैर पसार कर नहीं बैठना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने पीठ करके नहीं बैठना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने घुटनों को ऊंचा करके हाथ से लपेटकर नहीं बैठना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति को एक हाथ से प्रणाम नहीं करना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने झूठ नहीं बोलना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने किसी अन्य देवता की निन्दा नहीं करनी चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने कम्बल से सारा शरीर ढक कर नहीं जाना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने खाना नहीं खाना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने जोर से बोलना नहीं चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने सोना नहीं चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने आपस में बात करना, चिल्लाना और दूसरों को कठोर वचन नहीं बोलने चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने दूसरों की निन्दा नहीं करनी चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने अधोवायु (गैस) का त्याग नहीं करना चाहिए ।
  • छींक या खांसी आने पर हाथ धोकर ही भगवान की मूर्ति को स्पर्श करना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने अश्लील या गाली वाले शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
  • गुटका, पान या पानमसाला खाते हुए भगवान की पूजा-सेवा नहीं करनी चाहिए ।
  • मांसाहार करने के बाद भगवान की सेवा नहीं करनी चाहिए ।
  • पूजा करते समय यदि लघुशंका के लिए जाना पड़ जाए तो हाथ-पैर अच्छे से धोकर कुल्ला करके ही पूजा करनी चाहिए ।
  • पूजा के समय यदि मलत्याग के लिए जाना पड़े तो पुन: स्नान करके ही पूजा करनी चाहिए ।
  • दीपक जलाने के बाद हाथ धोकर ही भगवान को स्पर्श करें ।
  • भगवान को चन्दन, रोली, पुष्प चढ़ाने से पहले धूप-अगरबत्ती नहीं दिखानी चाहिए ।
  • जो पत्र-पुष्प जिस देव के लिए निषिद्ध हैं उन्हें वे अर्पित नहीं करने चाहिए । जैसे गणेशजी को तुलसी, दुर्गा को दूर्वा आदि ।
  • पुष्पों को धोकर भगवान के विग्रह पर न चढ़ाएं । केवल जल का छींटा देकर ही उन्हें शुद्ध कर लेना चाहिए ।

सेवापराध से कैसे बचें?

यदि कभी भूल से पूजा-सेवा में कोई अपराध हो जाए तो इन कार्यों के करने से सारे अपराध क्षमा हो जाते हैं—

  • गंगास्नान करने से,
  • यमुनास्नान करने से,
  • भगवान की नित्य सेवा करने से,
  • प्रतिदिन गीता का पाठ करने से,
  • तुलसीपत्र से शालग्रामजी की सेवा करने से,
  • तुलसीसेवा करने से,
  • द्वादशी के दिन जागरण कर भगवान का कीर्तन करने से, व
  • सदैव भगवान के नाम का जप करते रहने से

जिस सेवाकार्य में आसक्ति नहीं, अभिमान नहीं, कोई अपना स्वार्थ नहीं वह छोटी सेवा भी महान सेवा बन जाती है ।

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सुख-समृद्धि देने वाले पांच देवता

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एक ही परमात्मा पांच इष्ट रूपों में

एक परम प्रभु चिदानन्दघन परम तत्त्व हैं सर्वाधार ।
सर्वातीत, सर्वगत वे ही अखिल विश्वमय रुप अपार ।।
हरि, हर, भानु, शक्ति, गणपति हैं इनके पांच स्वरूप उदार ।
मान उपास्य उन्हें भजते जन भक्त स्वरुचि श्रद्धा अनुसार ।। (पद-रत्नाकर)

निराकार ब्रह्म के साकार रूप हैं पंचदेव

परब्रह्म परमात्मा निराकार व अशरीरी है, अत: साधारण मनुष्यों के लिए उसके स्वरूप का ज्ञान असंभव है । इसलिए निराकार ब्रह्म ने अपने साकार रूप में पांच देवों को उपासना के लिए निश्चित किया जिन्हें पंचदेव कहते हैं । ये पंचदेव हैं—विष्णु, शिव, गणेश, सूर्य और शक्ति

आदित्यं गणनाथं च देवीं रुद्रं च केशवम् ।
पंचदैवतभित्युक्तं सर्वकर्मसु पूजयेत् ।।
एवं यो भजते विष्णुं रुद्रं दुर्गां गणाधिपम् ।
भास्करं च धिया नित्यं स कदाचिन्न सीदति ।। (उपासनातत्त्व)

अर्थात्—सूर्य, गणेश, देवी, रुद्र और विष्णु—ये पांच देव सब कामों में पूजने योग्य हैं, जो आदर के साथ इनकी आराधना करते हैं वे कभी हीन नहीं होते, उनके यश-पुण्य और नाम सदैव रहते हैं ।

वेद-पुराणों में पंचदेवों की उपासना को महाफलदायी और उसी तरह आवश्यक बतलाया गया है जैसे नित्य स्नान को । इनकी सेवा से ‘परब्रह्म परमात्मा’ की उपासना हो जाती है ।

अन्य देवताओं की अपेक्षा इन पांच देवों की प्रधानता ही क्यों?

अन्य देवों की अपेक्षा पंचदेवों की प्रधानता के दो कारण हैं—

१. पंचदेव पंचभूतों के अधिष्ठाता (स्वामी) हैं

पंचदेव आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी—इन पंचभूतों के अधिपति हैं ।

सूर्य वायु तत्त्व के अधिपति हैं इसलिए उनकी अर्घ्य और नमस्कार द्वारा आराधना की जाती है ।

गणेश के जल तत्त्व के अधिपति होने के कारण उनकी सर्वप्रथम पूजा करने का विधान हैं, क्योंकि सृष्टि के आदि में सर्वत्र ‘जल’ तत्त्व ही था ।

शक्ति (देवी, जगदम्बा) अग्नि तत्त्व की अधिपति हैं  इसलिए भगवती देवी की अग्निकुण्ड में हवन के द्वारा पूजा करने का विधान हैं ।

शिव पृथ्वी तत्त्व के अधिपति हैं इसलिए उनकी शिवलिंग के रुप में पार्थिव-पूजा करने का विधान हैं ।
विष्णु आकाश तत्त्व के अधिपति हैं इसलिए उनकी शब्दों द्वारा स्तुति करने का विधान हैं ।

. अन्य देवों की अपेक्षा इन पंचदेवों के नाम के अर्थ ही ऐसे हैं कि जो इनके ब्रह्म होने के सूचक हैं

  • विष्णु अर्थात् सबमें व्याप्त,
  • शिव यानी कल्याणकारी,
  • गणेश अर्थात् विश्व के सभी गणों के स्वामी,
  • सूर्य अर्थात् सर्वगत (सभी जगह जाने वाले),
  • शक्ति अर्थात् सामर्थ्य

संसार में देवपूजा को स्थायी रखने के उद्देश्य से वेदव्यासजी ने विभिन्न देवताओं के लिए अलग-अलग पुराणों की रचना की । अपने-अपने  पुराणों में इन देवताओं को सृष्टि को पैदा करने वाला, पालन करने वाला और संहार करने वाला अर्थात् ब्रह्म माना गया है । जैसे विष्णुपुराण में विष्णु को, शिवपुराण में शिव को, गणेशपुराण में गणेश को, सूर्यपुराण में सूर्य को और शक्तिपुराण में शक्ति को ब्रह्म माना गया है । अत: मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार किसी भी देव को पूजे, उपासना एक ब्रह्म की ही होती है क्योंकि पंचदेव ब्रह्म के ही प्रतिरुप (साकार रूप) हैं । उनकी उपासना या आराधना में ब्रह्म का ही ध्यान होता है और वही इष्टदेव में प्रविष्ट रहकर मनवांछित फल देते हैं । वही एक परमात्मा अपनी विभूतियों में आप ही बैठा हुआ अपने को सबसे बड़ा कह रहा है वास्तव में न तो कोई देव बड़ा है और न कोई छोटा ।

एक उपास्य देव ही करते लीला विविध अनन्त प्रकार ।
पूजे जाते वे विभिन्न रूपों में निज-निज रुचि अनुसार ।। (पद रत्नाकर)

पंचदेव और उनके उपासक

विष्णु के उपासक ‘वैष्णव’ कहलाते हैं,
शिव के उपासक ‘शैव’ के नाम से जाने जाते हैं,
गणपति के उपासक ‘गाणपत्य’ कहलाते हैं,
सूर्य के उपासक ‘सौर’ होते हैं, और
शक्ति के उपासक ‘शाक्त’ कहलाते हैं ।
इनमें शैव, वैष्णव और शाक्त विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं ।

पंचदेवों के ही विभिन्न नाम और रूप हैं अन्य देवता

शालग्राम, लक्ष्मीनारायण, सत्यनारायण, गोविन्ददेव,  सिद्धिविनायक, हनुमान, भवानी, भैरव, शीतला, संतोषीमाता, वैष्णोदेवी, कामाख्या, अन्नपूर्णा आदि अन्य देवता इन्हीं पंचदेवों के रूपान्तर (विभिन्न रूप) और नामान्तर हैं ।

पंचायतन में किस देवता को किस कोण (दिशा) में स्थापित करें

पंचायतन विधि—पंचदेवोपासना में पांच देव पूज्य हैं । पूजा की चौकी या सिंहासन पर अपने इष्टदेव को मध्य में स्थापित करके अन्य चार देव चार दिशाओं में स्थापित किए जाते हैं । इसे ‘पंचायतन’ कहते हैं । शास्त्रों के अनुसार इन पाँच देवों की मूर्तियों को अपने इष्टदेव के अनुसार सिंहासन में स्थापित करने का भी एक निश्चित क्रम है । इसे ‘पंचायतन विधि’ कहते हैं । जैसे—

विष्णु पंचायतन—जब विष्णु इष्ट हों तो मध्य में विष्णु, ईशान कोण में शिव, आग्नेय कोण में गणेश, नैऋत्य कोण में सूर्य और वायव्य कोण में शक्ति की स्थापना होगी ।

सूर्य पंचायतन—यदि सूर्य को इष्ट के रूप में मध्य में स्थापित किया जाए तो ईशान कोण में शिव, अग्नि कोण में गणेश, नैऋत्य कोण में विष्णु और वायव्य कोण में शक्ति की स्थापना होगी ।

देवी पंचायतन—जब देवी भवानी इष्ट रूप में मध्य में हों तो ईशान कोण में विष्णु, आग्नेय कोण में शिव, नैऋत्य कोण में गणेश और वायव्य कोण में सूर्य रहेंगे ।

शिव पंचायतन—जब शंकर इष्ट रूप में मध्य में हों तो ईशान कोण में विष्णु, आग्नेय कोण में सूर्य, नैऋत्य कोण में गणेश और वायव्य कोण में शक्ति का स्थान होगा ।

गणेश पंचायतन—जब इष्ट रूप में मध्य में गणेश की स्थापना है तो ईशान कोण में विष्णु, आग्नेय कोण में शिव, नैऋत्य कोण में सूर्य तथा वायव्य कोण में शक्ति की पूजा होगी ।

शास्त्रों के अनुसार यदि पंचायतन में देवों को अपने स्थान पर न रखकर अन्यत्र स्थापित कर दिया जाता है तो वह साधक के दु:ख, शोक और भय का कारण बन जाता है ।

देवता चाहे एक हो, अनेक हों, तीन हों या तैंतीस करोड़ हो, उपासना ‘पंचदेवों’ की ही प्रसिद्ध है । इन सबमें गणेश का पूजन अनिवार्य है । यदि अज्ञानवश गणेश का पूजन न किया जाए तो विघ्नराज गणेशजी उसकी पूजा का पूरा फल हर लेते हैं ।

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गीता के अनुसार कौन है सर्वश्रेष्ठ भक्त

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चार प्रकार के भक्त

गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ।। (७।१६)

‘हे अर्जुन ! आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी—ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं । इनमें से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है । उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, और जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज्ञानी है ।

अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करता है । उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है और भगवान का भजन गौण । ध्रुव को अर्थार्थी भक्त माना जाता है ।

आर्त भक्त वह है जो शारीरिक कष्ट आ जाने पर या धन-वैभव नष्ट होने पर, अपना दु:ख दूर करने के लिए भगवान को पुकारता है । जैसे द्रौपदी ने सदैव संकट में भगवान को याद किया ।

जिज्ञासु भक्त अपने शरीर के पोषण के लिए नहीं वरन् संसार को अनित्य जानकर भगवान का तत्त्व जानने और उन्हें पाने के लिए भजन करता है । उद्धवजी जिज्ञासु भक्त की श्रेणी में आते हैं ।

परन्तु ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है इसलिए भगवान ने ज्ञानी को अपनी आत्मा कहा है ।  ज्ञानी भक्त के योगक्षेम का वहन भगवान स्वयं करते हैं क्योंकि आर्त, अर्थार्थी और जिज्ञासु तो सकाम भक्त हैं, उनमें अन्य वस्तुओं को प्राप्त करने की कामना रहती है किन्तु ज्ञानी भक्त भगवान को छोड़कर और कुछ नहीं चाहता है ।

इनमें से कौन-सा भक्त है संसार में सर्वश्रेष्ठ ?

एक बार ऋषियों ने विचार किया कि संसार में सबसे बड़ा कौन है, जिसका भजन किया जाए ? किसी ने कहा कि पृथ्वी सबसे बड़ी है, क्योंकि यह सारे संसार को धारण किए हुए है । दूसरे ने कहा कि उस पृथ्वी को शेष भगवान ने अपने फणों पर धूल के कण के समान धारण कर रक्खा है, अत: शेष भगवान सबसे बड़े हैं । तीसरे ने कहा कि शेषनाग को भगवान शंकर ने अपने हृदय पर आभूषण की तरह धारण कर रक्खा है, अत: शंकरजी सबसे बड़े हैं । चौथे ने कहा कि शिव के निवासस्थान कैलास को उनके सहित रावण ने अपनी भुजाओं पर उठा लिया । उस रावण को बालि ने जीत लिया और बालि का वध श्रीरामचन्द्रजी ने किया । अत: भगवान श्रीराम सबसे बड़े हैं । यह सुनकर पांचवे ऋषि ने कहा—ऐसे परमात्मा को भक्त अपने हृदय में धारण करते हैं, इसलिए भक्त ही त्रिलोकी में सर्वश्रेष्ठ हैं ।

श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है—‘मैं सदैव भक्त के अधीन हूँ, मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है । मेरे सीधे-साधे सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रक्खा है । भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे । अपने भक्त को छोड़कर मैं न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्धांगिनी लक्ष्मी को । मेरे प्रेमी भक्त तो मेरे हृदय हैं और उन भक्तों का हृदय स्वयं मैं हूँ । मैं भक्त की पदरज की इच्छा से सदा उसके पीछे-पाछे घूमा करता हूँ जिससे उसकी चरणधूलि उड़कर मेरे शरीर पर पड़े और मैं उसके द्वारा पवित्र हो जाऊँ ।’

भगवान जिसके पीछे-पीछे घूमते हों, भला उसको किस बात की चिन्ता !

भगवान से निष्काम प्रेम ही है सच्ची भक्ति

माधवदास नाम के एक ब्राह्मण घर-संसार त्यागकर जगन्नाथपुरी के पास एकान्त स्थान पर भगवान के ध्यान में मग्न हो गए । वे ध्यान में ऐसे मग्न हुए कि बिना अन्न-जल के उन्हें कई दिन बीत गए । भगवत्प्रेम की यही दशा है । भक्त के कष्ट को जब भगवान स्वयं सहन करने में असमर्थ हो गए तब उन्होंने सुभद्राजी को आदेश किया कि उत्तम-से-उत्तम भोजन सोने की थाली में परोसकर तुम मेरे भक्त के पास पहुंचा आओ ।  सुभद्राजी भोजन लेकर जब माधवदास के पास पहुंचीं तो उन्हें ध्यानमग्न देखकर थाली रखकर लौट आईं । ध्यान टूटने पर माधवदास ने सोने की थाली में भोजन देखा तो भगवान की कृपा देखकर आनन्द से आंसु बहाने लगे । फिर प्रसाद पाया और थाली एक ओर रखकर पुन: ध्यानमग्न हो गये ।

प्रात:काल पुजारी ने मन्दिर के द्वार खोलने पर देखा कि एक सोने की थाली ग़ायब है । चोर का पता लगाते-लगाते वह भक्त माधवदास के पास पहुँचा । वहाँ सोने की थाली रखी देखकर माधवदास को चोर समझकर वह बेंतों से उसकी पिटाई करने लगा । माधवदास ने हँसते-हँसते बेतों की चोट सह ली परन्तु भगवान जगन्नाथजी से यह सहन न हुआ । उन्होंने पुजारी को स्वप्न में दर्शन देकर कहा—‘मेरे भक्त माधवदास के ऊपर जो बेंत की मार पड़ी है, उसे मैंने अपने ऊपर ले लिया है । अब मैं तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा । यदि तुम इससे बचना चाहते हो तो मेरे भक्त के चरणों में गिरकर क्षमा मांगो ।’

सर्वनाश के भय से कांपते हुए पुजारी ने माधवदास से क्षमा मांगी और माधवदास ने उसे गले लगाकर क्षमा कर दिया; क्योंकि सच्चे भक्त का हृदय पृथ्वी की तरह क्षमाशील होता है ।

क्यों करते हैं भगवान भक्त की सेवा ?

एक बार माधवदास को अतिसार (दस्त) हो गए और वे इतने दुर्बल हो गए कि समुद्र के किनारे जाकर पड़ गए । माधवदास की ऐसी दशा देखकर भगवान जगन्नाथजी स्वयं सेवक बनकर उनकी सेवा करने लगे । माधवदास को जब होश आया तो वे पहचान गए कि ये मेरे ठाकुर ही हैं । ऐसा सोचकर उन्होंने सेवक के चरण पकड़ लिए और बोले—‘मुझ जैसे अधम के लिए आपने इतना कष्ट क्यों उठाया ? आप तो सर्वशक्तिमान हैं । आप तो चाहने पर ही मेरे सारे दु:खों को दूर कर सकते थे ।’

भगवान ने कहा—‘मैं अपने भक्तों के कष्ट को सहन नहीं कर सकता । अपने सिवा मैं और किसी को भक्त की सेवा के योग्य नहीं समझता । इसलिए मैंने तुम्हारी सेवा की है । तुम जानते हो कि प्रारब्धकर्म भोगे बिना नष्ट नहीं होते हैं— यह मेरा नियम है और मैं यह क्यों तोडूं  । इसी कारण मैं केवल सेवा करके भक्त को प्रारब्ध भोग कराता हूं और संसार को यह शिक्षा देता हूँ कि भगवान भक्त के अधीन हैं ।’ ऐसा कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए ।

भक्त भक्ति भगवंत गुरु चतुर नाम वपु एक ।
इनके पद वंदन किएं नासत बिघ्न अनेक ।। (श्रीनाभादासजी)

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दु:खनाश के लिए भगवान शिव के ग्यारह रुद्ररूप

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‘रुद्र’ का अर्थ

भगवान शिव का एक नाम ‘रुद्र’ है । दु:ख का नाश करने तथा संहार के समय क्रूर रूप धारण करके शत्रु को रुलाने से शिव को ‘रुद्र’ कहते हैं ।

भगवान रुद्र

वेदों में शिव के अनेक नामों में रुद्र नाम ही विशेष है । उन्हें ‘रुद्र: परमेश्वर:, जगत्स्रष्टा रुद्र:’ आदि कहकर परमात्मा माना गया है । यजुर्वेद का रुद्राध्याय भगवान रुद्र को समर्पित है । उपनिषद् रुद्र को विश्व का अधिपति तथा महेश्वर बताते हैं—

‘इन ब्रह्माण्ड में स्थित भुवनों पर ब्रह्मारूप से शासन करता हुआ और उत्पन्न होने वाले प्रत्येक शरीर के मध्य में चेतनरूप से विराजमान तथा प्रलय के समय क्रोध में भरकर संहार करता हुआ एक रुद्र ही अपनी शक्ति उमा के साथ स्थित है, इससे पृथक् दूसरा कुछ भी नहीं ।’ (श्वेताश्वतरोपनिषद् ४।१८)

शिवपुराण का आधे से अधिक भाग रुद्रसंहिता, शतरुद्रसंहिता और कोटिरुद्रसंहिता आदि नामों से भगवान रुद्र की ही महिमा का गान करता है ।

रुद्रसंहिता (सृ. ख. २।४०) में कहा गया है—‘इस लोक में शिव की जैसी इच्छा होती है, वैसा ही होता है । समस्त विश्व उन्हीं की इच्छा के अधीन है और उन्हीं की वाणी रूपी तन्त्री से बंधा हुआ है ।’

ग्यारह रुद्र या एकादश रुद्र

भगवान रुद्र तो एक ही हैं किन्तु जगत के कल्याण के लिए वे अनेक नाम व रूपों में अवतरित होते हैं । मुख्य रूप से ग्यारह रुद्र हैं । इन्हें ‘एकादश रुद्र’ भी कहते हैं । शिवपुराण (शतरुद्रसंहिता १८।२७) में कहा गया है—

एकादशैते रुद्रास्तु सुरभीतनया: स्मृता: ।
देवकार्यार्थमुत्पन्नाश्शिवरूपास्सुखास्पदम् ।।

अर्थात्—ये एकादश रुद्र सुरभी के पुत्र कहलाते हैं । ये सुख के निवासस्थान हैं तथा देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिए शिवरूप से उत्पन्न हुए हैं ।

भगवान शिव ने ग्यारह रुद्ररूप में अवतार क्यों लिया ?

एक बार इन्द्र आदि देवता दैत्यों से पराजित हो गए और भयभीत होकर अपनी अमरावतीपुरी को छोड़कर अपने पिता महर्षि कश्यप के आश्रम में आ गए । सभी देवताओं ने कश्यपजी को अपना कष्ट सुनाया । शिवभक्त महर्षि कश्यप देवताओं को कष्ट दूर करने का आश्वासन देकर काशीपुरी आ गए और वहां शिवलिंग की स्थापना करके तप करने लगे ।

बहुत समय बीत जाने पर परम दयालु भगवान शिव प्रकट हो गए और उनसे वर मांगने के लिए कहा । कश्यपजी ने कहा—‘दैत्यों ने देवताओं और यक्षों को पराजित कर दिया है, इसलिए आप मेरे पुत्र रूप में प्रकट होकर देवताओं के कष्टों को दूर कीजिए ।’

भगवान शंकर ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्ध्यान हो गए । आश्रम वापस आकर उन्होंने देवताओं को भगवान शंकर के अवतार लेने की बात सुनाई, तो सभी देवता प्रसन्न हो गए ।

कश्यप-पत्नी सुरभी के गर्भ से लिया भगवान शिव ने ग्यारह रुद्रों के रूप में अवतार

भगवान शिव ने अपना वचन सत्य करने के लिए कश्यप ऋषि की पत्नी सुरभी के गर्भ से ग्यारह रुद्रों के रूप में अवतार लिया । उस समय देवताओं ने बड़ा उत्सव किया । भगवान के इन रुद्रावतारों से सारा जगत शिवमय हो गया । ये एकादश रुद्र बहुत ही बली और पराक्रमी थे । इन्होंने युद्ध में दैत्यों को हराकर इन्द्र को पुन: स्वर्ग का राज्य दिला दिया । सभी देवता निर्भय होकर अपना-अपना राजकार्य संभालने लगे ।

आज भी भगवान शिव के स्वरूप ये सभी एकादश रुद्र देवताओं की रक्षा के लिए स्वर्ग में विराजमान हैं और ईशानपुरी में निवास करते हैं । उनके अनुचर करोड़ों रुद्र कहे गये हैं, जो तीनों लोकों में चारों ओर स्थित हैं ।

एकादश रुद्र के नाम

विभिन्न पुराणों व ग्रन्थों में एकादश रुद्रों के नाम में अंतर मिलता है । जैसे—शिवपुराण में इनके नाम हैं—

  1. कपाली,
  2. पिंगल,
  3. भीम,
  4. विरुपाक्ष,
  5. विलोहित,
  6. शास्ता,
  7. अजपाद,
  8. अहिर्बुध्न्य,
  9. शम्भु,
  10. चण्ड, और
  11. भव ।

शैवागम के अनुसार एकादश रुद्रों के नाम हैं—

  1. शम्भु,
  2. पिनाकी,
  3. गिरीश,
  4. स्थाणु,
  5. भर्ग,
  6. सदाशिव,
  7. शिव,
  8. हर,
  9. शर्व,
  10. कपाली, और
  11. भव ।

श्रीमद्भागवत (३।१२।१२) में एकादश रुद्रों के नाम इस प्रकार हैं—

  1. मन्यु,
  2. मनु,
  3. महिनस,
  4. महान्,
  5. शिव,
  6. ऋतध्वज,
  7. उग्ररेता,
  8. भव,
  9. काल,
  10. वामदेव, और
  11. धृतव्रत ।

ग्यारह रुद्रों की कथा पढ़ने का माहात्म्य

इस प्रसंग को एकाग्रचित्त होकर पढ़ने का शिवपुराण में महान फल बताया गया है । यह—

धन व यश देने वाला,
मनुष्य की आयु की वृद्धि करने वाला,
सभी मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाला,
पापों का नाशक, व
समस्त सुख-भोग प्रदान कर अंत में मुक्ति देने वाला है ।

आध्यात्मिक रुद्र

उपनिषदों में एकादश प्राणों (दस इन्द्रियां और मन) को ‘एकादश रुद्र’ कहा गया है । परन्तु ये ‘आध्यात्मिक रुद्र’ हैं । ये शरीर रूपी मशीन को चलाते रहते हैं । ये ठीक-ठीक चलें तो मनुष्य का सब शिव (कल्याण) है अन्यथा एक की भी गति बिगड़ी तो शरीर बेकार हो जाता है । जो इन एकादश प्राणों को संयमित आहार-विहार और योगाभ्यास द्वारा वश में रखता है, वही सुख पाता है । ये निकलने पर प्राणियों को रुलाते हैं, इसलिए ‘रुद्र’ कहे जाते हैं। अत: दस इन्द्रियां और मन ही एकादश रुद्र हैं।

भगवान रुद्र के अश्रुबिन्दुओं से उत्पन्न रुद्राक्ष सभी देवताओं को अत्यन्त प्रिय हैं ।

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं
विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ।। (गोस्वामी तुलसीदास कृत रुद्राष्टक १)

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दस प्रकार के पापों से मुक्ति का पर्व गंगा दशहरा

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चहल पहल हो रही यात्री नहा रहे हैं,
कोई गंगाजी में दीपक बहा रहे हैं,
मारें डुबकी ‘हर हर गंगे’ बोल रहे हैं,
फूल-बताशे और नारियल अर्पण करके,
मन ही मन निज मनोकामना कह रहे हैं,
सजी-धजी नववधू-सरीखी सुघर किश्तियां,
थिरक रही हैं गंगाजी के आंचल में,
नावों में भंग घोंटकर, विश्वनाथ का,
भोग लगाते भक्त, छानकर गंगाजल में,
लक्कड़ वाले बाबा बैठे ताप रहे हैं,
पंडा जिजमानों की अंटी नाप रहे हैं,
कोई बना रहे रेती में दाल-बाटियां,
कोई गंगाजल में सत्तू घोल रहे हैं,
वेद शास्त्रों द्वारा वंदित गंगामाई,
वाल्मीकि-तुलसी-रवीन्द्र ने महिमा गाई ।। (हास्यकवि श्रीकाका हाथरसी)

कैसा सुन्दर और सजीव वर्णन है किया है कवि ने गंगाजी का ।

दस प्रकार के पापों के नाश का पर्व है ‘गंगा दशहरा’

ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे दशमी हस्तसंयुता ।
हरते दश पापानि तस्माद् दशहरा स्मृता ।। (ब्रह्मपुराण)

ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि ‘गंगा दशहरा’ कहलाती है । यह पृथ्वी पर गंगा के अवतरण की मुख्य तिथि मानी जाती है । इस वर्ष यह पर्व 22 जून 2018 को मनाया जाएगा । इस दिन विशेष रूप से गंगास्नान, गंगा-पूजन, दान तथा गंगाजी के स्तोत्रपाठ करने का विशेष महत्त्व है । इससे दस प्रकार के पापों (तीन प्रकार के कायिक, चार प्रकार के वाचिक तथा तीन प्रकार के मानसिक पापों) का नाश होता है इसलिए इसे ‘दशहरा’ कहते हैं ।

दस प्रकार के पाप

तीन प्रकार के शारीरिक (कायिक) पाप

  1. बिना दिए हुए दूसरे की वस्तु लेना,
  2. हिंसा करना,
  3. परस्त्रीगमन करना,

चार प्रकार के वाचिक पाप

  1. कड़वा बोलना,
  2. झूठ बोलना,
  3. किसी का दोष बताना, चुगली करना,
  4. बेकार की अनाप-शनाप बातें करना,

तीन प्रकार के मानसिक पाप

  1. दूसरे के धन को हड़पने की सोचना,
  2. मन से दूसरे का बुरा सोचना,
  3. नास्तिक बुद्धि रखना ।

गंगा दशहरा के दस शुभ योग

ज्येष्ठमास, शुक्लपक्ष, दशमी तिथि, बुधवार, हस्त नक्षत्र, गर, आनंद, व्यतिपात, कन्या के चंद्र व वृष के सूर्य—इन दसों के योग में जो मनुष्य गंगा स्नान करता है वो सब पापों से छूट जाता है ।

कैसे करें गंगा में स्नान ?

गंगाजी में स्नान करते समय शरीर को बिना मले (बिना साबुन या मुल्तानी मिट्टी लगाए) गंगाजल में सीधे डुबकी लगाएं और मन में यह धारणा करें कि भगवान विष्णु के चरणों से निकले ब्रह्मद्रव रूपी अमृत से साक्षात् मिलन हो रहा है । स्नान के बाद शरीर को पोंछना नहीं चाहिए क्योंकि शरीर से जो जल गिरता है वह अन्य योनियों में गए हुए पितरों को मिलता है । यदि बीमारी के कारण शरीर पोंछना आवश्यक हो तो गीले गमछे से पोंछ कर उसे निंचोड़ देना चाहिए । वह जल भी पितरों को तृप्त करता है ।

पूजाविधि व मन्त्र

इस दिन गंगाजी या किसी भी पवित्र नदी पर जाकर पू‍जा एवं तर्पण करने वाला महापातकों के बराबर के दस पापों से छूट जाता है । दशहरे के दिन मनुष्य को गंगाजी की दस प्रकार के फूलों, दस प्रकार की गन्ध (चंदन, रोली, अष्टगंध), दस प्रकार के नैवेद्य (भोग), दस ताम्बूल और दस दीपों से पूजा करनी चाहिए । इसके बाद इस मन्त्र की एक माला (108 बार या 11, 21, 31 बार, जितना हो सके) करनी चाहिए—

गंगाजी का मन्त्र है—‘ॐ नमो दशहरायै नारायण्यै गंगायै नम: ।’

गंगाजी के बारह (द्वादश) नाम

वैसे तो गंगा दशहरा को गंगाजी में स्नान का माहात्म्य है किन्तु आजकल की व्यस्त जिंदगी में यदि गंगातट या किसी नदी पर नहीं जा पाएं तो घर पर ही स्नान करते समय इन बारह नामों का स्मरण कर लिया जाए तो उस जल में गंगाजी का वास हो जाता है । ये बारह नाम हैं—

नन्दिनी नलिनी सीता मालती च महापगा ।
विष्णुपादाब्जसम्भूता गंगा त्रिपथगामिनी ।।
भागीरथी भोगवती जाह्नवी त्रिदशेश्वरी ।
द्वादशैतानि नामानि यत्र यत्र जलाशये ।।
स्नानोद्यत: स्मरेन्नित्यं तत्र तत्र वसाम्यहम् ।। (आचारप्रकाश)

गंगाजी को प्रसन्न करने वाला स्तोत्र

ऊँ  नम: शिवायै  गंगायै शिवदायै नमोऽस्तु ते ।
नमस्ते विष्णुरूपिण्यै गंगायै ते नमो नम: ।।1।।
सर्वदेवस्वरूपिण्यै      नमो भेषजमूर्तये ।
सर्वस्य सर्वव्याधीनां भिषक् श्रेष्ठे नमोऽस्तु ते ।।2।।
स्थाणुजंगमसम्भूतविषहन्त्रि    नमोऽस्तु ते ।
संसारविषनाशिन्यै     जीवनायै नमो नम: ।।3।।

तापत्रितयहन्त्र्यै   च प्राणेश्वर्यै नमो नम: ।
शान्त्यै संतापहारिण्यै नमस्ते सर्वमूर्तये ।।4।।
सर्वसंशुद्धिकारिण्यै       नम: पापविमुक्तये ।

भुक्तिमुक्तिप्रदायिन्यै   भोगवत्यै नमो नम: ।।5।।
मन्दाकिन्यै नमस्तेऽस्तु स्वर्गदायै नमो नम: ।
नमस्त्रैलोक्यमूर्त्तायै   त्रिपथायै नमो नम: ।।6।।

नमस्ते शुक्लसंस्थायै   क्षमावत्यै नमो नम: ।
त्रिदशाशनसंस्थायै   तेजोवत्यै नमोऽस्तु ते ।।7।।

मन्दायै लिंगधारिण्यै  सुधाधारात्मने नम: ।
नमस्ते विश्वमुख्यायै रेवत्यै  ते नमो नम: ।।8।।
बृहत्यै ते नमस्तेऽस्तु लोकधात्र्यै नमोऽस्तु ते ।
नमस्ते  विश्वमित्रायै  नन्दिन्यै ते नमो नम: ।।9।।
पृथ्व्यै   शिवामृतायै च  विरजायै नमो नम: ।

परावरगताद्यायै  तारायै ते नमो  नम: ।।10।।
नमस्ते स्वर्गसंस्थायै अभिन्नायै नमो   नम: ।
शान्तायै  च प्रतिष्ठायै वरदायै नमोऽस्तु ते ।।11।।
उग्रायै  मुखजल्पायै संजीवन्यै  नमोऽस्तु ते ।
ब्रह्मगायै  ब्रह्मदायै दुरितघ्न्यै  नमो नम: ।।12।।

प्रणतार्तिप्रभंजिन्यै जगन्मात्रे  नमो नम: ।
निर्लेपायै  दुर्गहन्त्र्यै  दक्षायै ते नमोऽस्तु ते ।।13।।

सर्वापत्प्रतिपक्षायै मंगलायै नमो नम: ।
परापरे परे तुभ्यं नमो मोक्षप्रदे सदा ।।14।।
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे  देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ।।15।।
परापरपरायै  च गंगे निर्वाणदायिनि ।

गंगे  ममाग्रतो  भूया गंगे मे तिष्ठ  पृष्ठत: ।।16।।
गंगे मे पार्श्वयोरेधि गंगे त्वय्यस्तु मे स्थिति: ।
आदौ त्वमन्ते मध्ये च सर्वं त्वं गांगते शिवे ।।17
त्वमेव  मूलप्रकृतिस्त्वं पुमान्  पर एव हि ।
गंगे त्वं परमात्मा च शिवस्तुभ्यं नम: शिवे ।।18।।

स्तोत्रपाठ का फल

  • इस स्तोत्र का प्रतिदिन  श्रद्धापूर्वक पाठ करने से मनुष्य पहले बताये गए दस प्रकार के पापों से छूट जाता है । साथ ही मनुष्य के रोग, सब प्रकार के भय, शत्रु व बंधन दूर हो जाते हैं ।
  • इस स्तोत्र को लिखकर जिस घर में इसकी पूजा की जाती है, वहां आग और चोर का भय नहीं रहता है ।
  • उस मनुष्य की सब मनोकामना पूरी होती हैं और मृत्यु के बाद वह ब्रह्म में लीन होता है ।
  • ज्येष्ठमास के शुक्लपक्ष की हस्त नक्षत्र सहित बुधवार की दशमी तिथि तीनों तरह के पापों को हरती है । उस दशमी के दिन जो कोई गंगाजल में खड़ा होकर इस स्तोत्र को दस बार पढ़ता है, वह दरिद्र हो या असमर्थ, उसे गंगाजी की पूजा करने का फल प्राप्त होता है ।

आजकल कितने ही लोग गंगास्नान तो करते हैं पर गंगा को स्वच्छ और निर्मल रखने का प्रयास नहीं करते हैं । गंगाजी के बढ़ते प्रदूषण पर कितनी सटीक चिन्ता करते हुए ‘नजीर बनारसी’ ने लिखा है—

डरता हूँ रुक न जाए कविता की बहती धारा ।
मैली है जब से गंगा मैला है मन हमारा ।।
श्रद्धाएं चीखती हैं विश्वास रो रहा है ।
खतरे में पड़ गया परलोक का सहारा है ।।

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अनिद्रा और दु:स्वप्न नाश के 8 प्रभावशाली मन्त्र

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अनिद्रा नींद नहीं आना या बार-बार नींद खुल जाने को कहते हैं और जब गहरी नींद नहीं आती तो बुरे व डरावने स्वप्न आने लगते हैं, उनको दु:स्वप्न कहते हैं ।

अनिद्रा और दु:स्वप्न का कारण कमजोर (दुर्बल) मन

कभी-कभी मनुष्य का मन किसी प्रकार की घटना से इतना क्षुब्ध हो जाता है कि न तो नींद ही ठीक से आती है और न ही स्वप्न अच्छे आते हैं । यदि थोड़ी नींद आती भी है तो तरह-तरह के डरावने सपने उसका पीछा नहीं छोड़ते हैं । व्यक्ति दु:स्वप्नों से इतना तंग आ जाता है कि वह सोने से भी डरने लगता है ।

कमजोर मन का कारण है नकारात्मक सोच

मनुष्य के मन में उपजे नकारात्मक विचार (भय, क्रोध, ईर्ष्या, अपेक्षा, घृणा, राग-द्वेष, चिन्ता आदि) उसे विचलित, दु:खी और कमजोर बनाते हैं । इस नकारात्मकता से बचने के लिए उसे इन चार महत्वपूर्ण बातों को जान लेना चाहिए—

  • संसार में परमात्मा के सिवाय और कोई उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।
  • मनुष्य को संसार पर भरोसा छोड़कर अपने ऊपर विश्वास करना चाहिए ।
  • संसार सदैव परिवर्तनशील है, यहां कोई भी चीज या परिस्थिति स्थायी नहीं है । मनुष्य को ‘अच्छा या बुरा—यह भी न रहेगा’ इस विचार का अभ्यास अपने जीवन में करना चाहिए ।
  • मनुष्य को दु:खों से भागना नहीं चाहिए बल्कि उनका भोग करना चाहिए । दु:ख देने वाली घटनाएं ही बुरे प्रारब्ध का नाश कर पीछे सुख का कारण बन जाती हैं ।

इन सूत्रों को जीवन में उतारने से मनुष्य निश्चिन्त और निर्भय हो जाता है जिससे उसे गहरी व अच्छी नींद आने लगती है ।

अनिद्रा और दु:स्वप्न दूर करने के 8 प्रभावशाली मन्त्र

हमारे ऋषियों ने कुछ ऐसे प्रभावशाली व तेजस्वी शब्दों का संग्रह कर मन्त्र बनाए जिनका कि विशेष अर्थ होता है और जो मनुष्य के जीवन को परिवर्तित करने की क्षमता रखते हैं । इन मन्त्रों के जप से मनुष्य के सभी प्रकार के भय और दु:स्वप्न दूर हो जाते हैं  ।

  • यदि किसी को नींद न आती हो तो हाथ-पैर धोकर सोते समय इस मन्त्र का जप करें । दो-तीन दिन इस मन्त्र का प्रयोग करने से ही अच्छी नींद आने लगेगी—

अगस्तिर्माधवश्चैव मुचुकुन्दो महाबल : ।
कपिलो मुनिरास्तीक: पंचैते सुखशायिन: ।।

agasti madhavshchaiv muchukundo mahabalah
kapilo munirasteekah panchaite sukhshayinh.

  • मां दुर्गा का एक रूप निद्रा (योगनिद्रा) है । हाथ-पैर धोकर सोते समय ‘दुर्गा सप्तशती’ के इस मन्त्र का नित्य जप करने से अच्छी नींद आने लगेगी—

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।

  • रात्रि में एकाग्रचित्त होकर गहरी सांस लेते हुए ऐसे शब्दों का उच्चारण करें जो मन को शान्त और संतुलित करें । जैसे—

‘मैं शान्त और संतुलित हूँ । मेरे मन में किसी प्रकार की चंचलता, व्याकुलता या बुराई नहीं है क्योंकि मेरे अंदर साक्षात् ईश्वर विराजमान हैं । उन्हीं की शक्ति मुझमें काम कर रही है । मेरी शान्ति को कोई भंग नहीं कर सकता ।’

इस प्रार्थना को रोजाना सोते समय 7 बार दुहराएं । तुरन्त ही आपका मन हल्का हो जाएगा और गहरी नींद आने लगेगी ।

  • यदि किसी को बुरे स्वप्न आते हों तो रात्रि में हाथ-पैर धोकर पूर्व की ओर मुख करके इस मन्त्र का 108 बार जप करें । दु:स्वप्न आने बंद हो जाएंगे—

वाराणस्यां दक्षिणे तु कुक्कुटो नाम वै द्विज: ।
तस्य स्मरणमात्रेण दु:स्वप्न सुखदो भवेत् ।।

varanashyam dakshine tu kukkuto nam vai dwijh
tasya ismaran matren duswapana sukhado bhavet.

  • यदि सोते समय श्रीरामदरबार का ध्यान करते हुए इस दोहे को सात बार दोहरा लें तब भी बुरे स्वप्न नहीं आते हैं—

‘श्रीराम, सीता, जानकी, जय बोलो हनुमान की ।’

  • रामभक्त हनुमान, गरुड़ और भीम को समर्पित इस मंत्र का सोते समय जप करने से अच्छी नींद आती है और बुरे सपने नहीं आते हैं–

रामस्कंदम् हनुमन्तं वैनतेयं वृकोदरम् ।
शयनयः स्मरेन्नित्यं दुःस्वप्नं तस्य नाशयति ।।

ramskandam hanumantam venteyam vrakodaram
shayanah ismarennityam duswapanam tasya nashyati.

  • रात्रि में सोते समय यजुर्वेद (अध्याय 30 मन्त्र: 3) की यह प्रार्थना करें—

‘ॐ विश्वानि देव सवितु: दुरितानि परा सुव यद् भद्रं तन्न आ सुव ।’

अर्थात्—‘हे परमपिता ! जो दु:खदायक वस्तुएं हों, उन्हें हमसे दूर हटा दीजिए । जो सब दु:खों से रहित कल्याणप्रद है, जिन चीजों से हमें आत्मिक सुख प्राप्त हो, उन्हें ही हमें प्रदान कीजिये ।’

इस प्रकार के सात्विक शब्दों से अपने आस-पास पवित्र वातावरण का निर्माण करने से मन शान्त और संतुलित रहेगा जिससे नींद भी अच्छी आएगी और दु:स्वप्नों का अंत हो जाएगा ।

  • इसके अलावा मनुष्य को सभी प्राणियों के साथ मित्रता की भावना रखनी चाहिए। गीता के अनुसार ‘सब कुछ वासुदेव श्रीकृष्ण ही हैं ।’

सब जग ईश्वर-रूप है, भलो बुरो नहिं कोय ।
जैसी जाकी भावना, तैसो ही फल होय ।।

मनुष्य के मन में इस भावना के विकसित होने पर कोई दूसरा प्राणी उसे हानि नहीं पहुंचा सकता, सभी उसके शुभचिन्तक बन जाते हैं । मनुष्य के अपने कर्म ही उसे सुख-दु:ख देते हैं । अत: प्रतिदिन अच्छे कर्मों का संचय करना चाहिए । इस तरह का दृष्टिकोण होने से मनुष्य के अंदर निर्भीकता की भावना आती है, उसके दु:स्वप्नों का अंत हो जाता है व अच्छी नींद आने लगती है ।

अच्छी व गहरी नींद का मूल मन्त्र

‘हमारा मन जितना-जितना परमात्मा की ओर झुकता जाएगा, उतनी-उतनी मन में शान्ति आती जाएगी । जहां शान्ति आयी, मन प्रसन्न हो जाएगा । प्रसन्नता आने पर मन का उद्वेग मिट जाता है । उद्वेग मिटना ही दु:खों की समाप्ति है ।’ (गीता २।६५)

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जिन नैनन श्रीकृष्ण बसे, वहां कोई कैसे समाय

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‘सूर सूर तुलसी शशि’

सूरदासजी को भक्तिमार्ग का सूर्य कहा जाता है । जिस प्रकार सूर्य एक ही है और अपने प्रकाश और उष्मा से संसार को जीवन प्रदान करता है उसी तरह सूरदासजी ने अपनी भक्ति रचनाओं से मनुष्यों में भक्तिभाव का संचार किया । इस ब्लॉग में सूरदासजी की भक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाने वाली एक कथा का वर्णन किया गया है ।

सूरदासजी को मन की आंखों से भगवान के श्रृंगार और लीलाओं के दर्शन की थी सिद्धि

वैशाख शुक्ल पंचमी संवत् 1535 को एक दिव्य ज्योति के रूप में भक्त सूरदासजी इस पृथ्वी पर आए तो उनके नेत्र बंद थे । जन्मान्ध बालक के प्रति पिता और घर के लोगों की उपेक्षा से धीरे-धीरे उनके मन में वैराग्य आ गया और उन्होंने घर छोड़ दिया । आगरा के पास रुनकता में रहे और फिर वल्लभाचार्यजी के साथ गोवर्धन चले आए । वहां वे चन्द्रसरोवर के पास पारसोली में रहने लगे । वे मन की आंखों (अंत:चक्षु) से ही अपने आराध्य की सभी लीलाओं और श्रृंगार का दर्शन कर पदों की रचना कर उन्हें सुनाया करते थे ।

भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय भक्तों के साथ करते हैं लीला

एक बार वे अपनी मस्ती में कहीं जा रहे थे । रास्ते में एक सूखा कुंआ था, उसमें वे गिर गए । कुएं में गिरे हुए सात दिन हो गए । वे नंदनन्दन से बड़े ही करुण स्वर में प्रार्थना कर रहे थे । उनकी प्रार्थना से द्रवित होकर भगवान श्रीकृष्ण ने आकर उनको कुएं से बाहर निकाल दिया ।

बाहर आकर वे अपने अंधेपन पर पछताते हुए कहने लगे—‘मैं पास आने पर भी अपने आराध्य के दर्शन नहीं कर सका ।’

एक दिन वे बैठे हुए ऐसे ही विचार कर रहे थे कि उन्हें श्रीराधा और श्रीकृष्ण की बातचीत सुनायी दी ।

श्रीकृष्ण ने श्रीराधा से कहा—‘आगे मत जाना, नहीं तो वह सूरदास टांग पकड़ लेगा ।’

श्रीराधा ने कहा—‘मैं तो जाती हूँ ।’ ऐसा कहकर वे सूरदास के पास आकर पूछने लगीं—‘क्या तुम मेरी टांग पकड़ लोगे ?’ सूरदासजी ने कहा—‘नहीं, मैं तो अंधा हूँ, मैं क्या टांग पकड़ूंगा ।’

तब श्रीराधा सूरदासजी के पास जाकर अपने चरण का स्पर्श कराने लगीं ।

श्रीकृष्ण ने कहा—‘आगे से नहीं, पीछे से टांग पकड़ लेगा ।’

सूरदासजी ने मन में सोचा कि ‘श्रीकृष्ण ने तो आज्ञा दे ही दी है, अब मैं क्यों न श्रीराधा के चरण पकड़ लूँ?’ यह सोचकर वे श्रीराधा के चरण पकड़ने के लिए तैयार होकर बैठ गए । जैसे ही श्रीराधा ने अपना चरणस्पर्श कराया, सूरदासजी ने उन्हें पकड़ लिया । श्रीराधा तो भाग गयीं लेकिन उनकी पायल (पैंजनी) खुलकर सूरदासजी के हाथ में आ गयी ।

श्रीराधाकृष्ण ने दिया सूरदासजी को दृष्टिदान

श्रीराधा ने कहा—‘सूरदास ! तुम मेरी पैंजनी दे दो, मुझे रास करने जाना है ।’

सूरदासजी ने कहा—‘मैं क्या जानूँ, किसकी है । मैं तुमको दे दूँ, फिर कोई दूसरा आकर मुझसे मांगे तो मैं क्या करुंगा ? हां, मैं तुमको देख लूँ तब मैं तुम्हें दे दूंगा ।’

श्रीराधाकृष्ण हंसे और उन्होंने सूरदासजी को दृष्टि प्रदान कर अपने दर्शन दे दिये ।

जिन आँखों में भगवान की छवि बस जाती है, उनमें अन्य वस्तुओं के लिए स्थान ही कहाँ रह जाता है?

जिन नैनन प्रीतम बस्यौ, तहँ किमि और समाय।
भरी सराय ‘रहीम’ लखि, पथिक आपु फिरि जाय।।

अर्थात्—जिन आंखों में भगवान की छवि बस जाती है वहां संसारिक वस्तुओं के लिए कोई जगह नहीं रह जाती । जैसे सराय को भरा देखकर राहगीर वापस लौट जाता है ।

श्रीराधाकृष्ण ने प्रसन्न होकर सूरदासजी से कहा—‘सूरदासजी ! तुम्हारी जो इच्छा हो, मांग लो ।’

सूरदासजी ने कहा—‘आप देंगे नहीं ।’

श्रीकृष्ण ने कहा—‘तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है ।’

सूरदासजी ने कहा—‘वचन देते हैं !’

श्रीकृष्ण ने कहा—‘हां, अवश्य देंगे ।’

सूरदासजी ने कहा—‘जिन आंखों से मैंने आपको देखा, उनसे मैं संसार को नहीं देखना चाहता । मेरी आंखें पुन: फूट जायँ ।’

‘अंधा क्या चाहे, दो आंखें’ । लेकिन आंखें (दृष्टि) मिलने पर पुन: अंधत्व मांग लेना—यह सूरदासजी जैसा अलौकिक व्यक्तित्व का धनी ही कर सकता है । सूरदासजी के मन में श्रीकृष्ण के सिवाय किसी दूसरे के लिए कोई जगह नहीं थी । उनका पद है—

नाहि रहयौ हिय मह ठौर ।
नंदनंदन अछत कैसे आनिय उर और ।।

श्रीराधाकृष्ण की आंखें छलछल करने लगीं और देखते-देखते सूरदास की दृष्टि पूर्ववत् (दृष्टिहीन) हो गयी ।

श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण दुर्वासाजी से कहते है—

‘जिसने अपने को मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्मा का पद चाहता है और न देवराज इन्द्र का, उसके मन में न तो सम्राट बनने की इच्छा होती है और न वह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ रसातल का ही स्वामी होना चाहता है । वह योग की बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्ष की भी इच्छा नहीं करता ।’

सूरदासजी प्रतिदिन गोवर्धन में श्रीनाथजी के दर्शन कर उन्हें नये-नये पद सुनाते थे । एक दिन अंतिम समय निकट आने पर उन्होंने श्रीनाथजी की केवल मंगला आरती का दर्शन किया और पारसोली आकर श्रीनाथजी के मन्दिर की ध्वजा को प्रणाम कर चबूतरे पर लेट कर गुंसाईंजी और श्रीनाथजी का ध्यान करने लगे ।

श्रृंगार के दर्शनों में सूरदासजी को न देखकर गुंसाई विट्ठलनाथजी ने अन्य अष्टछाप के कवियों से कहा—‘आज पुष्टिमार्ग का जहाज जाने वाला है जिसको जो कुछ लेना हो, वह ले ले ।’

गुंसाईजी सहित सभी लोग सूरदासजी के पास आ गए । गुंसाईजी के यह पूछने पर कि ‘आपका चित्त कहां है ?’ सूरदासजी ने जबाव दिया—‘मैं राधारानी की वन्दना करता हूँ, जिनसे नंदनंदन प्रेम करते हैं।’

सूरदासजी ने 85 साल की अवस्था में अपने आराध्य से यह प्रार्थना करते हुए गोलोक प्राप्त किया—

तुम तजि और कौन पै जाऊँ ।
काके द्वार जाइ सिर नाऊ,
पर हथ कहां बिकाऊँ ।।
ऐसो को दाता है समरथ,
जाके दिये अघाऊँ ।
अंतकाल तुमरो सुमिरन गति,
अनत कहूँ नहिं पाऊँ ॥

गीता (12।8) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘हे अर्जुन ! तू अपने मन को मुझमें ही स्थिर कर और मुझमें ही अपनी बुद्धि को लगा, इस प्रकार तू निश्चित रूप से मुझमें ही सदैव निवास करेगा, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है।’

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गीता का स्थितप्रज्ञ भक्त कवि धनंजय

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वैष्णव का विशेष लक्षण है भगवान की पूजा (अर्चन भक्ति)

वेदों में नित्य प्रात:काल और सायंकाल भगवान की पूजा करने का विधान बताया गया है । भगवान की पूजा-अर्चना (अर्चन भक्ति) नवधा भक्ति का एक अंग है और गृहस्थों के लिए तो यह अर्चन भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है ।

गीता (12।2) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥

अर्थात्—हे अर्जुन ! जो मनुष्य मुझमें अपने मन को स्थिर करके निरंतर मेरे सगुण-साकार रूप की पूजा में लगे रहते हैं, और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे दिव्यस्वरूप की आराधना करते हैं वह मेरे द्वारा योगियों में अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माने जाते हैं ।

गीता (18।64-65) में भी यही बात कही गयी है—

‘हे अर्जुन ! सम्पूर्ण गोपनीय से भी अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचन को तू फिर सुन ।………तू मुझमें मन वाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो और मुझको प्रणाम कर । ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है ।’

हम भक्तनि के भक्त हमारे ।
सुनि अर्जुन ! परतिग्या मेरी, यह व्रत टरत न टारे ।।

अर्चन भक्ति की अवर्णनीय शक्ति और चमत्कार

अर्चन भक्ति ‘भक्त का जीवन’ और ‘उनका स्वभाव’ है । अर्चन भक्ति में भक्त अपने आराध्य को नित्य नए-नए श्रृंगार, वस्त्र और भोजन-सामग्री अर्पित कर लाड़ लड़ाता है । यह भक्ति जिसके (भगवान) प्रति होती है उसे भी नित्य रस मिलता है और जिसको (भक्त) होती है उसको भी रस मिलता है । भक्ति वह प्यास है जो कभी बुझती नहीं और न कभी उसका नाश होता है बल्कि यह निरन्तर बढ़ती जाती है । इस भक्ति में वह शक्ति है कि यह भगवान को भक्त के अधीन बना देती है ।

महाकवि धनंजय की अनन्य भक्ति

महाकवि धनंजय नित्य की तरह भगवान की पूजा में मग्न थे । तभी एक व्यक्ति ने मन्दिर में आकर उनसे कहा—‘आपके पुत्र को सर्प ने डस लिया है, आप चलिए ।’

संदेशवाहक के वचन सुनकर भी धनंजय उसी तरह पूजा करते हुए बोले—

सुनता है, सुनकर कहता है—मैं ही क्या कर लूंगा ।
पूजन छोड़ भगूं, आखिर जीवन तो डाल न दूंगा ।।

धनंजय का यह उत्तर सुनकर संदेशवाहक वहां से चुपचाप चला गया और धनंजय की पत्नी के पास जाकर बोला कि धनंजय तो पूजा में मस्त हैं, आप ही चलिए । पुत्र-शोक से संतप्त पत्नी मन्दिर में आकर धनंजय से कहती है—

कठोर हो, क्या पूजा अब भी भाती है ।।
अरे, छोड़ चल दो, पूजा को फिर भी समय मिलेगा ।
चला गया बच्चा तो दुख दिल से कभी न निकलेगा ।।
ऐसी भी पूजा क्या, जो बच्चे का रहम भुलाती ।
जल्दी चलो, खौफ से मेरी धड़क रही है छाती ।।

पत्नी के इतना कहने पर भी जब धनंजय पूजा से न उठे, तब पुत्र की चिन्ता में व्याकुल पत्नी अपने अचेत पुत्र को मन्दिर में ले आयी । फिर भी धनंजय की पूजा में कोई बाधा न आयी । उनकी तल्लीनता देखकर मन्दिर में सब लोग चकित रह गये ।

पत्नी के बार-बार कहने पर धनंजय ने  ‘विषापहारस्तोत्र’ की रचना की जिसके एक श्लोक का अर्थ है—

‘शरीर का विष उतारने के लिए लोग मणि, मन्त्र, तन्त्र, औषध एवं रसायन’ के लिए भागते-फिरते हैं, किन्तु आपका स्मरण नहीं करते । उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि ये सब आपके ही नाम हैं, विष उतारने वाले तो आप ही हैं ।’

हयशीर्षसंहिता में कहा गया है—‘उपासक के तप से, अत्यधिक पूजन से और इष्ट से प्रतिमा की एकरूपता से मूर्ति में भगवान उपस्थित हो जाते हैं ।’

कवि धनंजय के इन शब्दों का अचूक प्रभाव हुआ । तभी—

उठा कुमार नींद से, सोकर ही जैसे जागा हो ।
जीवन की दुंदुमी श्रवणकर महाकाल भागा हो ।।

धनंजय फिर भी भगवान की स्तुति में लीन रहे ।  मन्दिर में उपस्थित सभी लोग भक्त और भगवान की जय-जयकार करने लगे—

कहने लगे धन्य पूजा और धन्य अनन्य पुजारी ।
श्रद्धा और भक्तिमय पूजा है अतीव सुखकारी ।।

भक्त की भक्ति जब चरमसीमा पर पहुंच जाती है, तब उसकी दशा भी स्थितप्रज्ञ ज्ञानी की-सी हो जाती है । फिर ऐसे भक्त को भगवान क्यों न गले लगाएंगे !

स्थितप्रज्ञ ज्ञानी किसे कहते हैं ?

गीता में अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते है—हे मधुसूदन ! ये स्थितप्रज्ञ क्या होता है ? इसे समझाओ !

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ (गीता, 2।56)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘पार्थ !  दुःख भोगते हुए भी जिसके मन में उद्वेग नहीं होता और जो न ही सुख की लालसा रखता है तथा जिसके ह्रदय में क्रोध, मोह, भय आदि विकारों के लिए कोई स्थान नहीं होता है वह मनुष्य स्थितप्रज्ञ है, वह मुनि, संन्यासी स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।’

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌ ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ (गीता, 2।57)

अर्थात्—‘सब जगह आसक्तिरहित हुआ जो मनुष्य उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है ।’

‘जो निरन्तर आत्मभाव में स्थित, दु:ख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है, वही गुणातीत है।’ (गीता, 14।24)

गीता में परमात्मा को प्राप्त करने के लिए स्थितप्रज्ञ मनुष्य में समता का होना एक आवश्यक लक्षण बताया गया है ।

स्थितप्रज्ञता के लिए आवश्यक है निष्काम भक्ति और अनन्य शरणागति

स्थितप्रज्ञता के लिए मनुष्य में निष्काम भक्ति और अनन्य शरणागति आवश्यक है । अनेक जन्मों तक की गयी प्रार्थना, अर्चना, सत्कर्म आदि के रूप में किए गए कठोर परिश्रम से जो पुण्यफल संचित होते हैं, उसी से निष्काम भक्ति मनुष्य के हृदय में अंकुरित होती है । ऐसी भक्ति से ही भगवान का साक्षात्कार होता है क्योंकि भक्ति से जो चित्त पिघल जाता है उस पिघले हुए चित्त में भगवान की छवि अंकित हो जाती है जैसे पिघली हुई लाख में वस्तु की छाप आ जाती है ।

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शनिपीड़ा से मुक्ति के लिए करें इन तीन नामों का जाप

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शनिपीड़ा से मुक्ति के लिए करें इन तीन नामों का जाप

गाधिश्च कौशिकश्चैव पिप्पलादो महामुनि: ।
शनैश्चर कृतां पीडां नाशयन्ति स्मृतास्त्रय: ।। (शिवपुराण, शतरुद्रसंहिता 25।20)

अर्थात्—मुनि गाधि, कौशिक और पिप्पलाद—इन तीनों का नाम स्मरण करने से शनिग्रह की पीड़ा दूर हो जाती है ।

मुनि पिप्पलाद के नाम-स्मरण से क्यों दूर होती है शनिपीड़ा ?

महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी सुवर्चा महान शिभक्त थे । शिवजी के ही आशीर्वाद से महर्षि दधीचि की अस्थियां वज्र के समान हो गयी थीं । महर्षि और उनकी पत्नी की शिवभक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उनके यहां ‘पिप्पलाद’ नाम से अवतार धारण किया ।

वृत्रासुर आदि दैत्यों से पराजय के बाद देवतागण महर्षि दधीचि के आश्रम पर उनकी अस्थियां मांगने गए क्योंकि उनकी अस्थियां शिवजी के तेज से युक्त थी जिससे वे वज्र का निर्माण कर दैत्यों को हराना चाहते थे । उन्होंने किसी कार्य के बहाने उनकी पत्नी सुवर्चा को दूसरे आश्रम में भेज दिया । महर्षि ने ब्रह्माण्ड की रक्षा के लिए अपने प्राणों को खींचकर शिवतेज में मिला दिया और देवताओं ने उनकी अस्थियों से वज्र बनाकर दैत्यों पर विजय प्राप्त की । चारों तरफ सुख-शान्ति छा गयी ।

महर्षि की पत्नी जब आश्रम वापिस आईं तो सारी बात जानकर सती होने लगीं तब आकाशवाणी हुई—‘तुम्हारे गर्भ में महर्षि दधीचि का ब्रह्मतेज है जो भगवान शंकर का अवतार है । उसकी रक्षा आवश्यक है ।’

आकाशवाणी सुनकर सुवर्चा पास ही में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ गयीं और एक दिव्य बालक को जन्म दिया । सुवर्चा ने शिवावतार उस बालक की स्तुति करते हुए कहा—

‘हे परमेश्वर ! तुम इस पीपल के वृक्ष के नीचे चिरकाल तक स्थित रहो और सभी प्राणियों के लिए सुखदाता होओ ।’ ऐसा कहकर वे सती हो गयीं ।

सभी देवताओं ने साक्षात् शिव का अवतार जानकर उस बच्चे के संस्कार किए और ब्रह्माजी ने उसका नाम रख दिया ‘पिप्पलाद’

पिप्पलाद’ का अर्थ

शिव का अवतार यह बालक पीपल वृक्ष के नीचे अवतरित हुआ, माता की आज्ञा से पीपल वृक्ष के नीचे रहा, पीपल के पत्तों का ही भोजन किया तथा पीपल वृक्ष के मूल में रहकर तपस्या की । इसलिए इनके जीवन में पीपल वृक्ष का ही प्रमुख स्थान रहा ।

पिप्पलाद के कष्टमय बचपन का कारण शनिपीड़ा

महामुनि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा कि क्या कारण है कि मेरे जन्म से पूर्व ही मेरे पिता दधीचि मुझे छोड़कर चले गए और जन्म होते ही माता भी सती हो गयीं ?

देवताओं ने मुनि पिप्पलाद को बताया कि उनके बाल्यकाल के कष्टों का कारण शनि की क्रूर दृष्टि (प्रकोप) है । शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही उनके बचपन में ऐसा कुयोग बना था ।

पिप्पलाद को यह बात चुभ गई कि शनि में इतना अंहकार है कि वह नवजात शिशुओं तक को नहीं छोड़ते, इसका दंड तो शनि को भुगतना पड़ेगा । घोर तपस्वी पिप्पलाद ने तीनों लोकों में शनि को ढूंढना प्रारम्भ कर दिया । एक दिन अकस्मात् उन्हें पीपल वृक्ष पर शनि के दर्शन हो गए । मुनि ने तुरन्त अपना ब्रह्मदण्ड उठाया और उसका प्रहार शनि पर कर दिया ।  शनि यह भीषण प्रहार सहन करने में असमर्थ थे और वे नक्षत्र-मण्डल (आकाश) से गिर गए । वह भागने लगे किंतु कही मार्ग ही न मिलता था । ब्रह्मदण्ड ने उनका तीनों लोकों में पीछा करना शुरू किया । जहां जाते ब्रह्मदण्ड आता दिख जाता । तब शनिदेव ब्रह्माजी के पास गए । ब्रह्माजी ने सुझाव दिया कि भगवान शिव ही इससे रक्षा कर सकते हैं । शनिदेव ने भागकर शिवजी की शरण ली ।

भगवान शिव ने पिप्पलाद को समझाया—शनि ने सृष्टि के नियमों का पालन किया है, इसमें शनि का कोई दोष नहीं है । शिवजी के कहने पर पिप्पलाद ने शनि को क्षमा कर दिया । पिप्पलाद ने ब्रह्मदण्ड की मारक क्षमता कम कर दी और ब्रह्मदण्ड शनि के पैर पर प्रहार करके लौट गया । शनिदेव नक्षत्र-मण्डल में पहले की तरह स्थित हो गए । उस दिन से शनिदेव पिप्पलाद से भयभीत रहने लगे ।

शनिपीड़ा की शांति के लिए पीपल क्यों उपयोगी है ?

शनि ने वचन दिया कि वह चौदह वर्ष तक की आयु के जातकों को अपनी साढ़ेसाती से मुक्त रखेंगे ।

पिप्पलाद ने कहा—जो व्यक्ति इस कथा का ध्यान करते हुए पीपल के नीचे शनिदेव की पूजा करेगा, उसके शनिजन्य कष्ट दूर हो जाएंगे ।

इसलिए मुनि पिप्पलाद के नाम-स्मरण करने (जो भगवान शंकर का ही रूप है) तथा पीपल का पूजन करने से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है ।

पिप्पलाद ने राजा अनरण्य की पुत्री पद्मा से विवाह किया । शिवपुराण में कहा गया है—

पिप्पलादस्य चरितं पद्माचरित संयुतम् ।
य: पठेच्छृणुयाद् वापि सुभक्त्या भुवि मानव: ।।
शनिपीड़ा विनाशार्थमेतच्चरितमुत्तमम् । (शिवपुराण शतरुद्रसंहिता 25।21-22)

अर्थात—जो मनुष्य महामुनि पिप्पलाद तथा उनकी पत्नी पद्मा के चरित्र का श्रद्धापूर्वक पाठ करता है उसकी शनि की पीड़ा का नाश हो जाता है ।

शनिपीड़ा से मुक्ति पाने के लिए पीपल की उपासना

पीपल की उपासना शनिजन्य कष्टों से मुक्ति पाने के लिए की जाती है । प्रमुख उपाय है—

  • पिप्पलेश्वर महादेव की अर्चना शनिजनित कष्टों से मुक्ति दिलाती है ।
  • शिवपुराण में कह गए इस पिप्पलाद श्लोक का या केवल इन तीन नामों (पिप्पलाद, गाधि, कौशिक) को जपने से शनि की पीड़ा शान्त हो जाती है ।
  • पीपल की सेवा प्रत्येक शनिवार करने से शनिदेव प्रसन्न होते हैं । शनि की साढ़ेसाती और ढैया के प्रभाव से बचने के लिए हर शनिवार को पीपल के पेड़ पर गुड़, दूध मिश्रित जल चढ़ाएं । फिर पीपल की सात बार परिक्रमा करें । शाम को सरसों के तेल का दीपक जलाएं । ये नियम करने से शनि के सभी दोषों से मुक्ति मिलती है ।
  • शनिवार की अमावस्या को पीपल वृक्ष की पूजा और 7 परिक्रमा करके काले तिल से युक्त सरसों के तेल के दीपक को जलाकर छायादान करने से शनि की पीड़ा से मुक्ति मिलती है।

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दस महाविद्याओं की आराधना का पर्व है गुप्त नवरात्रि

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चार नवरात्र हैं चार पुरुषार्थों–धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतीक

देवीभागवत में 1. चैत्र, 2. आषाढ़, 3. आश्विन और 4. माघ—इन चार महीनों में चार नवरात्र बताए गए हैं । सभी नवरात्र शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से नवमी तक मनाये जाते हैं ।

इनमें चैत्र (वासन्तिक नवरात्र) और आश्विन (शारदीय नवरात्र) में जगदम्बा के नौ स्वरूपों (शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघण्टा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री) की आराधना होती है । जबकि आषाढ़ और माघमास की नवरात्रि ‘गुप्त नवरात्रि’ कहलाती हैं जिनमें देवी की पूजा-अर्चना के साथ दस महाविद्याओं की भी साधना की जाती है । इस दौरान मां जगदम्बा की आराधना गुप्‍त रूप से की जाती है और इसमें मानसिक पूजा का अधिक महत्त्व है इसलिए इन्‍हें गुप्‍त नवरात्रि कहा जाता है ।

तंत्रविद्या में आस्‍था रखने वाले लोगों के लिए गुप्त नवरात्रि बहुत महत्‍व रखती है । इस दौरान देवी भगवती के साधक बेहद कड़े नियम के साथ व्रत और साधना कर दुर्लभ शक्तियों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं । गुप्त नवरात्रि के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी होती है ।


इस वर्ष (2018 में) आषाढ़ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि दिन शनिवार तारीख 14 जुलाई से गुप्त नवरात्रि शुरू हो रही हैं । कुछ लोग 13 जुलाई शुक्रवार से भी गुप्त नवरात्रि मनायेंगे ।


 

दस महाविद्याओं का आविर्भाव क्यों और कैसे हुआ ?

दस महाविद्याओं का आविर्भाव क्यों और कैसे हुआ–इस सम्बन्ध में एक रोचक कथा देवीपुराण में मिलती है।

पूर्वकाल में प्रजापति दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें सभी देवता व ऋषिगण निमन्त्रित थे, किन्तु भगवान शिव से द्वेष हो जाने के कारण दक्ष ने न तो उन्हें निमन्त्रित किया और न ही अपनी पुत्री सती को बुलाया । सती ने भगवान शिव से पिता के यज्ञ में जाने की अनुमति मांगी परन्तु शिवजी ने वहां जाना अनुचित बताकर उन्हें जाने से रोका । सती पिता के घर जाने के अपने निश्चय पर अटल रहीं । उन्होंने भगवान शिव से कहा–’मैं प्रजापति के यज्ञ में अवश्य जाऊंगी और वहां या तो अपने पति देवाधिदेव शिव के लिए यज्ञ भाग प्राप्त करुंगी या यज्ञ को ही नष्ट कर दूंगी ।’

पिता द्वारा शिव के अपमान से त्रस्त होकर सती ने धारण किया काली रूप

यह कहते हुए सती ने अत्यन्त विकराल काली का रूप धारण कर लिया । क्रोधाग्नि से उनका रंग कृष्ण हो गया, होँठ फड़कने लगे, उनकी भयानक जिह्वा बाहर निकली हुई थी, अर्धचन्द्र व मुण्डमाला धारण किए हुए वे विकट हुंकार कर रही थीं । देवी के इस महाभयानक रूप को देखकर भगवान शिव डरकर भागने लगे ।

सती के अंग से दस दिशाओं में निकली दस महाविद्या

भागते हुए शिव को दसों दिशाओं में रोकने के लिए देवी ने दसों दिशाओं में अपने अंग से दस देवियों को प्रकट किया । शिवजी जिस-जिस दिशा में जाते, उस-उस दिशा में उन्हीं भयानक देवियों को खड़ा पाते थे । भगवान शिव ने सती से पूछा—‘ये कौन हैं ?’ इनके नाम क्या हैं और इनकी विशेषता क्या हैं ?

सती (पार्वती) के ही दस रूप और शक्तियां हैं दस महाविद्या

सती ने कहा—‘ये मेरे दस रूप हैं । अापके सामने कृष्णवर्णा और भयंकर नेत्रों वाली हैं वह काली हैं । नीले रंग की तारा आपके ऊर्ध्वभाग में विराजमान हैं । आपके दाहिनी ओर भयदायिनी मस्तकविहीन ‘छिन्नमस्ता’ हैं, बाएं भुवनेश्वरी, पीठ के पीछे शत्रुओं का नाश करने वाली बगलामुखी, अग्निकोण (पूर्व-दक्षिण) में विधवा का रूप धारण किए ‘धूमावती’ हैं, नैऋत्यकोण (दक्षिण-पश्चिम) में ‘त्रिपुरसुन्दरी’, वायव्यकोण (पश्चिम-उत्तर) में ‘मातंगी’, तथा ईशानकोण (उत्तर-पूर्व) में ‘षोडशी’ हैं । मैं खुद भैरवी रूप में अभयदान देती हूँ ।’

इस प्रकार दस महाविद्याएं देवी सती के काली रूप की शक्तियां हैं । महाकाली के दस प्रधान रूपों को ही दस महाविद्या कहा जाता है।

काली, तारा, छिन्नमस्ता, बगला और धूमावती–ये पांच महाविद्याओं के कठोर या उग्र रूप हैं।

भुवनेश्वरी, षोडशी (ललिता), त्रिपुरभैरवी, मातंगी और कमला–ये पांच महाविद्याओं के सौम्य रूप हैं ।

नवरात्रि को गुप्त क्यों कहा जाता है ?

ये सभी गोपनीय महाविद्याएं हैं । इनकी साधना गुप्त रूप से नवरात्रि में की जाती है । इनके मन्त्र, यन्त्र, कवच आदि को सावधानीपूर्वक गुप्त रखना चाहिए । हर किसी को बताना नहीं चाहिए इससे सिद्धि प्राप्त नहीं होती है तथा अशुभ होता है । इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं ।

दस महाविद्या की संयुक्त उपासना का मन्त्र

नवरात्रि के नौ दिनों में मां की पूजा-श्रृंगार, अखण्ड दीपक व भजन आदि से आराधना करने पर साधक के सभी बिगड़े काम बन जाते हैं । साथ ही दस महाविद्याओं की प्रसन्नता के लिए नीचे दिए किसी भी श्लोक का पाठ कर लेना चाहिए ।

     (1)

जय दुर्गे दुर्गतिनाशिनी जय ।
जय मा कालविनाशिनी जय जय ।।
जय काली जय तारा जय जय ।
जय जगजननि षोडशी जय जय ।।
जय भुवनेश्वरी माता जय जय ।
जयति छिन्नमस्ता मा जय जय ।।
जयति भैरवी देवी जय जय ।
जय जय धूमावती जयति जय ।
जय बगला मातंगी जय जय ।
जयति जयति मा कमला जय जय ।।

     (2)

काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी ।
बगला छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा ।।
मातंगी त्रिपुरा चैव विद्या च कमलात्मिका ।
एता दश महाविद्या: सिद्धविद्याः प्रकीर्तिता: ।
एषा विद्या प्रकथिता सर्वतन्त्रेषु गोपिता ।।

दस महाविद्याओं की उपासना दूर करती है हर संकट

  • दस महाविद्याओं की उपासना से साधक को चारों पुरुषार्थ—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त होते हैं । ये महाविद्याएं सिद्ध होकर अनन्त सिद्धियां देने व परमात्मा का साक्षात्कार कराने में समर्थ हैं ।
  • इनकी साधना से हर कार्य में विजय, धन-धान्य, ऐश्वर्य, यश, कीर्ति और पुत्र आदि की प्राप्ति के साथ ही मोक्ष की भी प्राप्ति होती है ।
  • इन महाविद्याओं की आराधना अपने आन्तरिक गुणों और आन्तरिक शक्तियों के जागरण के लिए की जाती है ।
  • इन्हीं की कृपा से मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तम्भन आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं ।

अलग-अलग उद्देश्य के लिए निकली दस महाविद्या

काली—समस्त बाधाओं से मुक्ति, भयंकर विपत्तियों से रक्षा ।

तारा—यह तांत्रिकों की प्रमुख देवी हैं । साधक को मोक्ष देने वाली (तारने वाली) होने से तारा कहलाती हैं । वाक्पटुता, आर्थिक उन्नति प्रदान करने के साथ ही शत्रुनाश करती हैं ।

छिन्नमस्ता—वैभव, शत्रु पर विजय, सम्मोहन ।

षोडशी या त्रिपुरसुंदरी—भक्तों को वे प्रसन्न होकर क्या नहीं देतीं ! इनकी आराधना से साधक के जीवन में किसी भी चीज की कमी नहीं रहती है ।

भुवनेश्वरी—सुख शांति, अभय व समस्त सिद्धियां ।

त्रिपुरभैरवी—सुख-वैभव, विपत्तियों को हरने वाली, इन्द्रियों पर विजय, सर्वत्र उत्कर्ष ।

बगलामुखी–ये ‘पीताम्बरा’ विद्या के नाम से भी जानी जाती हैं । ये पीले वर्ण की हैं और पीले ही वस्त्र, आभूषण और माला धारण किए हुए हैं । मां बगलामुखी की आराधना से वाद-विवाद में विजय और शत्रु पर विजय प्राप्त होती है तथा वाक् सिद्धि मिलती है ।

धूमावती— दरिद्रता का विनाश ।

मातंगी—सुखमय गृहस्थ जीवन, कार्य की सिद्धि और ज्ञान-विज्ञान ।

कमला—साधक को कुबेर के समान सुख समृद्धि प्रदान करती हैं ।

इस प्रकार गुप्त नवरात्रि में जगदम्बा और उनकी दस महाविद्याओं के श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पूजन से मानव सभी प्रकार की बाधाओं से मुक्त होकर धन-धान्य, पुत्र व सम्पत्ति से सम्पन्न हो जाता है ।

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व्रज में रथ चढ़ चले री गोपाल

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मैया मैं रथ चढ़ डोलूंगौ ।
घर घर तै सब संग खेलन को गोप सखन को बोलूंगौ ।।
मोहि जड़ा देहु रथ अति सुंदर, सगरौ साज बनाय ।
कर सिंगार ताऊ पर मोको, राधा संग बिठाय ।।
सुत के वचन सुनत नंदरानी फूली अंग न समाय ।
सब बिधि साजे हरि रथ बैठाये, देखि रसिक बलि जाय ।।

प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न ऋतुओं में अनेक प्रकार के उत्सव मनाये जाते हैं । रथयात्रा महोत्सव वर्षा ऋतु में होने वाले ‘वन-विहार’ का ही एक रूप है । ‘वन-विहार’ (पिकनिक) में स्त्री-पुरुष अपने वाहनों में सवार होकर आसपास के वनों में मनोरंजन के लिए जाते हैं और वहां कुछ समय बिताकर वापिस आ जाते हैं ।

आषाढ़ मास की शुक्लपक्ष की द्वितीया को रथयात्रा का उत्सव मनाया जाता है । आषाढ़ मास लगते ही नभ में मेघमालाएं घिरने लगती है, कोयल कूकने और मोर थिरकने लगते हैं, दादुर टर्राने लगते हैं, धरती की सारी कलुषता धुल जाती है और प्रकृति में सब जगह रस बरसने लगता है ।

भक्तों को आनन्द देने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने की व्रज में लीला

ऐसी ही पावस ऋतु आषाढ़ शुक्लपक्ष द्वितीया व पुष्य नक्षत्र के शुभयोग में श्रीकृष्ण माता यशोदा से अनुरोध करते हैं—

‘मैया तुम सुन्दर-सा रथ तैयार करा दो । मैं सभी ग्वाल-बालों को घर से बुलाकर ले आऊं, मिठाई फल खिलाऊं और रथयात्रा का उत्सव मनाऊं । मेरा सुन्दर श्रृंगार कर सखाओं के साथ श्रीराधा को भी रथ में बैठा दो ।’

पुत्र के ऐसे अनुरोध से यशोदाजी फूली नहीं समा रहीं । वह तो अपने कृष्ण के नित्य ही नये-नये उत्सव करती हैं । आज तो स्वयं श्रीकृष्ण ने महोत्सव करने के लिए कहा है ।

महोत्सव किसे कहते हैं?

महोत्सव अर्थात् महा उत्सव । उत्सव अपने घर-परिवार में ही मनाया जाता है किन्तु महोत्सव में हर्ष व आनन्द का ज्वार या उफान होता है । वह केवल व्यक्ति या परिवार तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि हर व्यक्ति, पूरा गांव व नगर भी उससे जुड़ जाता है । इससे घर-घर, गली-गली में आनन्द का प्रवाह होने लगता है । ऐसे ही आनन्द का ज्वार आज गोकुल में श्रीकृष्ण के रथयात्रा महोत्सव में उठा है ।

हरि के रथ की शोभा

माता यशोदा ने श्रीकृष्ण की रथयात्रा के लिए जो रथ तैयार करवाया उसका वर्णन अष्टछाप के कवियों ने बहुत ही सुन्दर प्रकार से किया है—

विश्वकर्मा द्वारा चार घोड़ों वाला रथ मणि-मुक्ता, हीरे से निर्मित है । ध्वजा, चंवर से सुसज्जित हरि के रथ की शोभा देखकर ऐसा लगता मानो प्रात:काल का सूर्य उदय हो गया हो । रथ के ऊपर श्वेत रंग का छत्र ऐसा शोभायमान हो रहा है जैसे पूर्व दिशा में चन्द्रमा उदित हुआ हो । उस पर श्यामसुन्दर का फहराता हुआ पीताम्बर, मानो बादलों के बीच में बिजली चमक रही हो । श्रीकृष्ण के नीलवर्ण पर मोतियों की माला ऐसे लग रही है जैसे नीले बादलों में तारागण चमक रहे हों ।

व्रज में श्रीकृष्ण का रथयात्रा महोत्सव

व्रज में रथ चढ़ चले री गोपाल ।
संग लिये गोकुल के लरिका बोलत वचन रसाल ।।
श्रवन सुनत गृह गृह तें दोरीं देंखन कों ब्रजबाल ।
लेत फेर कर हरि की बलैया वारत कंचनमाल ।।
सामग्री ले आवत शीतल लेत हरख नंदलाल ।
बांट देत और ग्वालन कों फूले गावत ग्वाल ।।
जयजयकार भयो त्रिभुवन में कुसुम बरखत तिंहिकाल ।
देख देख उमगे ब्रजवासी सब ही देत करताल ।।
यह विध बन सिंघद्वार जब आवत माय तिलक करे भाल ।
ले उछग पधरावत घर में चलत मंदगति चाल ।।
कर न्योंछावर अपने सुत की मुक्ताफल भर थाल ।
यह लीला रस रसिक दीवानी सुमरत होत निहाल ।।

किसी को महोत्सव में निमन्त्रण देने की आवश्यकता ही नहीं थी जिसने सुना वहीं उस सच्चिदानन्द के आनन्द में सराबोर होने के लिए चल पड़ा ।

माता यशोदा ने सब प्रकार से रथ को सजा कर श्रीकृष्ण को उस पर बिठा दिया हैं । श्रीकृष्ण के एक ओर श्रीराधा व दूसरी ओर बलदाऊजी रथ में विराजमान हैं और ललिता सखी छत्र व चंवर लिए खड़ी हैं । व्रजवासीगण मिलकर रथ को खींच रहे हैं उस समय की शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता ।

तुम देखौ सखि रथ बैठे ब्रजनाथ ।
संकर्षण के संग विराजत गोप सखा ले साथ ।
एकु ओरु राधा जुवती सब छत्र चमर ललिता के हाथ।
विविध भांति श्रीगोवर्धनधारी कृष्णदास कियो सनाथ ।।

फूलों के हार व चंदन लगाए गोपसखाओं का समूह हर्ष से कोलाहल कर रहा है । माता यशोदा बार-बार श्रीकृष्ण की बलैंया लेती हैं, मुख चूमती हैं और आरती उतार कर राई-नौन से नजर उतारती हैं और मेवा-मिठाई, फल मंगवा कर बालगोपालों को खिलाती हैं । श्रीकृष्ण के रथ की शोभा देखकर माता आनन्द में मोतियों के हार व्रजवासियों को लुटा रही हैं । व्रजबालाएं रथ में बैठे श्रीकृष्ण को आशीष दे रही हैं कि ‘स्नान करते भी इनका कोई बाल न टूटे’ अर्थात् ये सदैव सुरक्षित रहें ।

निरख निरख फूलत नंदरानी मुख चुंबत ढिग आय।
अति शोभित कर लिये आरती करत सिहाय सिहाय ।।

सभी व्रजवासी तरह-तरह के वाद्ययन्त्र लेकर नाचते गाते रथ के आगे चल रहे हैं । ग्वालबाल इत्र-फुलेल का छिड़काव चारों ओर कर रहे हैं । व्रजबालाएं फूलों की पंखुड़ियां रथ पर बरसा रही हैं । आकाश में देवतागण भी परमात्मा श्रीकृष्ण की रथयात्रा देखने के लिए अपनी-अपनी भेंट लेकर आ गए और जय जयकार करते हुए फूलों की वर्षा करने लगे ।

रथ में विराजमान युगलछवि की अनुपम झांकी देखकर व्रजबालाएं ठगी-सी खड़ी रह गईं हैं । आनन्दविभोर होकर वे कहती हैं—

देखौ री सखि ! आजु नैन भरि,
हरि के रथ की शोभा ।

माता यशोदा रथ पर आरुढ़ श्रीकृष्ण की शोभा देखकर मुग्ध होकर बार-बार उनपर बलिहारी जाती हैं । पर वे श्रीकृष्ण को अपनी आंखों से दूर नहीं करना चाहतीं क्योंकि वे जानती हैं कि कृष्ण चपल और चंचल है । इस कारण भय रहता है कि कहीं असावधानी के कारण रथ से गिर न जाए । उनके मन का भाव मुख पर आ जाता है और कहती हैं—

जसोदा रथ देखन को आई ।
देखो री ! मेरौ लाल गिरैगो, कहा करौं गोरी माई ।

सभी व्रजवासी भक्त भगवान की ऐसी छवि को देखकर बार-बार बलिहारी जा रहे हैं । रथयात्रा सम्पन्न होने पर रथ नंदमहल के सिंहद्वार पर आता है । माता मंगलाचार करके अपने पुत्र की आरती उतारती हैं और सबको बीड़ा खिलाती हैं । श्रीकृष्ण को रथ से उतार कर धीरे-धीरे नंदमहल के भीतर ले जाती हैं ।

द्वापर की लीला की याद में आज भी मन्दिरों व घरों में रथयात्रा का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है । भगवान को भारी श्रृंगार पहनाया जाता है । भगवान के सम्मुख चांदी का रथ रखा जाता है व आम-जामुन व चने की उबली दाल का भोग लगाया जाता है ।

रथयात्रा के पावन पर्व पर हमारा जीवन भी श्रीकृष्णकृपा से उत्सवमय बने यही श्रीकृष्णचरणों में विनती है ।

रथयात्रा का संदेश

रथयात्रा का संदेश है कि मानव-शरीर रूपी रथ पर श्रीकृष्ण को आरूढ़ कर दिया जाए तो कंसरूपी पापी वृत्तियों का अंत हो जाएगा जिससे शरीर और उसमें स्थित आत्मा स्वयं श्रीकृष्णमय (दिव्य) हो जाएंगे और जीवन सदैव के लिए एक महोत्सव बन जाएगा ।

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काश, मैं भगवान का प्यारा भक्त होता !

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भगवान का प्यारा भक्त

भगवान कोरे ज्ञान या कोरे कर्मकाण्ड, व व्रत-उपवास आदि से प्रसन्न होने वाले नहीं हैं, उनको ‘भक्त’ चाहिए । गले में माला डाल देने से, त्रिपुण्ड लगा लेने से, रामनामी ओढ़ लेने से ही कोई भक्त नहीं हो जाता । वह स्वभाव क्या है, जिससे आकर्षित होकर भगवान भक्त को खोजते फिरें, उसका पता पूछें, उससे मिलने के लिए रोते फिरें, अपने भक्त की चाकरी करें, वे गुण जिसके कारण भक्त भगवान को अत्यन्त प्यारा लगने लगता है—यह जानने की जिज्ञासा हर प्रेमीभक्त को होती है ।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के 12वें अध्याय के श्लोक 13-20 में अपने प्यारे भक्त के गुण या लक्षण बताए हैं–

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च ।
निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी ।।13।।
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चय: ।
मय्यर्पित मनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय: ।।14।।
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य: ।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय: ।।15।।
अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ: ।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय: ।।16।।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न कांक्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय: ।।17।।
सम: शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयो: ।।
शीतोष्णसुखदु:खेषु  सम: संगविवर्जित ।।18।।
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर: ।।19।।
ये तु धर्म्यामृतमिदंयथोक्तं पर्युपासते ।
श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया: ।।20।।

भक्त के किन गुणों पर रीझते हैं श्रीकृष्ण

इन श्लोकों में भगवान ने अपने प्यारे भक्त के 33 लक्षण (पहचान, गुण) बताए हैं, उन्हें पढ़कर मनुष्य को यह विचार करना चाहिए कि मैं किस प्रकार भगवान का प्यारा भक्त बन सकता हूँ ?

  1. जो समस्त प्राणियों में द्वेषरहित है--इसका अर्थ है किसी भी मनुष्य को बुरा न मानना, न ही उसकी आलोचना सुनना, मन में भी किसी का बुरा न चाहना, किसी की उन्नति से न जलना और न ही उसके कार्यों में बाधा डालना, किसी को अपना शत्रु या प्रतिद्वन्द्वी नहीं समझना ।
  2. सबके प्रति मित्रभाव–मनुष्य जब सबके हित के लिए कार्य करता है तभी वह सबका मित्र, ‘विश्वमित्र’ कहा जा सकता है । यह तभी संभव है जब मनुष्य किसी से भी अपने लिए न कुछ चाहे और न ही किसी भी प्रकार की आशा रखे ।
  3. करुणाभाव रखना–करुणा भाव का अर्थ है पराये दु:ख से दु:खी होना, अपने दु:ख से नहीं । दीन-हीन, पशु-पक्षी, वनस्पति, रोगियों व दरिद्रों के प्रति करुणा भाव रखकर उनकी सेवा करना ।
  4. ममतारहित होना–भक्त के लिए समस्त विश्व उसके प्रभु का है, अत: किसी भी वस्तु को अपना न मानकर ईश्वर का ही समझना चाहिए ।
  5. अंहकाररहित होना–जिसका अंहभाव ‘मैं’ ‘मेरापन’ समाप्त हो गया है ।
  6. सुख-दु:ख में सम होना—जो दु:खों से डरकर भागता नहीं है और सुख में हर्षित नहीं होता है ; सुख आए या दु:ख, दोनों परिस्थितियों में एकसमान रहता है ।
  7. क्षमाशील होना–दण्ड देने में सक्षम होने पर भी अपराधी को क्षमा कर दे ।
  8. हमेशा संतुष्ट रहना–भक्त किसी से कुछ चाहता नहीं अत: उसमें खिन्नता नहीं रहती है । निष्काम कर्म करता हुआ भगवत्प्रेम में मग्न वह सदैव संतुष्ट रहता है ।
  9. योगयुक्त होना–संसार की समस्त आसक्तियों को छोड़कर एकमात्र परमात्मा को ही अपना मान लेना और उनका ही होकर रहना योगयुक्त होना है ।
  10. यतात्मा यानी जिसका मन व इन्द्रियां वश में हों ।
  11. दृढ़ निश्चयी होना–जिसने भगवान को प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय कर लिया हो ।
  12. मन और बुद्धि को प्रभु के समर्पण कर देना–जब साधक का मन भगवान का हो जाता है, तब वह विकाररहित और पूर्ण निर्मल हो जाता है । अर्थात् ऐसी कोई वस्तु भक्त को प्रतीत नहीं होती जिसकी आवश्यकता भक्त को अपने लिए प्रतीत हो । इस अवस्था को ‘बेमन’ का हो जाना कहते हैं । भक्त की बुद्धि तब भगवान की हो जाती है जब उसमें किसी प्रकार की जिज्ञासा शेष नहीं रहती, अर्थात् कुछ भी जानने या समझने की इच्छा शेष नहीं रहती है ।
  13. जिनसे लोग घबरायें नहीं (उद्विग्न न हों) अर्थात् जो किसी भी प्राणी के जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता है ।
  14. जो लोगों से घबराये नहीं, अर्थात् किसी भी परिस्थिति में अपनी शान्ति भंग नहीं करता ।
  15. जो भय, मानसिक तनाव, हर्ष, अमर्ष, दूसरों की सफलता से ईर्ष्या और उद्वेग से मुक्त है ।
  16. अनपेक्ष अर्थात् किसी वस्तु की अपेक्षा न रखें, न किसी से आशा रखे ।
  17. जो मन बुद्धि, हृदय व इन्द्रियों की पवित्रता रखें, अर्थात् जिसका शरीर व इन्द्रियां स्वस्थ व मन व बुद्धि निर्मल हो ।
  18. सब प्रकार से दक्ष हो और सदैव सावधान रहता हो ।
  19. उदासीन हो, अर्थात् सदैव अपनी आत्मा में स्थित रहने वाला ।
  20. जो गतव्यथ हो, अर्थात् जो सभी प्रकार की व्यथाओं से ऊपर उठ गया हो ।
  21. सर्वारम्भ परित्यागी अर्थात् जो ‘मैं ही करने वाला हूँ’ ऐसी बुद्धि न रखने वाला हो ।
  22. जो प्रारब्धवश अनुकूल परिस्थिति आने पर हर्षित नहीं होता और विपरीत परिस्थिति से भागने का प्रयास न करे ।
  23. जिसकी शुभ में गुणबुद्धि और अशुभ में दोषबुद्धि समाप्त हो गयी है ।
  24. जो शत्रु और मित्र को समान समझे ।
  25. जो मान-अपमान को एक समान समझे ।
  26. सर्दी-गर्मी उसके लिए एक बराबर हैं ।
  27. सुख-दु:ख उसके लिए एक जैसे हैं ।
  28. संगवर्जित अर्थात् मन में और बाहर से भी संसार से कोई आसक्ति न रखे ।
  29. निन्दा-स्तुति में समान रहें,
  30. मौनी अर्थात् जो जितना आवश्यक हो उतना ही बोले,
  31. जैसे-तैसे भी खाते-पीते, सोते-जागते, पहनते-ओढ़ते सदैव तृप्त और संतुष्ट रहता है ।
  32. स्थिरमति अर्थात् जो शरीर से तो भ्रमणशील रहे पर उसकी बुद्धि सदैव स्थिर रहे ।
  33. जो श्रद्धावान हों–बस मुझे ही सब कुछ समझें ।

जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु ।।

ऐसे गुणों से युक्त भक्त मुझे प्रिय हैं । ऐसे ही भक्तों को दर्शन देने और उन पर कृपा करने के लिए भगवान पृथ्वी पर आते हैं । भगवान को आकर्षित करने वाला स्वभाव व्यक्ति को स्वयं अर्जित करना पड़ता है इसके लिए उसे अपना सारा जीवनक्रम ही बदल देना होगा । भगवान ने हमारा त्याग नहीं किया है बल्कि हम हीं उनसे विमुख होकर संसार में भटक रहे हैं । यदि हम उनको अपना मानकर कुछ-एक गुणों को भी जीवन में उतार लें तो हम उनके प्रिय भक्त बन सकते हैं ।

प्रिय भक्त की पहचान

भगवान के प्रिय व सच्चे भक्त ऊपर से तो नरम मालूम होते हैं क्योंकि उनमें असाधारण उदारता, दया और क्षमा होती है परन्तु उनमें असाधारण स्वाभिमान होता है किसी भी तरह से वे अपनी आत्मा को परास्त नहीं होने देते हैं ।

मर जाऊं मांगू नहीं, अपने तन के काज।
परमारथ के कारणे, मोहिं न आवे लाज।।

अपना हृदय, मन, शरीर और इच्छाएं ईश्वर को अर्पण कर देने से वे निर्भीक और असाधारण रूप से वीर  हो जाते हैं । न वे समाज से डरते हैं और न कानून से क्योंकि वे जानते हैं कि असली विजय तो इन्द्रियों को जीतने में है ।

भक्त का चेहरा ओज से भरा व नेत्र चमकदार होते हैं । वह सादगी पसन्द होता है उसे शरीर के श्रृंगार से नफरत होती है ।

जिस प्रकार ईश्वरभक्त होना कठिन है उसी प्रकार ईश्वरभक्त को जानना और समझना भी कठिन है । माता सीता यदि साधु के कपटवेश में रावण को पहचान लेतीं तो हरी न जातीं ।

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