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क्या है श्रीसत्यनारायण व्रतकथा का संदेश

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नमो भगवते नित्यं सत्यदेवाय धीमहि।
चतु:पदार्थदात्रे च नमस्तुभ्यं नमो नम:।।

अर्थात्—षडैश्वर्यरूप भगवान सत्यदेव को नमस्कार है, मैं आपका सदा ध्यान करता हूँ। आप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थों को देने वाले हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है।

ईश्वर का भावरूप विग्रह है सत्य

सनातन हिन्दू धर्म में किसी भी मांगलिक कार्य के आरम्भ में गणपतिपूजन व कार्य के पूरे होने पर भगवान सत्यनारायण का पूजन-कथाश्रवण करने की परम्परा है। सत्यनारायण का अर्थ है—‘सत्य’ अर्थात् भगवान ‘सर्वकारणकारण’ हैं इसलिए परमसत्य कहलाते हैं, ‘नार’ का अर्थ है पंचभूत और ‘अयन’ माने रहने वाले; इसलिए सत्यरूप में रहने वाले भगवान नारायण। सत्य को नारायण मानकर उसे अपने जीवन में उतारने का व्रत लेने वालों की कथा है ‘सत्यनारायण व्रतकथा’।

श्रीमद्भागवत में हैं सत्यरूप परमात्मा श्रीकृष्ण की स्तुति

कंस के कारागार में बन्द देवकी के गर्भ में जब भगवान ने प्रवेश किया तो भगवान शंकर तथा ब्रह्माजी के साथ समस्त देवता और नारदजी आदि कंस के कारागार में आए और देवकी के गर्भ की स्तुति की—

सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं
सत्यस्य योनिं निहितं च सत्ये।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं
सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना:।। (श्रीमद्भागवत (१०।२।२६)

अर्थात्—प्रभो! आप सत्यसंकल्प हैं। सत्य ही आपकी प्राप्ति का सबसे अच्छा साधन है। सृष्टि के पूर्व, प्रलय के पश्चात् और संसार की स्थिति के समय—इन तीनों अवस्थाओं में आप सत्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश—इन पांच दिखायी देने वाले सत्यों के आप ही कारण हैं और उनमें आप अन्तर्यामी रूप से विराजमान भी हैं। आप ही मधुर वाणी और समदर्शन (सबमें भगवान के दर्शन) के प्रवर्तक हैं। आप तो बस, सत्यस्वरूप ही हैं। हम सब आपकी शरण में आये हैं।

श्रीमद्भागवत के इस श्लोक को ‘भगवान की गर्भस्तुति’  कहा जाता है। इस स्तुति से स्पष्ट है कि ईश्वर सत्यस्वरूप है। भगवान के इसी सत्यस्वरूप से लोगों को परिचित कराने के लिए ही पुराणों में ‘सत्यनारायण व्रतकथा’ का उल्लेख हुआ है।

‘सत्यनारायण व्रतकथा’ का संदेश

‘सत्यनारायण व्रतकथा’ का संदेश है कि निष्काम या सकाम किसी भी तरह से सत्य की उपासना करने से मनुष्य को लौकिक सुखों के साथ सत्यरूप नारायण की प्राप्ति हो जाती है।

मनुष्य यदि अपने जीवन में सत्य को अपना ले तो उसके अंदर भगवदीय गुण विकसित होने लगते हैं। ऐसे व्यक्ति जो सत्य के आग्रह पर अडिग रहते हैं, भगवान उनकी रक्षा करते हैं, उन्हें कोई हानि नहीं पहुंचा सकता है। इसके विपरीत सत्य से दूर रहने वाला व्यक्ति तामसी स्वभाव का होकर पाप के रास्ते चल पड़ता है; फलस्वरूप जीवन भर क्लेशों से घिरा रहता है।

कलियुग में प्रत्यक्ष फल देते हैं भगवान सत्यनारायण

मृत्युलोक में प्राणियों के क्लेश और दु:ख देखकर देवर्षि नारद ने भगवान नारायण से इससे बचने का उपाय पूछा। भगवान ने बहुत ही सरल व सभी के द्वारा किया जा सकने वाला उपाय बताते हुए कहा—‘जैसे अन्धकार को भगाने के लिए प्रकाश ही एकमात्र उपाय है, उसी प्रकार क्लेशों से मुक्ति पाने के लिए भगवान सत्यनारायण का आश्रय ही अमोघ उपाय है।’

सत्यनारायणस्यैव व्रतं सम्यग् विधानत:।
कृत्वा सद्य: सुखं भुक्त्वा परत्र मोक्षमाप्नुयात्।।

अर्थात्—जैसे ही मनुष्य सत्य को अपने जीवन का अंग बनाता है वैसे ही सद्य: (तुरन्त) उसे सुख मिलना शुरु हो जाता है—इतना चमत्कारी है सत्यनारायण व्रत। व्रतकथा की फलश्रुति में बताया गया है कि व्यक्ति जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है, उसे वह सब प्राप्त हो जाती हैं; साथ ही सत्यलोक (वैकुण्ठ) की प्राप्ति के साथ ही अगले जन्मों में भी उत्तम योनि व शरीर प्राप्त हुए।

सत्यव्रत या ‘सत्यं परं धीमहि’

‘सत्यव्रत’ या अपने मन में सत्यरूप परमात्मा को धारण करने का अर्थ है—मन, वाणी और कर्म-आचरण में सत्य को धारण करना। हमारे सभी शुभ व अशुभ कर्मों का कारण मन है; अत: इस चंचल मन को विषयों से हटाकर परमात्मा में लगाएं। मन के शुद्ध होने से मनुष्य के अंदर अपने-आप दया, करुणा, परोपकार आदि सद्गुण आयेंगे और उसके सभी कार्य भगवान की प्रसन्नता के लिए होने लगेंगे। इस प्रकार सत्यव्रत के पालन से सत्यरूप भगवान की प्राप्ति सरलता से हो जाती है। इसीलिए विभिन्न उपनिषदों व पुराणों में मनुष्य के लिए सत्य की अनिवार्यता को बताते हुए कहा गया है—

—सत्यं वद (सत्य बोलो)।
—नास्ति सत्यात् परं तप: (सत्य बोलने के समान कोई तप नहीं है)।

दरिद्र ब्राह्मण, गरीब लकड़हारा, उल्कामुख और तुंगध्वज राजा, साधु वैश्य आदि जैसे सत्य को अपनाने से सुखी व सम्पन्न हो गए; वैसे ही हमें भी सत्य को अपनाने के लिए किसी दिन या मुहुर्त को देखने की आवश्यकता नहीं है। दृढ़ निश्चय व पूर्ण समर्पण से सत्य के रास्ते पर चलिए, सुख-समृद्धि, व शान्ति आपके जीवन में आने के लिए बेकरार रहेगी।

धरमु न दूसर सत्य समाना।
आगम निगम पुरान बखाना।। (मानस २।९५।५)

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सांवले सलोने सुंदर श्याम

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श्याम श्याम केहि बिधि भये कहो सखी यह बात।
मात तात गोरे सबै कारो कृष्णहि गात।।
बिछुरत को अति दुख लह्यो, सुरति करी बसुजाम।
राधा की विरहाग्नि में भयो श्याम जरि श्याम।। (रामरत्न अवस्थी)

अर्थात्—एक सखी दूसरी सखी से पूछती है कि श्यामसुन्दर श्यामवर्ण क्यों हैं जबकि उनके माता-पिता तो गोरे हैं। दूसरी सखी कहती है कि श्रीराधा से बिछुड़ने पर दिनरात उनकी याद कर दु:खी होते हैं, इसलिए विरहाग्नि में जलकर श्यामसुन्दर काले हो गए हैं।

नवीन मेघ के समान श्यामवर्ण होने से श्रीकृष्ण नीलमणि, सांवरा, श्यामसुन्दर, श्याम, सांवलिया सेठघनश्याम कहलाते हैं।

सांवले सलोने श्रीकृष्ण को देख यशोदाजी को हुआ आश्चर्य

सूतिकागृह में व्रजराजनन्दिनी यशोदा ने जब अपने बगल में लेटे शिशु को देखा तो वे सोचने लगीं—क्या यह बालक मणिमय है? इसके शरीर के अंग नीलमणि (नीलम) से, होंठ रक्तरागमणि (रूबी) से और नख अनार के दानों के समान रंग वाली हीरकमणि या पुखराजमणि से बने हैं। परन्तु यह तो संभव नहीं; क्योंकि मणि तो कठोर होती है; यह शिशु तो अत्यन्त मृदु और सुकुमार है। लगता है विधाता ने इसकी रचना पुष्पों से की है—मानो नीलकमल से इसके अंगों का, बन्धूकपुष्पों से इसके होंठों का, जपाकुसुमों से इसके हाथ व पैर के तलवों का और मल्लिकापुष्पों से इसके नखों का निर्माण हुआ है। इसी कारण वे श्रीकृष्ण को ‘नीलमणि’ कहकर बुलाती थीं।

गोरे नन्द जशोदा गोरी, तू कत स्यामल गात

इन्द्रदेव के कोप से व्रजवासियों और गौओं की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण ने जब सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठिका ऊंगली पर उठाया तो सभी लोगों को प्रसन्नता हुई कि कन्हैया कि वजह से व्रज, व्रजवासियों और गौओं की रक्षा हुई; लेकिन अनेक लोगों को शंका होने लगी कि ’क्या यह नन्दजी का लाला है या कोई बड़ा देव है?’

व्रजवासी नन्दमहल के आंगन में एकत्र हो गए। एक ने कहा—‘यह नन्दबाबा का पुत्र नहीं है।’ दूसरा बोला—‘तुझे यह बात अब समझ में आई है, मुझे तो इसके जन्म से ही यही शंका है। नन्दबाबा गोरे हैं, नन्दरानी यशोदा गोरी हैं, पर कन्हैया काला क्यों है? क्या नन्दबाबा किसी दूसरे का लड़का ले आए हैं?’

सभी ने नन्दरायजी से आग्रह किया—‘महाराज! आप सच-सच बताइए, क्या यह कन्हैया आपका लड़का है? नन्दबाबा ने हाथ जोड़कर कहा—‘मैं अपनी गायों की शपथ खाकर कहता हूँ कि कन्हैया मेरा पुत्र है।’ श्रीकृष्ण उस समय यशोदाजी की गोद में खेल रहे थे। जब व्रजवासियों की बात यशोदाजी ने सुनी तो उन्होंने विनोद में श्रीकृष्ण से पूछा—‘बेटा! तू किसका पुत्र है?’ श्रीकृष्ण मचलते हुए बोले—‘मैं तेरा बेटा हूँ और तू मेरी मां है।’ माता ने कन्हैया को पुचकारते हुए कहा—‘बेटा! ये सब संदेह कर रहे हैं कि मैं और नन्दबाबा गोरे हैं, फिर तू काला कैसे हो गया?’

श्रीकृष्ण ने कहा—‘मां! इसमें तेरा दोष है। मेरा जन्म अंधियारी रात्रि को बारह बजे हुआ। मैं तुझे जगाने लगा, किन्तु तू जगी नहीं। इसलिए मैं सवेरे तक अन्धकार में लोटता रहा। अन्धकार मुझसे लिपट गया; इसलिए मैं काला हो गया।’

सूरदासजी ने श्रीकृष्ण के बालसुलभ मन में उठने वाली इसी शंका को बड़ी बारीकी के साथ चित्रित किया है—

मैया मोहै दाऊ बहुत खिझायो।
मोसौ कहत मोल को लीनों, तू जसुमति कब जायौ?
कहा करौ इहि रिसि के मारे, खेलन हौं नहिं जात।
पुनि-पुनि कहत कौन हौ माता, को हौ तेरौ तात।
गोरे नन्द जशोदा गोरी, तू कत स्यामल गात।।

सूरदासजी का यह अत्यन्त लोकप्रिय पद है। बड़े भाई बलदाऊ गौरवर्ण थे। वे श्रीकृष्ण के श्याम रंग पर यदा-कदा उन्हें चिढ़ाया करते थे। एक दिन कन्हैया मैया से बलदाऊ की शिकायत करते हुए कहने लगे—मैया, दाऊ मुझे ग्वालबालों के सामने बहुत चिढ़ाता है। वह मुझसे कहता है कि यशोदा मैया ने तुझे मोल लिया है। तेरे माता-पिता कौन हैं? क्योंकि नंदबाबा तो गोरे हैं और मैया यशोदा भी गौरवर्णा हैं, लेकिन तू सांवले रंग का कैसे है? यदि तू उनका पुत्र होता तो तुझे भी गोरा होना चाहिए। जब दाऊ ऐसा कहता है तो ग्वाल-बाल चुटकी बजाकर मेरा उपहास करते हैं, मुझे नचाते हैं और मुस्कराते हैं। क्या करूं मैया! इसी कारण मैं खेलने भी नहीं जाता। इस पर भी तू मुझे ही मारने को दौड़ती है। दाऊ को कभी कुछ नहीं कहती। श्रीकृष्ण की रोष भरी बातें सुनकर माता यशोदा कन्हैया को समझाकर कहती हैं कि वह बलदाऊ तो बचपन से ही चुगलखोर और धूर्त है। जब श्रीकृष्ण मैया की बातें सुनकर भी नहीं माने तब यशोदाजी बोलीं—‘कन्हैया मैं गौओं की सौगंध खाकर कहती हूँ कि तू मेरा ही पुत्र है और मैं तेरी मैया हूँ।’

श्रीकृष्ण का रंग सांवला क्यों हैं—जैसे भाव वैसा स्पष्टीकरण

श्यामसुन्दर के श्यामरंग से सम्बन्धित विभिन्न भाव इस प्रकार हैं—

—एक बार निकुंजलीला में श्रीराधाजी ने कहा—‘श्यामसुन्दर आप सुन्दर तो हैं किन्तु काले क्यों हैं?’ श्रीकृष्ण ने कहा—‘राधे मैं तो तेरी शोभा बढ़ाने के लिए ही काला होकर आया हूँ।’

—गोपियां सब जगह श्रीकृष्ण का दर्शन करतीं है, उनके नेत्रों और हृदय में श्रीकृष्ण ही बसे हैं।

सांवलिया मन भाया रे।
सोहिनी सूरत मोहिनी मूरत, हिरदै बीच समाया रे।।
देस में ढूंढ़ा, विदेस में ढूंढ़ा, अंत को अंत न पाया रे।। (यकरंगजी)

दिन-रात श्रीकृष्ण-चर्चा में लगी हुई गोपियों में से एक दिन एक गोपी ने पूछा—‘नन्दबाबा गोरे, यशोदाजी गोरी, दाऊजी गोरे, घर भर में सभी गोरे हैं, पर हमारे श्यामसुन्दर ही सांवरे कैसे हो गए?’ इस पर दूसरी गोपी ने उत्तर दिया—‘बहिन! क्या तू इतना भी नहीं जानती, सुन—

कजरारी अँखियन में बस्यो रहत दिन रात।
पीतम प्यारो है सखी, तातें सांवर गात।। (नागरीदास)

कितना अद्भुत श्रीकृष्णप्रेम है गोपी का। गोपी की कजरारी आँखों में केवल श्रीकृष्ण ही बसते हैं, जगत में उसकी आँखें किसी और को देखती ही नहीं। इसलिए गोपियों की आँखों में लगे काजल से उनके प्रीतम स्यामसुन्दर सांवले हो गए हैं।

—भगवान श्रीकृष्ण जब कौरवों और पांडवों में संधि कराने के लिए हस्तिनापुर गए तो दुर्योधन श्रीकृष्ण का अपमान करने के लिए पूछता है—‘तुम नंद-यशोदा के पुत्र हो फिर काले क्यों हो?’ श्रीकृष्ण ने कहा—‘कालोऽस्मि लोकक्षयकृतप्रवृत्त: अर्थात् ‘मैं गोरा था किन्तु तेरा काल होने के कारण काला होकर आया हूँ।’

—ज्ञानेश्वरजी ने अपने गीता भाष्य में लिखा है कि दूर से तो श्रीकृष्ण का श्रीअंग भक्तों को श्याम लगता है किन्तु समीप जाने पर मालूम पड़ता है कि वह अत्यन्त प्रकाशमय है।

—एकनाथजी का मत है कि लोभ का रंग पीला है, क्रोध का रंग लाल है, काम का रंग काला है। मनुष्य के हृदय में काम रहता है इसलिए कलेजा काला होता है। जो श्रीकृष्ण का ध्यान करता है, प्रेम से श्रीकृष्ण की सेवा करता है उसका हृदय धीरे-धीरे उजला हो जाता है। भगवान उसके हृदय के कालेपन को खींच लेते हैं और अपने श्रीअंग में रखते हैं; इसलिए वे ‘स्यामल गात’ हैं।

यह सांवरा रंग ऐसा है कि इसमें डूबते चले जाओ तो मन उज्जवल होता चला जाता है। संसार और इसके भोग बहुत सुन्दर और उज्जवल दीखते है पर इसमें डूबते ही हृदय मलिन, काला हो जाता है।

बलिहारी वा प्रेम की गति नही समझे कोय।
ज्यों-ज्यों डूबै स्याम रंग त्यों-त्यों उज्जवल होय।।

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सूर्य की संक्रान्ति है महाफलदायी

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संक्रान्ति का अर्थ

सूर्य जिस राशि पर स्थित हो, उसे छोड़कर जब दूसरी राशि में प्रवेश करे, उस समय का नाम संक्रान्ति है। सूर्य बारह स्वरूप धारण करके बारह महीनों में बारह राशियों में संक्रमण करते रहते हैं; उनके संक्रमण से ही संक्रान्ति होती है। इस तरह वर्ष में बारह संक्रान्ति होती हैं किन्तु सबसे ज्यादा महत्व मकर-संक्रान्ति का है।

मकर-संक्रान्ति है देवताओं का प्रभातकाल

सूर्य का मकर राशि में प्रवेश करना ‘मकर-संक्रान्ति’ कहलाता है। इस दिन सूर्य अपनी कक्षाओं में परिवर्तन कर दक्षिणायन से उत्तरायण हो जाते हैं। उत्तरायण को ‘देवताओं का दिन’ व दक्षिणायन को ‘देवताओं की रात’ कहा गया है। इस तरह मकर-संक्रान्ति देवताओं का प्रभातकाल है। इसको अंधकार से प्रकाश की ओर हुआ परिवर्तन माना जाता है। मकर-संक्रान्ति से दिन बढ़ने लगता है और रात छोटी होने लगती है। इससे प्रकाश अधिक व अंधकार कम होने लगता है फलस्वरूप प्राणियों की चेतनता और कार्यक्षमता में वृद्धि होने लगती है। मकर-संक्रान्ति प्राय: १४ जनवरी को मनाई जाती है।

मकर-संक्रान्ति पर गंगास्नान का महत्त्व

माघ मकरगत रबि जब होई।
तीरथपतिहिं आव सब कोई।। (राचमा १।४४।३)

ऐसा माना जाता है कि मकर-संक्रान्ति के दिन गंगा-यमुना-सरस्वती के संगम पर प्रयाग में सभी देवी-देवता अपना स्वरूप बदलकर स्नान के लिए आते हैं; इसलिए मकर-संक्रान्ति के दिन गंगास्नान या नदियों में स्नान को अत्यन्त पुण्यदायी माना गया है।

मकर-संक्रान्ति के दिन दान का फल अक्षय होता है

मकर संक्रान्ति में किए गए स्नान, तर्पण, दान और पूजन का फल अक्षय होता है। इससे मनुष्य सभी प्रकार के भोगों के साथ मोक्ष को प्राप्त होता है।

उत्तरप्रदेश में इस पर्व को ‘खिचड़ी’ कहते हैं। इस दिन खिचड़ी खाना व खिचड़ी, तिल, घी, कम्बल, ऊनी वस्त्र के दान देने का विशेष महत्त्व है। शीतकाल में रुईदार वस्त्र (ऊनी वस्त्र) दान करने से शरीर में कभी दु:ख नहीं होता है। मकर-संक्रान्ति को किसी भी वस्तु का चौदह की संख्या में संकल्प कर चौदह ब्राह्मणों को दान देने की परम्परा है।

दक्षिण भारत में यह ‘पोंगल, और असम में ‘बिहू’ के रूप में मनाया जाता है। पंजाब और जम्मू-कश्मीर में मकर-संक्रान्तिपर्व ‘लोहिड़ी’ के नाम से मनाया जाता है।

एक लोक कथा है कि मकर-संक्रान्ति के दिन कंस ने श्रीकृष्ण को मारने के लिए लोहिता नामकी राक्षसी को गोकुल भेजा था पर श्रीकृष्ण ने उसे खेल-खेल में ही मार डाला। इसी संदर्भ में लोहिड़ी का पर्व मनाया जाता है। साथ ही नयी फसल का चावल, दाल, तिल आदि से पूजा करके कृषिदेवता के प्रति आभार प्रकट किया जाता है।

संक्रान्तिकाल में ऐसे करें भगवान सूर्य का पूजन

संक्रान्ति के दिन प्रात:स्नान करके स्नान-दान-जप-होम आदि से पहले इस प्रकार संकल्प कर लें—

‘मम ज्ञाताज्ञात समस्त पातकोपपातक दुरित क्षयपूर्वक श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त पुण्यफल प्राप्तये श्रीसूर्यनारायण प्रीतये स्नानदानजपहोमादि कर्माहं करिष्ये।’

अर्थात्—मैं अपने जाने-अनजाने सभी पापों के नाश के लिए, श्रुति-स्मृति और पुराणों का पुण्यफल प्राप्त करने और भगवान सूर्य की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए स्नान-दान-जप-होम आदि कार्य करुंगा।

इसके बाद सूर्यनारायण का पूजन कर व्रत करने से सब प्रकार के पापों का नाश, आधि-व्याधि का नाश व सब प्रकार की हीनता और संकोच का अंत हो जाता है, साथ ही सुख-संपत्ति, संतान व सहानुभूति की प्राप्ति होती है।

संक्रान्तिकाल में ‘ॐ सूर्याय नम:’ या ‘ॐ नमो भगवते सूर्याय’ का जप और आदित्यहृदयस्तोत्र का पाठ करना चाहिए। घी, बूरा व मेवा मिले तिलों से हवन कर अन्न-वस्त्र का दान देना चाहिए। संक्रान्ति को रात्रि में स्नान व दान नहीं करना चाहिए।

धन की प्राप्ति के लिए धनसंक्रान्ति व्रत

संक्रान्ति के दिन एक कलश में जल भरकर सर्वोषधि डाल दें, साथ में फल व दक्षिणा रखकर रोली चावल से कलश का पूजन करें। सूर्यभगवान को अर्घ्य अर्पित कर एक समय भोजन करें। कलश ब्राह्मण को दे दें। एक वर्ष तक इस तरह हर संक्रान्ति को व्रत व पूजन करने से मनुष्य को कभी धन की कमी नहीं रहती है।

भोगों की प्राप्ति के लिए भोगसंक्रान्ति व्रत

संक्रान्ति के दिन ब्राह्मण-दम्पत्ति को बुलाकर भोजन कराएं व श्रृंगार सामग्री, पान, पुष्पमाला, फल व दक्षिणा देने से मनुष्य को मनचाहे भोगों की प्राप्ति होती है।

रूप की प्राप्ति के लिए रूपसंक्रान्ति व्रत

रूप-सौन्दर्य की इच्छा रखने वाले मनुष्य को संक्रान्ति के दिन तेलमालिश के बाद स्नान करना चाहिए। फिर एक पात्र में घी व सोना रखकर उसमें अपनी छाया देखकर ब्राह्मण को दान दें व व्रत करें तो रूपसौन्दर्य की वृद्धि होती है।

तेज की प्राप्ति के लिए तेजसंक्रान्ति व्रत

संक्रान्ति के समय एक कलश में चावल भरकर उस पर घी का दीपक रखें। उसके समीप में मोदक रखकर गंध-पुष्प से पूजन कर यह बोलते हुए जल छोड़ दें कि मैं अपने पापों के नाश के लिए व तेज की प्राप्ति के लिए इस पूर्णपात्र का ब्राह्मण को दान करता हूँ। ऐसा करने से मनुष्य के तेज में वृद्धि होती है।

आयु की प्राप्ति के लिए आयुसंक्रान्ति व्रत

संक्रान्ति के समय एक कांसे की थाली में घी, दूध व सोना रखकर रोली चावल से पूजन कर ब्राह्मण को दान दें तो तेज, आयु और आरोग्य की वृद्धि होती है।

भगवान सूर्य का संक्रान्तिकाल है परम फलदायी

—धन, मिथुन, मीन और कन्या राशि की संक्रान्ति को षडरीति कहते हैं। इस संक्रान्ति में किए गए पुण्यकर्मों  का फल हजारगुना होता है।

—वृष, वृश्चिक, कुम्भ और सिंह राशि पर जो सूर्य की संक्रान्ति होती है, उसका नाम विष्णुपदी है। इस संक्रान्ति में किए गए पुण्यकर्मों  का फल लाखगुना होता है।

—तुला और मेष राशि पर जो सूर्य की संक्रान्ति होती है, उसका नाम विषुवती है। इसमें दिए गए दान का फल अनन्तगुना होता है।

—उत्तरायण और दक्षिणायन आरम्भ होने के दिन किए गए सत्कर्मों का कोटिगुना अधिक फल प्राप्त होता है।

वर्षभर की बारह संक्रान्ति में दिए जाने वाले दान

१. मेष संक्रान्ति में मेढ़ा (नर भेड़) का दान
२. वृष संक्रान्ति में गौ का दान
३. मिथुन संक्रान्ति में अन्न-वस्त्र और दूध-दही का दान
४. कर्क संक्रान्ति में गाय
५. सिंह संक्रान्ति में सोना, छाता आदि
६. कन्या संक्रान्ति में वस्त्र और गाय
७. तुला संक्रान्ति में जौ, गेहूं, चना आदि धान्य
८. वृश्चिक संक्रान्ति में मकान, झौंपड़ी आदि
९. धनु संक्रान्ति में वस्त्र और सवारी
१०. मकर संक्रान्ति में लकड़ी, घी, ऊनी वस्त्र
११. कुम्भ में गायों के लिए घास और जल
१२. मीन में सुगन्धित तेल और पुष्प का दान करना चाहिए।

इस प्रकार संक्रान्ति के अवसर पर जो कुछ दान किया जाता है, भगवान सूर्यनारायण उसे जन्म-जन्मान्तर तक प्रदान कर सब प्रकार की मनोकामनाएं पूरी करते हैं।

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तीर्थयात्रा का फल

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‘जिसके हाथ सेवाकार्य में लगे हैं, पैर भगवान के स्थानों में जाते है, जिसका मन भगवान के चिन्तन में संलग्न रहता है, जो कष्ट सहकर भी अपने धर्म का पालन करता है, जिसकी भगवान के कृपापात्र के रूप में कीर्ति है, वही तीर्थ के फल को प्राप्त करता है।’ (स्कन्दपुराण)

शास्त्रों ने मनुष्य को अपने कल्याण के लिए तीर्थों में जाकर स्नान करने, सत्संग करने, दान करने, धार्मिक अनुष्ठान करने व पवित्र वातावरण में रहने की आज्ञा दी है। तरति पापादिकं यस्मात्’ अर्थात् जिसके द्वारा मनुष्य पाप से मुक्त हो जाए, उसे ‘तीर्थ’ कहते हैं। जैसे शरीर के कुछ भाग अत्यन्त पवित्र माने जाते हैं, वैसे ही पृथ्वी के कुछ स्थान अत्यन्त पुण्यमय माने जाते हैं। कहीं-कहीं पर पृथ्वी के अद्भुत प्रभाव से, कहीं पर पवित्र नदियों के होने से, कहीं पर ऋषि-मुनियों की तपोभूमि होने से व कहीं पर भगवान के अवतारों की लीलाभूमि होने से, वे स्थान पुण्यप्रद होकर तीर्थस्थान बन जाते हैं।

तीर्थयात्रा या तीर्थस्नान से नहीं, मन की शुद्धि से मिलता है पुण्य

महाभारत में हुए नरसंहार से दु:खी और पापबोध से त्रस्त पांडव तीर्थयात्रा पर निकले। सबसे पहले वे महर्षि व्यास का आशीर्वाद लेने उनके आश्रम पर गए। व्यासजी ने खुश होते हुए उन्हें सफलता का आशीर्वाद दिया, साथ ही अपना तूंबा थमाते हुए बोले कि तुम लोग जिस भी तीर्थ में जाओ, इस तूंबे को भी तीर्थस्नान कराना और जिस देवालय का दर्शन करो, इसको भी दर्शन कराना। जब तीर्थयात्रा से वापस लौटो तो तूंबा मुझे वापस कर देना। पांडवों ने ऐसा ही किया। वे वर्षों तक तीर्थयात्रा करते रहे और लौटने पर व्यासजी के आश्रम में जाकर तूंबा लौटा दिया। व्यासजी ने पांडवों को देखा तो प्रसन्न हुए और तूंबे को तोड़ा और उसका एक-एक टुकड़ा पांडवों को खाने के लिए दिया।

व्यासजी ने पांडवों से कहा–‘इतने तीर्थों मे स्नान से ये तूंबा विशिष्ट स्वाद वाला बन गया होगा।’ तूंबा पुराना था और कड़वा भी। पांडवों ने उसे चखा तो वह उनके जीभ व स्वाद को अप्रिय लगा और उनके गले के नीचे से नहीं उतरा। वे तूंबे के टुकड़े को इधर-उधर थूकने लगे। तब व्यासजी ने उन्हें समझाया–‘तूंबे की तरह शरीर को तीर्थयात्रा कराने भर से लाभ नहीं मिलता। परिवर्तन स्थान का नहीं मन का होना चाहिए। पाप के बदले पुण्यकर्म करने की योजना बनाओ। इसी से खेद और ग्लानि मिटेगी।’ (स्वामी अखण्डानन्द सरस्वतीजी के प्रवचनों पर आधारित)

किसे मिलता है तीर्थ का फल

जिसके दोनों हाथ, पैर और मन काबू में हैं अर्थात् हाथ सेवाकार्य में लगे हैं, पैर भगवान के स्थान में जाते है और मन भगवान में लगा है, जो शास्त्रों-पुराणों का अध्ययन करता है, हर प्रकार से संतुष्ट रहने वाला, द्वन्द्वों में सम रहने वाला, अहंकाररहित, कम खाने वाला, अक्रोधी, श्रद्धावान व शुद्धकर्म करने वाला है, वही तीर्थ के फल का भागी होता है। निर्मल मन वाले के लिए सब जगह तीर्थ के समान हैं।

किसे नहीं मिलता तीर्थ का फल

अश्रद्धावान, पापी, नास्तिक, शंकालु व हर बात में तर्क करने वाला तीर्थ के फल का भागी नहीं होता है।

तीरथ मात-पिता घर में है।
व्यर्थहि क्यौं जग में भरमै है।।
उत्तम क्यौं न करै करमै है।
काहे कों तू जात बाहर में है।।

जिस पुत्र के घर से चले जाने पर बूढ़े मातापिता को कष्ट हो, शिष्य के तीर्थयात्रा पर जाने से गुरु को पीड़ा हो, पति के तीर्थयात्रा पर जाने से पत्नी को कष्ट हो या पत्नी के जाने से पति को कष्ट हो, उनको तीर्थयात्रा का फल नहीं मिलता।

जो लोग ‘तीर्थ-काक’ होते हैं अर्थात् तीर्थों में जाकर भी कौवे की तरह इधर-उधर कुदृष्टि डालते हैं, उनके पाप अमिट (वज्रलेप) हो जाते हैं फिर वे सहजता से नहीं मिटते। उन्हें भी तीर्थ का फल नहीं मिलता।

मन की शुद्धि सब तीर्थस्थानों की यात्रा से श्रेष्ठ है

मन की शुद्धि सब तीर्थस्थानों की यात्रा से श्रेष्ठ मानी गयी है। तीर्थ में शरीर से जल की डुबकी लगा लेना ही तीर्थस्नान नहीं कहलाता। जिसने मन और इन्द्रियों के संयम में स्नान किया है, मन का मैल धोया है; वही वास्तव में तीर्थस्नान का फल पाता है। जलचर जीव गंगा आदि पवित्र नदियों के जल में ही जन्म लेते हैं और उसी में मर जाते हैं; पक्षीगण देवमन्दिरों में रहते हैं; किन्तु इससे वे स्वर्ग में नहीं जाते, क्योंकि उनके मन की मैल नहीं धुलती। जिस प्रकार शराब की बोतल को सैंकड़ों बार जल से धोया जाए तो भी वह पवित्र नहीं होती उसी तरह दूषित मन वाला चाहे जितना तीर्थस्नान कर ले, वह शुद्ध नहीं हो सकता।

जो लोभी, चुगलखोर, क्रूर, दम्भी और विषय वासनाओं में फंसे हैं, वह तीर्थों में स्नान करके भी पापी और मलिन ही रहते हैं। केवल शरीर की मैल छुड़ाने से मनुष्य निर्मल नहीं होता, मन की मैल धुलने पर ही मनुष्य निर्मल और पुण्यात्मा होता है।

मानसिक मल या मन की मैल

जब मन विषयों में आसक्त रहता है तो उसे मानसिक मल कहते हैं। जब संसार की मोहमाया व विषयों से वैराग्य हो जाए तो उसे मन की निर्मलता कहते हैं।

मानसिक तीर्थ

सत्यं तीर्थं क्षमा तीर्थं  तीर्थमिन्द्रियनिग्रह:।।
सर्वभूतदया तीर्थं तीर्थमार्जवमेव च।
दान तीर्थं दमस्तीर्थं संतोषस्तीर्थमेव च।।
ब्रह्मचर्यं परं तीर्थं नियमस्तीर्थमुच्यते।
मन्त्राणां तु जपस्तीर्थं तीर्थं तु प्रियवादिता।।
ज्ञानं तीर्थं धृतिस्तीर्थमहिंसा तीर्थमेव च।
आत्मतीर्थं ध्यानतीर्थं पुनस्तीर्थं शिवस्मृति:।।

अर्थात्—सत्य तीर्थ है, क्षमा तीर्थ है, इन्द्रियनिग्रह तीर्थ है, सभी प्राणियों पर दया करना, सरलता, दान, मनोनिग्रह, संतोष, ब्रह्मचर्य, नियम, मन्त्रजप, मीठा बोलना, ज्ञान, धैर्य, अहिंसा, आत्मा में स्थित रहना, भगवान का ध्यान और भगवान शिव का स्मरण—ये सभी मानसिक तीर्थ कहलाते हैं।

शरीर और मन की शुद्धि, यज्ञ, तपस्या और शास्त्रों का ज्ञान ये सब-के-सब तीर्थ ही हैं। जिस मनुष्य ने अपने मन और इन्द्रियों को वश में कर लिया, वह जहां भी रहेगा, वही स्थान उसके लिए नैमिष्यारण, कुरुक्षेत्र, पुष्कर आदि तीर्थ बन जाएंगे।

अत: मनुष्य को ज्ञान की गंगा से अपने को पवित्र रखना चाहिए, ध्यान रूपी जल से राग-द्वेष रूपी मल को धो देना चाहिए और यदि वह सत्य, क्षमा, दया, दान, संतोष आदि मानस तीर्थों का सहारा ले ले तो जन्म-जन्मान्तर के पाप धुलकर परम गति को प्राप्त कर सकता है।

‘भगवान के प्रिय भक्त स्वयं ही तीर्थरूप होते हैं। उनके हृदय में भगवान के विराजमान होने से वे जहां भी विचरण करते हैं; वही महातीर्थ बन जाता है।’

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सुदर्शनचक्र अवतार भगवान श्रीनिम्बार्काचार्यजी

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श्रीराधा रासेश्वरी मोहन मदनगुपाल।
अलबेले उर में रहैं ब्रजबल्लभ दोउ लाल।।

कलियुग के चार सम्प्रदाय और उनके आचार्य

भगवान श्रीहरि कभी स्वयं तो कभी अपने दिव्य पार्षदों के द्वारा भूलोक के अज्ञान-अंधकार को दूर करते हैं, असुरों का नाश करते व सनातन वैष्णव धर्म को सुदृढ़ करते हैं। जिस प्रकार सतयुग, त्रेता और द्वापरयुग में भगवान के चौबीस अवतार हुए, उसी प्रकार कलियुग में चार सम्प्रदाय—श्रीसम्प्रदाय, रुद्रसम्प्रदाय, ब्रह्मसम्प्रदाय और सनकादिक सम्प्रदाय प्रकट हुए। इन चार सम्प्रदायों के आचार्य हैं—श्रीसम्प्रदाय के दक्षिण भारत में श्रीरामानुचार्य एवं उत्तर भारत में श्रीरामानन्दाचार्य, रुद्रसम्प्रदाय के श्रीविष्णुस्वामीजी, ब्रह्मसम्प्रदाय के श्रीमध्वाचार्यजी और सनकादिकसम्प्रदाय के श्रीनिम्बार्काचार्यजी।

भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से चक्रराज सुदर्शन का पृथ्वी पर अवतार धारण करना

सर्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के गोलोकगमन के पश्चात् कलिकाल तेजी से बढ़ने लगा। भागवतधर्म और सनातन वैदिक परम्पराओं के ह्रास से चारों ओर अशान्ति छा गयी। तब भगवान श्रीहरि ने अपने करारविन्द में सुशोभित प्रिय आयुध एवं पार्षद चक्रराज श्रीसुदर्शन को आज्ञा दी—

सुदर्शन महाबाहो कोटिसूर्यसमप्रभ।
अज्ञानतिमिरान्धानां विष्णो मार्गं प्रदर्शय।।

अर्थात्—करोड़ों सूर्य के समान दिव्य प्रभा वाले महाबाहो सुदर्शन! आप आचार्यरूप से इस पृथ्वी पर अवतरित होकर अज्ञानरूपी अंधकार से अंधे हुए (अपने कर्तव्य को भूले हुए) मानवों को विष्णुमार्ग से (वैष्णव पद्धति से) गोलोक, वैकुण्ठ आदि धाम जाने का सरल मार्ग दिखाइए।

सनकादि सम्प्रदाय के सूर्य श्रीनिम्बार्काचार्यजी

वे ही चक्रराज सुदर्शन भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से द्वापर के अंत में तेजराशि के रूप में पृथ्वी पर वैष्ष्णव परम्परा को कमजोर होने से बचाने के लिए दक्षिण भारत के गोदावरीतट पर वैदूर्यपत्तन (मूंगी-पैठण, दक्षिणकाशी) ग्राम में कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को महर्षि अरुण के आश्रम में माता जयन्ती के गर्भ से अवतरित हुए। बालक का नाम नियमानन्द रखा गया। इनके उपनयन संस्कार के समय स्वयं देवर्षि नारद ने इन्हें गोपाल-मन्त्र की दीक्षा दी एवं सनकादि द्वारा पूजित श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा प्रदान की।

 

सनकादि सम्प्रदाय

नियमानन्दजी के गुरु नारद और नारद के गुरु सनकादि होने से इनका सम्प्रदाय ‘सनकादि सम्प्रदाय या द्वैताद्वैत मत’ के नाम से प्रसिद्ध है। भगवान नारायण ने हंसस्वरूप से ब्रह्माजी के पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार को इसका उपदेश किया। सनकादि कुमारों ने इसे नारदजी को दिया और नारदजी ने इसका उपदेश श्रीनिम्बार्काचार्यजी को किया। अत: यह मत बहुत प्राचीनकाल से चला आ रहा है। श्रीनिम्बार्काचार्यजी ने इस मत को लोक में प्रचलित किया।

भगवान श्रीकृष्ण स्वयं सूर्य रूप में प्रकट हुए

एक बार व्रज के कुछ संत अरुणाश्रम पहुंचे और व्रज-वृन्दावन की महिमा सुनाने लगे, जिसे सुनकर श्रीनियमानन्दजी को भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा का स्मरण हो आया। उन्हें अपने प्रभु की जन्मभूमि और लीलाभूमि के दर्शनों की तीव्र इच्छा जाग्रत हुई। वे अपने माता-पिता सहित व्रज में पधारे और श्रीगिरिगोवर्धन के समीप ध्रुवक्षेत्र को अपनी तपस्थली बनाया। यहां निम्बवृक्षों (नीम के पेड़) की अधिकता होने से इस स्थान को निम्बग्राम के रूप में जाना जाता है।

जो स्वयं अगाध भगवत्प्रेम में डूबा होगा वही सांसारिक प्राणियों को भगवत्प्रेम प्रदान कर सकता है। सुदर्शनचक्रावतार श्रीनियमानन्दजी के व्रज पहुंचने पर व्रजवासियों के हृदय में असीम प्रेमभाव उमड़ पड़ा।

एक दिन पास ही के स्थान से एक दण्डी महात्मा (श्रीब्रह्माजी ही साधु रूप में) इनके आश्रम पर आए। दोनों महापुरुषों में शास्त्रचर्चा चली तो समय का किसी को भी ध्यान नहीं रहा। सूर्यास्त होने पर जब आचार्यजी ने दण्डी साधु को भोजन करने के लिए कहा तो उन्होंने सूर्यास्त होने के कारण भोजन ग्रहण करने से मना कर दिया। आचार्यजी नहीं चाहते थे कि उनके यहां से कोई अतिथि भूखा लौट जाए इसलिए उनके मन में बड़ी पीड़ा हुई।

भक्तों के भयहारी भगवान ने रची लीला

आश्रम के पास ही एक नीम का वृक्ष था। अचानक उस वृक्ष के चारों ओर प्रकाश फैल गया, जैसे सूर्यनारायण प्रकट हो गए हों। आचार्य नियमानन्द ने अपने दिव्य प्रभाव से निम्बवृक्ष में दण्डी साधु को अर्कबिम्ब (सूर्यमण्डल) का दर्शन कराया। अतिथि साधु और वहां उपस्थित सभी लोग भगवान की इस अपार करुणा का दर्शन करके गद्गद हो गये। कोई नहीं जानता था कि उनके सामने उनके आराध्य भगवान श्रीकृष्ण ही सूर्यदेव के रूप में साक्षात प्रकट हो गये थे या भगवान का करोड़ों सूर्यों की प्रभा के समान सुदर्शनचक्र ही साक्षात प्रकट हो गया था। लोगों को लगा कि आचार्य के योगबल से भगवान सूर्य वहां प्रकट हो गए हैं।

सूर्यावतार भगवान श्रीनिम्बार्काचार्यजी

चारों ओर सूर्य का प्रकाश देखकर आचार्य ने पुलकित हृदय से दण्डी साधु को भगवत्प्रसाद अर्पित किया और इसके बाद सूर्यभगवान अस्त हो गए। यह देखकर दण्डी साधु को विश्वास हो गया कि ये ही सुदर्शनचक्रावतार हैं। दण्डी साधु भी अपने वास्तविक स्वरूप ब्रह्मा के रूप में प्रकट हो गए। इसी से ब्रह्मदेव ने इन्हें ‘निम्बादित्य’ (निम्ब + आदित्य) या ‘निम्बार्क’ (निम्ब + अर्क) नाम से सम्बोधित किया। निम्ब नीम को और आदित्य व अर्क सूर्य को कहते हैं। तभी से इनका ‘श्रीनिम्बार्काचार्य’ नाम प्रसिद्ध हो गया। इन्हें सूर्यावतार भी कहते हैं।

वैष्णवों के चार प्रमुख सम्प्रदायों में से एक है द्वैताद्वैत या निम्बार्क सम्प्रदाय

इनके सम्प्रदाय को ‘निम्बार्क सम्प्रदाय’ कहते हैं। ‘निम्बार्क सम्प्रदाय’ में परब्रह्म वृन्दावनबिहारी युगलकिशोर श्रीराधाकृष्ण की पूजा होती है। यही पूजा पद्धति सनकादि मुनियों ने श्रीनारदजी को बताई थी।

स्वभावतोऽपास्त समस्तदोषमशेषकल्याण गुणैकराशिम्।
व्यूहांगिनं ब्रह्म परं वरेण्यं ध्यायेम कृष्णं कमलेक्षणं हरिम्।।
अंगे तु वामे वृषभानुजां मुदा विराजमाना मनुरूप सौभगाम्।
सखी सहस्त्रै: परिसेवितां सदा स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम्।। (वेदान्तकामधेनु, श्लोक ४-५)

अर्थात्—जो स्वभाव से ही समस्त दोषों से निर्लिप्त हैं, समस्त दिव्य गुणों के समुद्र हैं, व्यूहों के अंगी हैं, जिनके नेत्र कमल के समान हैं, उन सभी पापों को हरने वाले परब्रह्म श्रीकृष्ण का हम ध्यान करते हैं। साथ ही उन भगवान श्रीकृष्ण के समान ही गुण और रूप वाली, उनके वामभाग में विराजमान, सहस्त्रों सखियों द्वारा सदा सेवित, भक्तों के अभीष्टों को पूर्ण करने वाली वृषभानुनंदिनी श्रीराधाजी का हम निरन्तर स्मरण करते हैं।

निम्बार्क सम्प्रदाय में भक्त गोपीचन्दन का तिलक लगाते हैं। श्रीमद्भागवत इस सम्प्रदाय का प्रधान ग्रन्थ है।

श्रीनिम्बार्काचार्यजी ने कई ग्रन्थ लिखे जैसे—गीताभाष्य, कृष्णस्तवराज, गुरुपरम्परा, वेदान्त-तत्त्वबोध, वेदान्तसिद्धान्तप्रदीप, श्रीराधाष्टकस्तोत्र, मन्त्ररहस्यषोडशी आदि। इनके दो ग्रन्थ ‘वेदान्तसौरभ’ और ‘वेदान्तकामधेनुदशश्लोकी’ ही वर्तमान में उपलब्ध हैं।

इनका मत द्वैताद्वैतवाद के नाम से प्रसिद्ध है। इनके मत में ब्रह्म से जीव और जगत अलग भी है और एक भी है। जैसे जल और उसकी तरंगें दोनों अलग-अलग दिखायी देते हुए भी एक जलस्वरूप हैं, उसी प्रकार श्रीराधाकृष्ण दीखने में दो होते हुए भी तन, मन और इच्छा आदि से एकरूप ही हैं।

एक स्वरूप सदा द्वै नाम।
आनंद की आह्लादिनी स्यामा,
आह्लादिनी के आनंद स्याम।। (महावाणी, सिद्धान्तसुख, २६)

श्यामसुन्दर आनन्दस्वरूप हैं और श्रीराधा उस आनंद का आह्लाद हैं। उसी आह्लाद का आनन्दरूप श्यामसुन्दर हैं।
भगवान निम्बार्काचार्य रचित श्रीराधाष्टकम् का एक श्लोक इस प्रकार हैं—

(ॐ) नमस्ते श्रियै राधिकायै परायै नमस्ते नमस्ते मुकुन्दप्रियायै।
सदानन्दरूपे प्रसीद त्वमन्त:प्रकाशे स्फुरन्ती मुकुन्देन सार्धम्।।

अर्थात्—(ॐ) श्रीराधिके! तुम्हीं श्री (लक्ष्मी) हो, तुम्हें नमस्कार है, तुम्हीं पराशक्ति राधिका हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम मुकुन्द की प्रियतमा हो, तुम्हें नमस्कार है। सदानन्दरूपे देवि! तुम मेरे अंत:करण के प्रकाश में श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के साथ सुशोभित होती हुई मुझ पर प्रसन्न होओ।

सभी जीवों में भगवद्बुद्धि करके द्वेष, हिंसा, झूठ, कलह और अंहकार को त्यागकर निर्मल मन और बुद्धि से, हृदय में प्रेम के साथ साधक भगवत्स्वरूप रूपी सागर में नदी की भांति प्रवेश करे और अपने को भगवान के प्रेम के योग्य बना सके—यही निम्बार्क भगवान द्वारा बताया गया भक्तिमार्ग है।

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देवताओं की गणेश आराधना

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माघ शुक्ल चतुर्थी पर विशेष

सनकादि-सूरज-चंद खड़े आरती करें,
औ शेषनाग गंध की ले धूप को धरें।
नारद बजावें बीन इंदर चंवर ले ढरें,
चारों मुखन से अस्तुति ब्रह्माजी उच्चरें।।
जो जो शरन में आया है कीना उसे सनाथ,
भौ-सिंध से उतारा है दम में पकड़ के हाथ।
ये दिल में ठान अपने और छोड़ सब का साथ,
तू भी ‘नजीर’ चरनों में अपना झुका दे माथ।।

‘हे गणपते! तुम्हारे बिना कोई भी कर्म नहीं किया जाता।’ (ऋग्वेद (१०।११२।९)

ब्रह्माण्ड में होने वाले छोटे-बड़े सभी कार्यों व घटनाओं की सिद्धि के लिए श्रीगणेश की अर्चना का सहारा अनिवार्यरूप से लेना पड़ता है। गणेशजी परमात्मा के अवतार हैं। विघ्नों को दूर करने तथा सिद्धि और सफलता प्रदान करने के लिए भगवान ने ही श्रीगणेश का रूप धारण किया है। गणपत्यथर्वशीर्ष में कहा गया है— ‘त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि’ अर्थात् गणेशजी प्रत्यक्ष ब्रह्म हैं।

संसार में श्रीगणेश सर्वोच्च सिंहासन पर प्रतिष्ठित हैं

पंचदेवों (विष्णु, शिव, सूर्य, देवी एवं गणेश) की उपासना पंचभूतों (पृथ्वी, आकाश, अग्नि, वायु एवं जल) से जुड़ी है। भगवान शिव पृथ्वीतत्त्व के अधिपति होने के कारण उनकी पार्थिवपूजा का विधान है। भगवान विष्णु आकाशतत्त्व के अधिपति होने से उनकी शब्दों द्वारा स्तुति का विधान है। देवी अग्नितत्त्व का अधिपति होने के कारण उनका अग्निकुण्ड में हवन के द्वारा पूजा की जाती है। सूर्य वायुतत्त्व के अधिपति होने के कारण उनका नमस्कार आदि से पूजा का विधान है। श्रीगणेश जलतत्त्व के अधिपति होने के कारण उनकी सबसे पहले पूजा का विधान है क्योंकि सृष्टि के आदि में एकमात्र जल ही विद्यमान था। इसी से श्रीगणेश सभी देवी-देवताओं के परम आराध्य, अग्रपूज्य व अनादि देव हैं।

मनुष्य ही नहीं देवता और ऋषि-मुनि भी कार्यसिद्धि के लिए करते हैं गणपति की आराधना

‘त्रिपुर पर विजय प्राप्त करने के लिए भगवान शंकर ने, छल से बलि को बांधने के लिए भगवान विष्णु ने, चौदह भुवनों की रचना के लिए ब्रह्माजी ने, पृथ्वी को अपने मस्तक पर धारण करने के लिए भगवान शेष ने, महिषासुर के वध के लिए देवी पार्वती (दुर्गा) ने, सिद्धि प्राप्त करने के लिए सिद्धेश्वरों ने तथा विश्वविजय करने के लिए कामदेव ने जिनका ध्यान किया, वे भगवान गणपति हमारी रक्षा करें।’

स्वानन्दलोक के वासी, गणों के अधिपति, शिव व पार्वती के लाड़ले लाल, सिद्धि-बुद्धि के प्राणबल्लभ, स्कन्द के बड़े भाई, देवताओं के रक्षक, विष्णु आदि देवताओं के कुलदेवता भगवान श्रीगणेश सबके पूजनीय हैं। किसी भी कार्य के आरम्भ में सर्वप्रथम श्रीगणेश का पूजन करना आवश्यक माना जाता है। जो कोई इसका पालन नहीं करता, उसके कार्य में निश्चित विघ्न पड़ता है। जब-जब शिव-विष्णु-सूर्यादि देवताओं ने गणेशजी की अग्रपूजा नहीं की, तब-तब उन्हें अपने कार्य में विफल होना पड़ा। गणेशजी की शरण लेने के बाद ही उन्हें सिद्धि और कीर्ति की प्राप्ति हुई।

—भगवान श्रीराम ने अपने विवाह में अपने हाथों से बड़े प्रेम से गणेशजी की पूजा की थी।

‘आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।’ (मानस १।३२२।१ छन्द)

—भगवान शंकर और पराम्बा पार्वती ने अपने विवाह के समय सबसे पहले गणेशजी की पूजा की।

मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि।। (मानस १।१।१००)

—गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपने इष्टदेव श्रीसीताराम की प्राप्ति के लिए भगवान गणेश की वन्दना की–

गाइये गनपति जगबंदन।
संकर-सुवन भवानी-नंदन।।
और अंत में उनसे वर मांगा–
मांगत तुलसिदास कर जोरे।
बसहिं राम सिय मानस मोरे।। (विनयपत्रिका)

श्रीरामदरबार के प्रथम द्वारपाल श्रीगणेश हैं। द्वारपाल की अनुमति के बिना रामदरबार में प्रवेश पाना कठिन है। यही कारण है कि तुलसीदासजी ने विनयपत्रिका में सबसे पहले गणेश वन्दना की।

ब्रह्माजी ने सृष्टिकार्य में आने वाले विघ्नों के नाश के लिए गणेशजी की थेऊर (जिला पूना)  में स्थापना कर पूजा की थी।

—भगवान विष्णु ने मधु-कैटभ दैत्यों को मारने के लिए सिद्धटेक (अहमदनगर) में गणेशजी का पूजन किया था। द्वापर में व्यासजी ने वेदों का विभाजन निर्विघ्न सम्पन्न करने के लिए भगवान विष्णु द्वारा स्थापित इस गणेश मूर्ति की पूजा की थी। देवताओं और ऋषि-मुनियों ने इस मूर्ति का नाम ‘सिद्धविनायक’ रखा। भगवान विष्णु का यह तपक्षेत्र सिद्धाश्रम के नाम से प्रसिद्ध हैं।

श्रीराधा ने शाप के सौ वर्ष पूर्ण होने पर सिद्धाश्रम में ही श्रीकृष्ण प्राप्ति की कामना से श्रीगणेश का पूजन-स्तवन किया था।

—शिवजी गणेशजी की पूजा किए बिना ही त्रिपुरासुर को मारने गए; किन्तु उन्हें स्वयं ही पराजित होना पड़ा।

त्रिपुरासुर वध में सफल नहीं होने पर शंकरजी ने राजनगांव (जिला पूना) में श्रीगणेश का स्तवन किया और त्रिपुरासुर का वध किया। इस स्थान को मणिपूर-क्षेत्र कहते हैं।

पार्वतीजी ने लेह्याद्रि (जिला पूना) में गणेशजी को पुत्ररूप में पाने के लिए तपस्या की थी।

आदिशक्ति देवी ने ‘विन्ध्याचल क्षेत्र’ में आकर गणेशजी की प्रसन्नता के लिए तप किया, तब कहीं जाकर वे महिषासुर का वध कर सकीं।

—आदिकल्प के आरम्भ में ॐकार ने वेदों के साथ मूर्तिमान होकर प्रयाग (उत्तरप्रदेश) में गणपति की स्थापना व आराधना की थी। यह ॐकार गणपतिक्षेत्र है।

—‘गणानां त्वा गणपतिं हवामहे’  ऋग्वेद की इस ऋचा के मन्त्रद्रष्टा ऋषि गृत्समद ने महड़ (जिला कुलाबा) में  वरदविनायक की स्थापना कर प्रखर उपासना की थी।

—तारकासुर से युद्ध में पहले शिवपुत्र स्कन्द (कार्तिकेयजी)  विजय प्राप्त नहीं कर सके। फिर पिता के आदेश पर उन्होंने  वेरुल (जिला औरंगाबाद) में गणेशजी की स्थापना कर आराधना की और तारकासुर का वध किया। यह ‘लक्ष-विनायक’ नाम से जाने जाते हैं।

—गौतम ऋषि के शाप से छूटने के लिए देवराज इन्द्र ने कलम्ब (जिला यवतमाल) में चिन्तामणि गणेश की स्थापना कर पूजन किया था जिससे वे सभी चिन्ताओं से मुक्त हुए।

—महापाप, संकष्ट और शत्रु नामक दैत्यों के संहार के लिए देवताओं और ऋषियों ने अदोष (नागपुर) में गणपति की स्थापना कर तपस्या की थी। भगवान वामन ने भी राजा बलि के यज्ञ में जाने से पहले यहां गणेश की आराधना की थी। ये ‘शमी-विघ्नेश’ नाम से प्रसिद्ध हैं।

—अमृत-मंथन के समय जब अथक प्रयास के बाबजूद अमृत नहीं निकला, तब देवताओं ने कुम्भकोणम् (दक्षिण भारत) में श्रीगणेश की स्थापना करके पूजा की थी।

मंगल-ग्रह ने पारिनेर में तपस्या करके गणेशजी की आराधना की थी इसलिए इसे मंगलमूर्ति क्षेत्र कहते हैं।

चन्द्रमा ने गंगा मसले (जिला परभणी) में गणेशजी की आराधना की थी, अत: यह स्थान भालचन्द्र गणेश-क्षेत्र कहलाता है।

यमराज ने माता के शाप से छूटने के लिए नामलगांव (मराठावाड़)  में आशापूरक गणेशजी की मूर्ति स्थापित कर आराधना की थी।

भगवान दत्तात्रेय ने राक्षस-भुवन (बीड़) में विज्ञान गणेश की स्थापना कर अर्चना की थी, अत: यह विज्ञान-गणेशक्षेत्र कहलाता है।

—पद्मालय में कार्तवीर्य (सहस्त्रार्जुन) और शेषजी ने गणेशजी की आराधना की थी।

बल्लाल नामक वैश्य बालक की भक्ति से प्रसन्न होकर पाली (जिला कुलाबा) में श्रीगणेश प्रकट हुए इसलिए इसे बल्लाल-विनायक क्षेत्र भी कहते हैं।

—सिन्दूरासुर का वध करने के बाद गणेशजी ने राजूर (जिला औरंगाबाद) में राजा वरेण्य को ‘गणेशगीता’ का उपदेश किया था। ये ‘ज्ञानदाता गणेश’ कहलाते हैं।

कश्यप ऋषि ने अपने आश्रम में गणेशजी की स्थापना कर आराधना की थी।

भक्तों की पुकार पर अनलासुर के नाश के लिए विजयपुर में श्रीगणेश प्रकट हुए थे।

—मयदानव द्वारा निर्मित त्रिपुर के असुरों ने जलेशपुर में गणेशजी की स्थापना कर पूजन किया था।

—सिद्धिदाता मयूरेश्वर गणपति की स्थापना उनके अनन्य भक्त मोरया गोसावी ने मोरेश्वर (जिला पूना)  में की थी। भगवान गणपति का यह सबसे प्रधान व जाग्रत पीठ है। इसे पृथ्वी पर गणपतिजी का स्वानन्दधाम कहते हैं। यहां के देवता हैं मयूरेश्वर। यहीं पर समर्थ गुरु रामदास एवं तुकारामजी ने श्रीगणेश की उपासना की थी।

—शकुन्तला के धर्मपिता महर्षि कण्व ने टिटवाला (जिला थाना) में गणेश प्रतिमा स्थापित की और पिता की आज्ञा से शकुन्तला ने गणेशव्रत लिया जिससे उसे राजा दुष्यन्त पति रूप में प्राप्त हुए। ये गणेश विवाहविनायक कहलाते हैं।

हमारा जीवन विघ्नबाधा रहित हो तथा हमें चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति सरलता से हो जाए इसके लिए हमें विधिवत् गणेश उपासना करनी चाहिए।

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वल्लभ सम्प्रदाय में श्रीकृष्ण की वात्सल्यपूर्ण अष्टयाम सेवा

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‘शास्त्र एक गीता ही है जिसको कि देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ने गाया। देव भी एक देवकीसुत कृष्ण ही हैं, मन्त्र भी बस उनके नाम ही हैं और कर्म भी केवल उनकी सेवा ही है।’ (महाप्रभु श्रीमद्वल्लभाचार्यजी)


भगवान के सुख का विचार करना ही पुष्टि-भक्ति है

श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने वात्सल्यरस से ओतप्रोत (प्रेमलक्षणा) भक्ति पद्धति की सीख दी जिसे ‘वल्लभ सम्प्रदाय’ या ‘पुष्टिमार्ग’ कहा जाता है। भक्त को प्रेमरस में डुबाकर, अहंता-ममता को भुलाकर, दीनतापूर्वक प्रभु की सेवा कराने वाली भक्ति पुष्टि-भक्ति कहलाती है। ‘पुष्टि’ अर्थात् पोषण का अर्थ है–’भगवान श्रीकृष्ण का अनुग्रह या कृपा’।

पुष्टिमार्ग में पूजा का अर्थ है ठाकुरजी की सेवा

अन्य भक्तिमार्गों में भगवान की अर्चना को ‘पूजा’ कहा जाता है परन्तु पुष्टिमार्ग में प्रभु की अर्चना को ‘सेवा’ कहा जाता है। ‘चित्त को भगवान से जोड़ देना ही सेवा है।’ पुष्टिमार्ग में भगवान की सेवा पूर्ण समर्पण के साथ नंदनन्दन को प्रसन्न करने और सुख देने के लिए की जाती है। पुष्टिमार्ग में भाव ही साधन और भाव ही फल है। पुष्टिभक्त के हृदय में भावात्मक भगवान विराजते है और इस भाव की सिद्धि के लिए वह प्रभु के अनेक मनोरथ करता है। प्रभु को आरती, स्नान, भोग, वस्त्रालंकार, पुष्पमाला, कीर्तन और विभिन्न उत्सव आदि से रिझाया जाता है। पुष्टि-भक्ति की सिद्धि प्रभु के चरण में सर्वस्व—तन-धन का समर्पण करने से होती है।

महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी का कथन है कि ‘सदा-सर्वत्र पति, पुत्र, धन, गृह–सब कुछ श्रीकृष्ण ही हैं; इस भाव से श्रीकृष्ण की सेवा करनी चाहिए, भक्तों का यही धर्म है। इसके अतिरिक्त किसी भी समय अन्य कोई धर्म नहीं है।’

अष्टयाम सेवा का अर्थ, उद्देश्य और अंग

अष्टयाम सेवा आठ प्रहरों (यामों) में की जाती है। प्रात:काल से शयन तक इसके–मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, संध्या-आरती और शयन–ये आठ रूप हैं। अष्टयाम सेवा का उद्देश्य भगवान की लीलाओं में मन को लगाये रखना है।

पुष्टिसम्प्रदाय में बालभाव एवं गोपीभाव से प्रभु की सेवा होती है। सेवा के अंग हैं–भोग, राग तथा श्रृंगार। भोग में विविध व्यंजनों का भोग प्रभु को लगता है। राग में वल्लभीय (अष्टछाप) भक्त कवियों के पदों का कीर्तन होता है तथा श्रृंगार में ऋतुओं के अनुसार भगवान के विग्रह का श्रृंगार होता है।

पुष्टिमार्ग में अष्टयाम दर्शन सेवा-भावना

‘मंगला’ दर्शन की भावना

मंगला की झांकी में पहले श्रीकृष्ण को जगाया जाता है, उसके बाद मंगल-भोग (दूध, माखन, मिश्री, बासुन्दी) रखा जाता है, फिर आरती की जाती है। यशोदाजी द्वारा सेवित मंगला का भाव इस प्रकार है–

‘बालकृष्ण यशोदाजी की गोद में विराजमान हैं, मां उनके मुखकमल का दर्शनकर उसे चूम रही हैं। नन्दबाबा प्रभु को गोद में लेकर लाड़ लड़ा रहे हैं। सखा गोपाल के गुणों का गान कर रहे हैं। व्रजसुन्दरियां अपने नयनकटाक्ष से ही उनका पूजन कर रही हैं। नंदनन्दन मिश्री और माखन का कलेवा कर रहे हैं। प्रभु की मंगल आरती हो रही है।

मंगल माधो नाम उच्चार।
मंगल वदन कमल कर मंगल, मंगल जन की सदा संभार।।१।।
देखत मंगल पूजत मंगल, गावत मंगल चरित उदार।
मंगल श्रवण कथा रस  मंगल, मंगल तनु वसुदेव कुमार।।२।।

माहात्म्य—मंगला के दर्शन करने से मनुष्य कभी दरिद्र नहीं होता है।

‘श्रृंगार’ दर्शन की भावना

मंगला की सेवा के बाद माता यशोदा अपने बालगोपाल का ऋतु अनुकूल श्रृंगार करती हैं। उबटन लगाकर तथा स्नान कराकर वे श्यामसुन्दर को पीताम्बर धारण कराती हैं। प्रभु के मुखकमल की और हाथ में वेणु व मस्तक पर मोरपंख की शोभा अनुपम है। व्रजसुन्दरियां और भक्त उनके दर्शन कर अपने को धन्य मानते हैं।

आवो गोपाल श्रृंगार बनाऊं।
विविध सुगंधन करूं उबटनों पाछे उष्णजल सों न्हवाऊं।।
अंग अंगोछ गुहूं तेरी बेनी फूलन रचरच भाल बनाऊं।
सुरंग पाग जरतारी चीरा रत्नखचित सिरपेच बंधाऊं।।
बागो लाल सुन्हेरी छापो हरि इजार चरणन विरचाऊं।
पटुका सरस बैंगनी रंग को हंसुली हार हमेल धराऊं।।
गजमोतिन के हार मनोहर वनमाला ले उर पहेराऊं।
ले दर्पण देखो मेरे प्यारे निरख निरख उर नयन सिराऊं।।
मधुमेवा पकवान मिठाई अपने कर ले तुम्हें जिमाऊं।
विष्णुदास को यही कृपाफल बाललीला निशिदिन गाऊं।।

माहात्म्य—श्रीकृष्ण के श्रृंगार के दर्शन करने से मनुष्य स्वर्गलोक प्राप्त करता है।

‘ग्वाल’ दर्शन की भावना

श्रृंगार के बाद ग्वाल सेवाभावना में श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ गोचारण के लिए जा रहे हैं। माता यशोदा सीख देती हैं–’गोपाल! गहन वन और जलाशय की ओर न जाना, गोपबालकों के साथ रहना, जीवजन्तु वाली जमीन पर अपने सुन्दर चरणों को मत रखना और दौड़ती हुई गायों के पीछे मत दौड़ना।’

गोचारण के लिए बालगोपालों के साथ जाते हुए श्यामसुन्दर वेणु बजाकर गौओं को अपनी ओर बुला रहे हैं। प्रभु के वेणुनाद से चराचर जगत मुग्ध है, बंशीध्वनि से श्रीकृष्ण गोपियों का धैर्य हर लेते हैं। श्रीकृष्ण की ग्वालमण्डली नृत्यगीत आदि में लीन है।

आगे गाय पाछे गाय इत गाय उत गाय
गोविंद को गायन में बसबोई भावे।।
गायन के संग धावे गायन में सचु पावे
गायन की खुररेणु अंग लपटावे।।
गायन सों ब्रज छायो बैकुण्ठ बिसरायो
गायन के हेत कर गिरि ले उठावे।
छीतस्वामी गिरिधारी विट्ठलेश वपुधारी
ग्वारिया को भेष धरें गायन में आवे।।

माहात्म्य—ग्वाल सेवा के दर्शन करने से मनुष्य की मान-प्रतिष्ठा बढ़ती है।

‘राजभोग’ दर्शन की भावना

ग्वाल सेवाभावना के बाद राजभोग का दर्शन होता है। प्रभु के गोचारण के लिए चले जाने के बाद माता यशोदा मन में सोच-सोचकर व्याकुल हैं कि वन में कड़ी धूप में गौएं चराने के बाद मेरा गोपाल भूखा होगा। इसलिए स्वर्ण व रजत पात्रों में तरह-तरह के पकवान गोपी के हाथ वन में भेज रही हैं। माता यशोदा गोपी को सावधान करती है कि सब सामग्री अच्छी तरह से रख दी है न, एक-दूसरे में मिल न जाए। ऐसा कहते हुए उनकी आंखों से प्रेमाश्रु झरने लगते हैं। गोपी राजभोग नंदनन्दन के सामने परोसती है। प्रभु यमुनातट पर गोपमण्डली के साथ राजभोग अरोग रहे हैं।

वृंदावन वन में स्याम चरावत गैया।
वृंदावन में बंसी बजाई बैठे कदम्ब की छैया।
भांति भांति के भोजन कीनै पठये यशोमति मैया।
सूरदास प्रभु तुम चिरजीवो मेरे कुंवर कन्हैया।।

माहात्म्य—राजभोग के दर्शन करने से मनुष्य भाग्यवान होता है।

‘उत्थापन’ दर्शन की भावना

राजभोग के बाद श्रीकृष्ण दोपहर में कुंज में शयन करते हैं। छ: घड़ी दिन शेष रहने पर जब उन्हें जगाया जाता है, उसे उत्थापन-दर्शन कहते हैं। सखियां कुंजभवन के सामने आकर खड़ी हो जाती हैं और प्रभु की लीलाओं का वर्णन करके उन्हें जगाती हैं—‘हे राधिकाकान्त! आपके जागने का समय हो गया है। गायों के साथ गोपबालक व्रज में जाने के लिए आपकी बाट जोह रहे हैं। गोवर्धन पर पुलन्दियों (भीलनियों) के साथ गोपियां वन के विभिन्न प्रकार के कन्द-फलों को लिए आपकी बाट जोह रही हैं; आप वहां पधारकर उनका मनोरथ पूर्ण कीजिए।’

ग्वाल कहत सुनों हों कन्हैया।।
घर जेवे की भई है बिरीयां दिन रह्यो घड़ी छैयां।।
शंखधुन सुन उठे हैं मोहन लावो मुरली कहां धरैया।।
गैया सगरी बगदावो रे घर को टेर कहत बलदाऊ भैया।। (परमानन्ददासजी)

माहात्म्य—उत्थापन के दर्शन करने से मनुष्य उत्साही बना रहता है। मनुष्य की अकर्मण्यता दूर हो जाती है।

‘भोग’ दर्शन की भावना

सखियों के ऐसा कहने पर लीलापुरुषोत्तम नन्दलाल शय्या से उठकर गिरिराज पर पधारते हैं और कन्द-मूल-फल आदि अरोगते हैं। यह भोग के दर्शन हैं। भोग अरोगने के बाद बाट देखती मां की व्याकुलता की जब प्रभु को याद आती है तो वे संध्याकाल में घर की ओर चल पड़ते हैं।

कंदमूल फल तरमेवा धरी ओटि किये मुरकैया
आरोगत व्रजराय लाडिलो झूंठन देत लरकैया।।
उत्थापन भयो पहोर पाछलो व्रजजन दरस दिखैया।
परमानन्द प्रभु आये भवन में शोभा देख बलजैया।।

माहात्म्य—भोग के दर्शन करने से मनुष्य की भगवान के चरणकमलों में प्रीति बनी रहती है।

‘संध्या-आरती’ दर्शन की भावना

गोधूलि-वेला में श्रीकृष्ण मन्द-मन्द वेणु बजाते हुए घर लौट रहे हैं। गोपियां प्रभु का मुखारविन्द निहारती हैं और वेणुवादन सुनकर रसमग्न हो जाती हैं। पुत्र को देखकर यशोदाजी का वात्सल्य उमड़ पड़ता है। उनके सारे शरीर में स्वेद (पसीना), रोमांच, कम्पन और स्तम्भन होने लगता है। वे कपूर, घी व कस्तूरी से सनी सुगन्धित बाती से उनकी आरती उतारती हैं। श्रीकृष्ण उनके इस भाव से मुग्ध हो रहे हैं।

लाल के बदन कमल पर आरती वारुं।
चारु चितवन करों साज नीकी युक्ति सों,
बाती अनगित घृत कपूर की बारुं।।

माहात्म्य—संध्या-आरती के दर्शन करने से मनुष्य की दूषित भावनाएं (स्वार्थीपन आदि) व नकारात्मकता समाप्त हो जाती है।

‘शयन’ दर्शन की भावना

संध्या-आरती के बाद शयन सेवा होती है। यशोदा अपने लाल को शयनभोग अरोगने के लिए कहती हैं–’मैंने अनेक प्रकार की स्वादिष्ट सामग्री सिद्ध (बनायी) की है। सोने के कटोरे में नवनीत और मिश्री भी है।’ प्रभु भोजन करते हैं। इसके बाद दूध के समान धवल शय्या पर शयन के लिए जाते हैं। माता यशोदा उनकी पीठ पर हाथ फेरकर सो जाने का अनुरोध करती हैं और उनकी लीलाओं का गुणगान कर सुलाती हैं।

मां अपने लाल को सोया जानकर उनके पास एक गोपी को बिठाकर अपने कक्ष में चली जाती हैं। सखियों का समूह प्रभु का दर्शन करके निवेदन करता है कि श्रीस्वामिनी (पुष्टिमार्ग में श्रीराधा को स्वामिनीजी कहा जाता है) आपकी बाट देख रही हैं, शय्या आदि सजाकर प्रतीक्षा कर रही हैं। श्रीस्वामिनीजी की विरहावस्था का वर्णन सुनकर करोड़ों कामदेवों के लावण्य वाले श्यामसुन्दर शय्या त्यागकर तुरन्त मन्द-मन्द गति से सखियों के बताये मार्ग पर धीरे-धीरे चलने लगते हैं। मन्द-मन्द मुरली बजाते वे केलिमन्दिर में प्रवेश करते हैं। यही प्रिया-प्रियतम की दिव्य झांकी है।

दोउ मिल पोढ़े ऊंची अटा हो।
श्यामघन दामिनी मानो उनयी घटा हो।।
अंगसों अंग मिले तनसों तन ओढे पीतपटा हो।
देखत बने कहत नही आवे सूर स्याम छटा हो।।

माहात्म्य—शयन के दर्शन करने से मनुष्य के मन में शान्ति व भगवान के चरणकमलों में प्रीति बनी रहती है।

श्रीकृष्ण को ही अपना एकमात्र अनन्य आश्रय मानना पुष्टिमार्गीय जीवन-प्रणाली की आवश्यक शर्त है। ‘श्रीकृष्ण शरणं मम’ इस मन्त्र की दीक्षा से भक्त अपने को भगवान में अर्पित कर देता है। इस प्रकार भगवत्स्वरूप की प्राप्ति का आनन्द ही पुष्टिभक्ति का एकमात्र फल है।

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भगवान का पेट कब भरता है?

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भाव का भूखा हूँ मैं और भाव ही एक सार है।
भाव से मुझको भजे तो भव से बेड़ा पार है।।
भाव बिन सब कुछ भी दे डालो तो मैं लेता नहीं।
भाव से एक फूल भी दे तो मुझे स्वीकार है।।
भाव जिस जन में नहीं उसकी मुझे चिन्ता नहीं।
भाव पूर्ण टेर ही करती मुझे लाचार है।।

दुखियों की पीड़ा को दूर करना ही भगवान की वास्तविक सेवा

प्रत्येक जीव में भगवान बस रहे हैं, ऐसा मानकर सभी प्राणियों को सम्मान देना और सुख पहुंचाना चाहिए। जो दूसरों को दु:ख देकर भगवान की पूजा करता है, भगवान उस पूजा को स्वीकार नहीं करते हैं। भगवान की असली सेवा-पूजा वही व्यक्ति करता है जो दूसरों के दु:ख से दु:खी और दूसरों के सुख से सुखी होता है—‘पर दुख दुख सुख सुख देखे पर।’ (मानस ७।३८।१)

केवल अपने सुख के लिए जो वस्तुओं का संग्रह करता है उसे सदैव सुख की कमी रहती है। जो त्याग करके दूसरों को सुखी करता है उसको कभी सुख की कमी रहती ही नहीं है; क्योंकि भगवान भी अपनी पूरी शक्ति लगाकर उसको सुखी बनाते हैं।

भगवान का पेट कब भरता है ?

तीनि लोक नवखंड में सदा होत जेवनार।
कै सबरी कै बिदुर घर तृप्त हुए दुइ बार।।

अर्थात्—यद्यपि संसार में सदैव ही भगवान के निमित्त भंडारे, ब्रह्मभोज आदि चलते रहते हैं परन्तु भगवान केवल दो बार ही शबरी और विदुरजी के घर कंद-मूल खाकर पूर्ण तृप्त हुए थे।

प्राचीनकाल में एक परम शिवभक्त राजा था। एक दिन उसके मन में इच्छा हुई कि सोमवार के दिन अपने आराध्य भगवान शिव का हौद (वह भाग जहां जलहरी सहित पिण्डी स्थित होती है)  दूध से लबालब भर दिया जाए। जलहरी का हौद काफी चौड़ा और गहरा था। राजा की आज्ञा से पूरे नगर में डुग्गी पिटवा दी गयी कि—

‘सोमवार के दिन सारे ग्वाले शहर का पूरा दूध लेकर शंकरजी के मन्दिर आ जाएं, भगवान का हौद भरना है; जो इसका उल्लंघन करेगा, वह कठोर दण्ड का भागी होगा।’

भाव बिन सब कुछ भी दे डालो तो मैं लेता नहीं

राजा की आज्ञा सुनकर सारे ग्वाले बहुत परेशान हुए। किसी ने भी अपने बच्चों को दूध नहीं पिलाया और न ही गाय के बछड़ों को दूध पीने दिया। दुधमुंहे बच्चे भूख से व्याकुल होने लगे। सभी ग्वाले सारा दूध इकट्ठा कर मन्दिर पहुंचे और भगवान शंकर के हौद में दूध छोड़ दिया। किन्तु आश्चर्य! इतने दूध से भी हौद पूरा न भर सका। यह देखकर राजा बड़ी चिन्ता में पड़ गया।

भाव से एक फूल भी दे तो मुझे स्वीकार है

तभी एक बुढ़िया एक लुटिया भर दूध लेकर आयी और बड़े भक्तिभाव से भगवान पर दूध चढ़ाते हुए बोली—‘शहर भर के दूध के आगे मेरे लुटिया भर दूध की क्या बिसात! फिर भी भगवन्, मुझ बुढ़िया की श्रद्धा भरी ये दो बूंदें स्वीकार करो।’

जैसे ही बुढ़िया दूध चढ़ाकर मन्दिर से निकली, भगवान का हौद एकाएक दूध से भर गया। वहां उपस्थित सभी लोग आश्चर्य में पड़ गए। राजा के पास खबर पहुंची तो उसके भी आश्चर्य का ठिकाना न रहा।

अगले सोमवार को राजा ने फिर भगवान शिव का हौद दूध से भरने की आज्ञा दी। पूरे नगर का दूध भगवान शंकर के हौद में छोड़ा गया; परन्तु फिर से हौद खाली रह गया। पहले की तरह बुढ़िया आई और उसने अपनी लुटिया का दूध हौद में छोड़ा और हौद भर गया। राजकर्मचारियों ने जाकर राजा को सारा वृतान्त सुनाया। राजा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने स्वयं वहां उपस्थित रहकर इस घटना के रहस्य का पता लगाने का निश्चय किया।

तीसरे सोमवार को राजा की उपस्थिति में नगर भर का दूध भगवान के हौद में डाला गया, पर हौद खाली रहा। इसी बीच वह बुढ़िया आयी और उसके लुटिया भर दूध चढ़ाते ही हौद दूध से भर गया। पूजा करके बुढ़िया अपने घर को चल दी। राजा उसका पीछा करने लगा। कुछ दूर जाने पर राजा ने बुढ़िया का हाथ पकड़ लिया। बुढ़िया भय से थर-थर कांपने लगीं। राजा ने उसे अभय देते हुए कहा—‘माई! मेरी एक जिज्ञासा शान्त करो। तुम्हारे पास ऐसा कौन-सा जादू-टोना या मन्त्र है जिससे तुम्हारे लुटिया भर दूध चढ़ाते ही शंकरजी का हौद एकाएक भर जाता है।’

भाव पूर्ण टेर ही करती मुझे लाचार है

गीता (१२।४)  में कहा गया है—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:’ जिन्हें सबके हित की चिन्ता रहती है, उन्हें भगवान प्राप्त हो जाते हैं।

बुढ़िया ने कहा—‘मैं जादू-टोना, मन्त्र-तन्त्र कुछ भी नहीं जानती, न ही करती हूँ। घर के बाल-बच्चों, ग्वालबालों सभी को दूध पिलाकर तृप्त कर बचे दूध में से एक लुटिया दूध लेकर आती हूँ, भगवान को चढ़ाते ही वे प्रसन्न हो जाते हैं। भाव से उन्हें अर्पण करते ही वे उसे ग्रहण करते हैं और हौद भर जाता है। किन्तु तुम दण्ड का भय दिखाकर जबरन नगर के सारे बालबच्चों, बूढ़ों व ग्वालबालों का पेट काटकर उन्हें भूख से तड़पता छोड़कर सारा दूध अपने कब्जे में करते हो और फिर उसे भगवान को चढ़ाते हो तो उनकी आह से भगवान उसे ग्रहण नहीं करते और उतने सारे दूध से भी भगवान का पेट नहीं भरता और हौद खाली रह जाता है।’

यजुर्वेद (१।११) में कहा गया है—‘हे मनुष्य! तुम्हें प्राणियों की सेवा के लिए पैदा किया गया है, दु:ख देने के लिए नहीं।’

राजा को अपनी भूल समझ में आ गई और आगे से उसने किसी को भी कष्ट पहुंचाने वाली हरकतें न करने की कसम खाली।

प्रजासुखे सुखी राजा तदु:खे यश्च दु:खित:।
स कीर्तियुक्तो लोकेऽस्मिन् प्रेत्य स्वर्गे महीयते।। (विष्णुधर्मशास्त्र अध्याय ३)

अर्थात्—जो राजा प्रजा के सुख से सुखी और प्रजा के दु:ख से दु:खी होता है, प्रजा का अच्छे से पालन-पोषण व रक्षण करता है, उसी को लोक में कीर्ति प्राप्त होती है। प्रजा का दु:ख ही राजा के लिए सबसे बड़ा दु:ख होता है।

पूजनकर्म करते समय रखें इस बात का ध्यान

‘मेरे पास जो कुछ है, वह सब उस परमात्मा का ही है, मुझे तो केवल निमित्त बनकर उनकी दी हुई शक्ति से उनका पूजन करना है’—इस भाव से जो कुछ किया जाए वह सब-का-सब परमात्मा का पूजन हो जाता है। इसके विपरीत मनुष्य जिन वस्तुओं को अपना मानकर भगवान का पूजन करता है, वे (अपवित्र भावना के कारण) पूजन से वंचित रह जाती हैं।’ (गीता १८।४६)

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्तिद् दु:खभाग्भवेत्।।

सब सुखी हो जाएं, सबके जीवन में आनन्द-मंगल हो, कभी किसी को कोई कष्ट न हो—जब इस तरह का भाव हो, वही मनुष्य कहलाने का हकदार है।

यही पशु प्रवृत्ति है कि आप ही आप चरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। (राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त)

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क्या भगवान शिव को अर्पित नैवेद्य ग्रहण करना चाहिए ?

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सौवर्णे नवरत्नखण्ड रचिते पात्रे घृतं पायसं
भक्ष्यं पंचविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम्।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु।। (शिवमानसपूजा)

अर्थात्—मैंने नवीन रत्नजड़ित सोने के बर्तनों में घीयुक्त खीर, दूध, दही के साथ पांच प्रकार के व्यंजन (पकवान), केले के फल, शर्बत, अनेक तरह के शाक, कर्पूर की सुगन्ध वाला स्वच्छ और मीठा जल और ताम्बूल—ये सब मन से ही बनाकर आपको अर्पित किया है। भगवन्! आप इसे स्वीकार कीजिए।

क्या भगवान शिव को अर्पित किया गया नैवेद्य (प्रसाद) ग्रहण करना चाहिए?

सृष्टि के आरम्भ से ही समस्त देवता, ऋषि-मुनि, असुर, मनुष्य विभिन्न ज्योतिर्लिंगों, स्वयम्भूलिंगों, मणिमय, रत्नमय, धातुमय और पार्थिव आदि लिंगों की उपासना करते आए हैं। अन्य देवताओं की तरह शिवपूजा में भी नैवेद्य निवेदित किया जाता है। अन्य देवताओं का प्रसाद तो लोग बड़ी श्रद्धा से ग्रहण करते हैं किन्तु शिवजी के प्रसाद के सम्बन्ध में लोगों के मन में यह दुविधा रहती है कि भगवान शिव को अर्पित किया गया प्रसाद ग्रहण करना चाहिए या नहीं। इसके पीछे कारण यह है कि शिवलिंग पर चढ़े हुए प्रसाद पर चण्ड का अधिकार होता है।

भगवान शिव के मुख से निकले हैं चण्ड

गणों के स्वामी चण्ड भगवान शिवजी के मुख से प्रकट हुए हैं। ये सदैव शिवजी की आराधना में लीन रहते हैं और भूत-प्रेत, पिशाच आदि के स्वामी हैं। चण्ड का भाग ग्रहण करना यानी भूत-प्रेतों का अंश खाना माना जाता है। इसलिए लोगों के मन में डर रहता है कि कहीं शिवजी का प्रसाद खाने से उनके जीवन में कोई विपत्ति न जाए।

शिव-नैवेद्य ग्राह्य और अग्राह्य

शिवपुराण की विद्येश्वरसंहिता के २२वें अध्याय में इसके सम्बन्ध में स्पष्ट कहा गया है—

चण्डाधिकारो यत्रास्ति तद्भोक्तव्यं न मानवै:।
चण्डाधिकारो नो यत्र भोक्तव्यं तच्च भक्तित:।। (२२।१६)

अर्थात्—जहां चण्ड का अधिकार हो, वहां शिवलिंग के लिए अर्पित नैवेद्य मनुष्यों को ग्रहण नहीं करना चाहिए। जहां चण्ड का अधिकार नहीं है, वहां का शिव-नैवेद्य मनुष्यों को ग्रहण करना चाहिए।

किन शिवलिंगों के नैवेद्य में चण्ड का अधिकार नहीं है?

इन लिंगों के प्रसाद में चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: ग्रहण करने योग्य है—

ज्योतिर्लिंग—बारह ज्योतिर्लिंगों (सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल में मल्लिकार्जुन, उज्जैन में महाकाल, ओंकार में परमेश्वर, हिमालय में केदारनाथ, डाकिनी में भीमशंकर, वाराणसी में विश्वनाथ, गोमतीतट में त्र्यम्बकेश्वर, चिताभूमि में वैद्यनाथ, दारुकावन में नागेश्वर, सेतुबन्ध में रामेश्वर और शिवालय में घुश्मेश्वर) का नैवेद्य ग्रहण करने से सभी पाप भस्म हो जाते हैं।

शिवपुराण की विद्येश्वरसंहिता में कहा गया है कि काशी विश्वनाथ के स्नानजल का तीन बार आचमन करने से शारीरिक, वाचिक व मानसिक तीनों पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

स्वयम्भूलिंग—जो लिंग भक्तों के कल्याण के लिए स्वयं ही प्रकट हुए हैं, उनका नैवेद्य ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है।

सिद्धलिंग—जिन लिंगों की उपासना से किसी ने सिद्धि प्राप्त की है या जो सिद्धों द्वारा प्रतिष्ठित हैं, जैसे—काशी में शुक्रेश्वर, वृद्धकालेश्वर, सोमेश्वर आदि लिंग देवता-सिद्ध-महात्माओं द्वारा प्रतिष्ठित और पूजित हैं, उन पर चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: उनका नैवेद्य सभी के लिए ग्रहण करने योग्य है।

बाणलिंग (नर्मदेश्वर)—बाणलिंग पर चढ़ाया गया सभी कुछ जल, बेलपत्र, फूल, नैवेद्य—प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए।

—जिस स्थान पर (गण्डकी नदी) शालग्राम की उत्पत्ति होती है, वहां के उत्पन्न शिवलिंग, पारदलिंग, पाषाणलिंग, रजतलिंग, स्वर्णलिंग, केसर के बने लिंग, स्फटिकलिंग और रत्नलिंग—इन सब शिवलिंगों के लिए समर्पित नैवेद्य को ग्रहण करने से चान्द्रायण व्रत के समान फल प्राप्त होता है।
—शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव की मूर्तियों में चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: इनका प्रसाद लिया जा सकता है—

‘प्रतिमासु च सर्वासु न चण्डोऽधिकृतो भवेत्।।

—जिस मनुष्य ने शिव-मन्त्र की दीक्षा ली है, वे सब शिवलिंगों का नैवेद्य ग्रहण कर सकता है। उस शिवभक्त के लिए यह नैवेद्य ‘महाप्रसाद’ है। जिन्होंने अन्य देवता की दीक्षा ली है और भगवान शिव में भी प्रीति है, वे ऊपर बताए गए सब शिवलिंगों का प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं।

शिव-नैवेद्य कब नहीं ग्रहण करना चाहिए

—शिवलिंग के ऊपर जो भी वस्तु चढ़ाई जाती है, वह ग्रहण नहीं की जाती है। जो वस्तु शिवलिंग से स्पर्श नहीं हुई है, अलग रखकर शिवजी को निवेदित की है, वह अत्यन्त पवित्र और ग्रहण करने योग्य है।
—जिन शिवलिंगों का नैवेद्य ग्रहण करने की मनाही है वे भी शालग्रामशिला के स्पर्श से ग्रहण करने योग्य हो जाते हैं।

शिव-नैवेद्य की महिमा

—जिस घर में भगवान शिव को नैवेद्य लगाया जाता है या कहीं और से शिव-नैवेद्य प्रसाद रूप में आ जाता है वह घर पवित्र हो जाता है। आए हुए शिव-नैवेद्य को प्रसन्नता के साथ भगवान शिव का स्मरण करते हुए मस्तक झुका कर ग्रहण करना चाहिए।
—आए हुए नैवेद्य को ‘दूसरे समय में ग्रहण करुंगा’, ऐसा सोचकर व्यक्ति उसे ग्रहण नहीं करता है, वह पाप का भागी होता है।
—जिसे शिव-नैवेद्य को देखकर खाने की इच्छा नहीं होती, वह भी पाप का भागी होता है।
—शिवभक्तों को शिव-नैवेद्य अवश्य ग्रहण करना चाहिए क्योंकि शिव-नैवेद्य को देखने मात्र से ही सभी पाप दूर हो जाते है, ग्रहण करने से करोड़ों पुण्य मनुष्य को अपने-आप प्राप्त हो जाते हैं।
—शिव-नैवेद्य ग्रहण करने से मनुष्य को हजारों यज्ञों का फल और शिव सायुज्य की प्राप्ति होती है।
—शिव-नैवेद्य को श्रद्धापूर्वक ग्रहण करने व स्नानजल को तीन बार पीने से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है।

मनुष्य को इस भावना का कि भगवान शिव का नैवेद्य अग्राह्य है, मन से निकाल देना चाहिए क्योंकि कर्पूरगौरं करुणावतारम् शिव तो सदैव ही कल्याण करने वाले हैं। जो ‘शिव’ का केवल नाम ही लेते है, उनके घर में भी सब मंगल होते हैं—

सुमंगलं तस्य गृहे विराजते
शिवेति वर्णैर्भुवि यो हि भाषते।।

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गणपति के नाम, देते हैं खुशहाली का वरदान

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प्रकृति पुरुष तैं परे ध्यान गनपति को करिहै।
नसैं सकल तिनि विघ्न अवसि भवसागर तरिहै।।
पाठ-हवन पूजन करें, पाप रहित होवैं भगत।
सब विघ्ननि तैं छूटिकैं, लेंहिं जनम नहिं पुनि जगत।। (श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी)

गणपति बप्पा के पास है सभी समस्याओं का हल

श्रीरामनाम अनुरागी मातापिता श्रीशंकर-पार्वती के पुत्र श्रीगणेश भी बड़े हरिनाम प्रिय हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार स्वयं परब्रह्म गोलोकनिवासी श्रीकृष्ण अपने अंश से पार्वतीमाता के पुण्यक व्रत से पुत्र गणेश के रूप में प्रकट हुए हैं। जैसे भगवान श्रीकृष्ण के नामोच्चारण से सभी संकट दूर हो जाते हैं, वैसे ही श्रीगणेश के नामोच्चारण से सभी बाधाएं, विघ्न, शाप, शोक दूर हो जाते हैं।

विमाता (सौतेली माता) छाया ने दिया यमराज को शाप

भगवान सूर्य और उनकी पत्नी संज्ञा की तीन संतानें—वैवस्वत मनु, यम और यमुना हुए। संज्ञा सूर्य के तेज को सहन नहीं कर पा रहीं थीं। अत: एक दिन सूर्य के घर में अपनी छाया स्थापित कर वह अश्विनी (घोड़ी) के रूप में उत्तरकुरु देश (वर्तमान में हरियाणा)  तप करने चली गयीं। सूर्य को भी इस रहस्य का पता नहीं चला। छाया से सूर्य के चार संतानें—सावर्णि मनु, शनि, तपती और विष्ठि हुईं। छाया का अपने बच्चों पर बहुत प्रेम था।

सूर्यपत्नी छाया यम और यमुना से सौतेली माता का-सा व्यवहार करती थी। एक बार यमुना और तपती में विवाद हो गया और एक-दूसरे को शाप देकर वे नदी बन गयी।

एक दिन यम को छाया की वास्तविकता का पता चल गया। माता के बर्ताब से खिन्न यम ने पिता सूर्य के सामने छाया का सारा राज खोल देते हुए कहा—‘यह हम लोगों की माता नहीं है और इसका व्यवहार हम लोगों के साथ सौतेली माता के समान है।‘ यम ने क्रुद्ध होकर छाया को मारने के लिए पैर उठाया।

क्रोधित छाया ने यम को शाप दे दिया—‘तुमने मेरे ऊपर चरण उठाया है इसलिए तुम प्राणियों की प्राणहिंसा करने का कर्म करोगे। यदि तुम मेरे द्वारा शापित अपने पैर को पृथ्वी पर रखोगे तो कीड़े उसे खा जाएंगे।’

भगवान सूर्य को सारी बात का पता लगा तो उन्होंने अपने तेजोबल से शाप में सुधार करते हुए यम को वरदान दिया कि ‘पापात्माओं में तुमसे भय होगा और संत तुमसे पीड़ित न होंगे। ब्रह्माजी की आज्ञा से तुम लोकपाल पद प्राप्त करोगे।’ इसी कारण यम धर्मराज के रूप में प्रतिष्ठित होकर पाप-पुण्य का निर्णय करते हैं।

सूर्य ने कहा—‘यमुना का जल गंगाजल के समान पवित्र माना जाएगा और तपती का जल नर्मदाजल के तुल्य पवित्र होगा। आज से छाया सबकी देह में स्थित रहेगी।’

यम ने भी छाया और उसके पुत्र शनि को शाप देते हुए कहा—‘तुम्हारा सूर्य की किरणों से मेल न हो सकेगा और माता के दोष से शनि की दृष्टि में क्रूरता भरी रहेगी।’

माता के शाप से छूटने के लिए यमराज ने की श्रीगणेश आराधना

महिष पर चलने वाले, दक्षिण दिशा के स्वामी धर्मराज यम बारह महाभागवतों में से एक हैं। वे भक्ति के आचार्य माने जाते हैं। पुराणों में इनके नाम से विभिन्न यमगीताएं मिलती हैं। धर्मराज यम ने माता के शाप से छूटने के लिए नामलगांव (मराठावाड़) में आशापूरक गणेशजी की मूर्ति स्थापित कर आराधना की थी।

namal gaon bhagwan shri ganesh

यमराज द्वारा कहे गए श्रीगणेश के 108 नाम

यहां यमराज के द्वारा कहे गये भगवान गणेश के अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र (108 नामों के स्तोत्र) का हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है।

यमराज अपने दूतों से कहते हैं—

हे दूतो! जो लोग (1) गणेश (2) हेरम्ब (3) गजानन (4) महोदर (5) स्वानुभवप्रकाशिन् (6) वरिष्ठ (7) सिद्धिप्रिय (8) बुद्धिनाथ! इस प्रकार उच्चारण करते हों, उनसे अत्यन्त भयभीत रहकर तुम उन्हें दूर से ही त्याग देना ।।1।।

जो हे (9) अनेकविघ्नान्तक (10) वक्रतुण्ड (11) स्वानन्दलोकवासिन् (12) चतुर्भुज (13) कवीश (14) देवान्तकनाशकारिन्—इस प्रकार उच्चारण करते हों, उनसे अत्यन्त डरे रहकर उन्हें छोड़ देना, उन्हें पकड़कर लाने की चेष्टा न करना ।।2।।

जो हे (15) महेशनन्दन (16) गजदैत्यशत्रो (17) वरेण्यपुत्र (18) विकट (19) त्रिनेत्र (20) परेश  (21) पृथ्वीधर (22) एकदन्त—इस प्रकार उच्चारण करते हों, उनसे भयभीत रहकर उन्हें दूर से ही त्याग देना ।।3।।

हे (23) प्रमोद (24) मोद (25) नरान्तकारे (26) षडूर्मिहन्त: (27) गजकर्ण (28) ढुण्ढे (29) द्वन्द्वाग्निसिन्धो (30) स्थिरभावकारिन्—इस प्रकार उच्चारण करने वाले व्यक्तियों को उनसे डरते हुए दूर से ही छोड़ देना।।4।।

हे (31) विनायक (32) ज्ञानविघातशत्रो (33) पराशरात्मज (34) विष्णुपुत्र (35) अनादिपूज्य (36) आखुग (मूषकवाहन) (37) सर्वपूज्य—इस प्रकार उच्चारण करने वालों को भयभीत होकर छोड़ देना।।5।।

हे (38) विरंचिनन्दन (39) लम्बोदर (40) धूम्रवर्ण (41) मयूरपाल (42) मयूरवाहन (43) सुरासुरसेवितपादपद्म—ऐसा उच्चारण करने वाले व्यक्तियों को उनसे भय मानकर त्याग देना।।6।।

हे (44) करिन् (45) महाखुध्वज (46) शूपकर्ण (47) शिव (48) अज (49) सिंहवाहन (50) अनन्तवाह (51) दयासिन्धो (52) विघ्नेश्वर (53) शेषनाभे—ऐसा उच्चारण करने वाले व्यक्तियों को दूर से ही त्याग देना और उनसे अत्यन्त भयभीत रहना।।7।।

हे (54) सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म और महान से भी अत्यन्त महान (55) रविपूज्य (56) योगेशज (57) ज्येष्ठराज (58) निधीश (59) मन्त्रेश (60) शेषपुत्र—ऐसा उच्चारण करने वाले व्यक्तियों को त्याग देना और उनसे अत्यन्त भयभीत रहना।।8।।

हे (61) वरप्रदाता (62) अदितिनन्दन (63) परात्परज्ञानद (64) तारकवक्त्र (65) गुहाग्रज (66) ब्रह्मप (67) पार्श्वपुत्र—ऐसा उच्चारण करने वालों को छोड़ देना और उनसे डरते रहना।।।9।।

हे (68) सिन्धुशत्रो (69) परशुप्रपाणे (70) शमीशपुष्पप्रिय (71) विघ्नहारिन् (72) दूर्वांकुरपूजित (73) देवदेव—ऐसा कहने वालों को दूर से ही त्याग देना और उनसे डरते रहना।।10।।

हे (74) बुद्धिप्रद (75) शमीप्रिय (76) सुसिद्धिदायक (77) सुशान्तिप्रदायक (78) अमेयमाय (79) अमितविक्रम—ऐसा कहने वालों को दूर से ही त्याग देना और उनसे डरते रहना।।11।।

हे (80) शुक्ल-कृष्ण-द्विविध (81) चतुर्थीप्रिय (82) कश्यपपूज्य (83) धनप्रदायक (84) ज्ञानपदप्रकाश (85) चिन्तामणे (86) चित्तविहारकारिन् —ऐसा जो उच्चारण करते हों, उनको दूर से ही त्याग देना और उनसे सदा डरते रहना।।12।।

हे (87) यमशत्रु (88) अभिमानशत्रु (89) विधूद्भवारे (कामनाशन) (90) कपिलपुत्र (91) विदेह (92) स्वानन्दस्वरूप (93) अयोगयोग गणेश—ऐसा जो उच्चारण करते हों, उनको दूर से ही त्याग देना और उनसे सदा डरते रहना।।13।।

हे (94) दैत्यगण और कमलासुर के शत्रु (95) समस्त भावों के ज्ञाता (96) भालचन्द्र गणेश (97) आदि, मध्य और अन्त से रहित (98) भय का नाश करने वाले—ऐसा जो उच्चारण करते हों, उनको दूर से ही त्याग देना और उनसे सदा डरते रहना।।14।।

हे (99) विभो (100) जगत्स्वरूप (101) गणेश (102) भूमन् (103) पुष्टिपते (104) आखुगते (105) अतिबोध (106) स्रष्टा (107) पालक (108) संहारक—ऐसा जो उच्चारण करते हों, उनको दूर से ही त्याग देना और उनसे सदा डरते रहना।।15।।

श्रीगणेश के 108 नामों के पाठ से मिलता है खुशहाली का वरदान

यह भगवान ढुण्ढिराज गणेश का स्तोत्र है। यमराज ने दूतों को आदेश दिया कि जो लोग नित्य इन एक सौ आठ नामों का पाठ करते हैं या सुनते हैं और जिन घरों में भगवान श्रीगणेश के चिह्न हों, उनसे सदैव भयभीत होकर दूर रहना, उस घर में प्रवेश न करना। इस अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य सभी प्रकार के भोग और मोक्ष प्राप्त करता है। भगवान गणेश जब प्रसन्न हो जाते हैं तब दसों दिशाओं से मनुष्य को सुख-समृद्धि प्राप्त होती है और सारे पाप दूर हो जाते हैं। गणेशजी का स्मरण सभी सुमंगलों की खान व कार्यों में सफलता देने वाला है

भाव-भगति से कोई शरणागत आवे।
संतत सम्पत सबही भरपूर पावे।।

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सच्चा वैष्णव कौन ?

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वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर पराई जाणे रे।
पर दु:खे उपकार करे तोय, मन अभिमान न आणे रे।।

‘वैष्णव जन तो तेने कहिये’ गुजरात के संत कवि नरसी मेहता द्वारा रचित भजन है जो महात्मा गाँधी को बहुत प्रिय था। नरसीजी का कथन है कि वैष्णव वही है जिसका चित्त परदु:ख से द्रवित हो जाता है। दूसरों के दु:ख दूर करने के लिए वह कुछ भी कर सकता हैं परन्तु उनके मन में इस बात का जरा भी अभिमान नहीं होता है।

वैष्णव शब्द का सम्बन्ध भगवान विष्णु से है

नारायण: परं ब्रह्म सखं नारायण: परम्।
नारायण: परं ज्योतिरात्मा नारायण: पर:।।

वैष्णव शब्द का सम्बन्ध भगवान विष्णु से है। भगवान विष्णु (श्रीकृष्ण) ही वैष्णव धर्म के आराध्य और उपास्य भी हैं। वैष्णवजन अपने आराध्य को ठाकुरजी या प्रभुजी कहकर सम्बोधित करते हैं।

वैष्णव कहलाने के लिए वैष्णव संस्कार चाहिए, जैसे—

वैष्णव का जीवन भगवदीय होता है। उसका मन, बुद्धि और चित्त सब ठाकुरजी में लग जाता है, इसलिए वैष्णव को किसी सुख की अभिलाषा नहीं रह जाती क्योंकि ठाकुरजी को घर में पधराकर ‘हम तो सेवक हैं, घर के मालिक ठाकुरजी हैं और उनकी सेवा में जो सुख है उसकी तुलना में सभी सुख व्यर्थ हैं’—इस भावना से वह अपने मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर को भगवान की सेवा में लगा देता है। वह हर समय भगवान का स्मरण करता है और उसके हर श्वांस में भगवान का विश्वास बढ़ता है। सूरदासजी ने कहा है—

यामें कहा घटैगो तेरो।
नन्द नन्दन कर घर कौ ठाकुर अपुन ह्वै रह चेरो।।

वैष्णव अपने आहार की शुद्धि का बहुत ध्यान रखता है। दु:खों से विचलित नहीं होता और सुख में आपे से बाहर नहीं होता है। भगवान ही मेरे रक्षकसर्वस्य हैं—इस प्रकार के दैन्यभाव को धारणकर वह भगवान के चरणों में आत्मसमर्पण कर देता है।

वह भगवान से कुछ याचना नहीं करता। प्रारब्ध को वह भगवान का प्रसाद समझकर भोगता है। विषयों में उसको कोई राग नहीं होता लेकिन भगवान और उनके भक्तों से अनुराग होता है। मृत्यु को वह अपना प्रिय अतिथि मानता है। वैष्णव की दृष्टि सदैव चौथे पुरुषार्थ मोक्ष पर होती है। मोक्ष से उसका तात्पर्य संसार के आवागमन से मुक्ति नहीं वरन् ब्रह्मानन्द को अनुभव करना है। भगवान उसका योगक्षेम वहन करते, उसे स्मरण रखते और उसे परम पद प्रदान करते हैं।

कर्म करते समय वैष्णव सोचता है कि भगवान ही अपने लिए, अपनी प्रसन्नता के लिए इस कर्म को करा रहे हैं और कर्म पूरा हो जाने पर वह सोचता है कि भगवान ने ही अपने लिए, अपनी प्रसन्नता के लिए स्वयं ही यह कर्म करा लिया।

विनम्रता ही है सच्चे वैष्णव की पहचान

एक वैष्णव तीर्थयात्रा करता हुआ वृन्दावन जा रहा था। रास्ते में संध्या होने पर उसने एक गांव में रात बितानी चाही । वह सिवाय वैष्णव के किसी और के घर ठहरना नहीं चाहता था । उसे मालूम हुआ कि इस गांव में सभी वैष्णव रहते हैं । उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने गांव में जाकर एक गृहस्थ का दरवाजा खटखटाया । अंदर से एक व्यक्ति आया तो यात्री ने कहा—‘भाई! मैं वैष्णव हूँ, सुना है कि इस गांव में सभी वैष्णव रहते हैं । मैं एक रात यहां ठहरना चाहता हूँ ।’

गृहस्थ ने कहा—‘मैं तो अधम हूँ, मेरे सिवाय इस गांव में और सब वैष्णव हैं । हां, आप कृपा करके मुझे आतिथ्य करने का अवसर दें तो मैं अपने को धन्य समझूंगा ।’ यात्री ने सोचा—मुझे तो वैष्णव के घर ठहरना हैं, इसलिए उसने दूसरे व्यक्ति के दरवाजे पर जाकर पूछा । वहां भी रहने वाले व्यक्ति ने बड़ी नम्रता के साथ यह कहते हुए अपने यहां ठहरने की प्रार्थना की कि ‘भाई! मैं तो अत्यन्त नीच हूँ । मुझे छोड़कर यहां अन्य सभी वैष्णव हैं ।’

इस तरह वह यात्री पूरे गांव में भटका परन्तु किसी ने भी अपने को वैष्णव नहीं बताया बल्कि सभी ने बड़ी ही नम्रता से अपने को दीन-हीन व तुच्छ कहा । सभी गांववालों की ऐसी विनम्रता देखकर उसकी आंखें खुल गईं और वैष्णवता का झूठा चोला पहनने का उसका भ्रम दूर हो गया।

वैष्णवता का अभिमान करने से ही कोई वैष्णव नहीं होता

उसे समझ में आ गया कि वैष्णवता का अभिमान करने से ही कोई वैष्णव नहीं होता । वैष्णव तो वही है जो भगवान विष्णु की तरह अत्यन्त विनम्र है । भगवान विष्णु के हृदय पर भृगुरेखा ही उनकी विनम्रता की पहचान है । उसकी मन की आंखें खुल गईं और उसने अपने को सबसे नीचा समझकर एक वैष्णव के घर रात्रि विश्राम किया ।

भगवान विष्णु के हृदय पर भृगुरेखा

एक बार भृगु ऋषि देवों की परीक्षा करने के लिए भगवान नारायण के पास आए। भगवान नारायण शेषशय्या पर सोये हुए थे । लक्ष्मीजी सेवा कर रही थीं। भृगु ऋषि को क्रोध आ गया। सोचने लगे कि ये तो सारा दिन सोते ही रहते हैं । उन्होंने नारायण की छाती पर लात मार दी। नारायण जागे । प्रभु ने भृगु ऋषि से कहा–‘आपके कोमल चरणों को आघात लगा होगा, लाइए आपकी सेवा करूँ।’ प्रभु ने भृगु-लांछन-चिह्न छाती में धारण कर लिया।

छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात।।

लक्ष्मीजी ने कहा–‘इस ब्राह्मण को सजा दीजिए।’ पर प्रभु ने तो भृगु ऋषि की सेवा करनी शुरू कर दी । लक्ष्मीजी नाराज हो गयीं। लक्ष्मीजी ने नारायण से कहा–‘विद्या बढ़ती है तो साथ में अभिमान भी बढ़ता है जिससे विद्या और तप का विनाश हो जाता है; इसलिए इन्हें सजा दीजिए ।’ पर प्रभु ने इन्कार कर दिया। नाराज होकर लक्ष्मीजी वैकुण्ठ छोड़कर कोल्हापुर में जाकर रहीं ।

सच्चे वैष्णव के लक्षण

किसी गृहस्थ के दो पुत्र थे । एक पुत्र सवेरे ब्राह्ममुहुर्त में उठकर स्नान आदि करके पूजा करता और दूसरा पुत्र सुबह सात बजे सोकर उठता । सुबह जल्दी उठकर पूजा करने वाले को घमण्ड हो गया कि मैं बड़ा वैष्णव हूँ और ये तो बड़ा ही मूर्ख है जो सोता रहता है ।

उसने इसकी शिकायत अपने पिता से की। पिता ने कहा—‘चाहे वह मूर्ख है किन्तु वह किसी की निंदा तो नहीं करता । तुम जल्दी उठकर उसकी बुराई करने में लग जाते हो, उसका तिरस्कार करने में आनन्द अनुभव करते हो। यह सच्चे वैष्णव का लक्षण नहीं है ।’

किसी भी प्राणी के प्रति दुर्भावना रखना परमात्मा के प्रति बुरी भावना रखने के समान

पूर्वभाषी प्रसन्नात्मा सर्वेषां वीतमत्सर:।
अनसूयो गुणग्राही धार्मिको वैष्णव: स्मृत:।। (वैष्णवस्मृति)

  • सभी मनुष्यों से प्रसन्न होकर पहले बोलने वाला,
  • प्रसन्नहृदय, ईर्ष्यारहित,
  • किसी में भी दोष न देखने वाला,
  • अच्छी बातों को ग्रहण करने वाला,
  • धार्मिक और सभी कर्मों को भगवान को अर्पण करने वाला,
  • काम-क्रोध-लोभ रहित,
  • कृष्णसेवा और कृष्णकथारस में ही रत रहने वाला,
  • जो सब में ईश्वर के दर्शन करे,
  • जिससे कोई उद्विग्न न हो,
  • जिसे यह चिन्ता रहे कि मुझसे किसी का नुकसान न हो जाए, वही सच्चा वैष्णव है ।

समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, पर स्त्री जेने मात रे।
जिहृवा थकी असत्य न बोले, पर धन नव झाले हाथ रे।।

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कब से शुरु हुई शिवलिंग पूजन की परम्परा ?

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आ गई महाशिवरात्रि पधारो शंकरजी ।
कष्ट मिटाओ पार उतारो दयालु शंकरजी ।।
तुम मन-मन में हो, मन-मन में है नाम तेरा ।
तुम हो नीलकंठ, है कंठ-कंठ में नाम तेरा ।।
क्या भेंट चढ़ाएं हम, निर्धन का घर सूना है ।
ले लो ये दो आंसू ही, गंगाजल का नमूना है ।।

भगवान शिव की पूजा दो रूपों—मूर्ति और लिंग में क्यों की जाती है ?

लिंगपुराण के अनुसार शिव अविनाशी, परब्रह्म परमात्मा हैं । भगवान शिव के दो रूप हैं—सकल और निष्कल । रूप व कलाओं से युक्त होने के कारण उन्हें ‘सकल’ (समस्त अंग व आकार वाला ) कहा जाता है और लिंग रूप में अंग-आकार से रहित निराकार होने के कारण  उन्हें ‘निष्कल’ कहते हैं । शिवलिंग शिव के निराकार स्वरूप का प्रतीक है । अन्य देवताओं के आविर्भाव के समय उनका साकार रूप प्रकट होता है, जबकि भगवान शिव के साकार और निराकार दोनों ही रूपों में दर्शन होते हैं । यही कारण है कि लोग लिंग और मूर्ति —दोनों ही रूपों में भगवान शिव की पूजा करते हैं ।

ब्रह्माजी और भगवान विष्णु के मध्य हुआ श्रेष्ठता का विवाद

पूर्वकल्प में ब्रह्माजी और भगवान विष्णु के विवाद और अभिमान को मिटाने के लिए भगवान शिव ने अग्निस्तम्भ के रूप में अपना निष्कल स्वरूप प्रकट किया । उसी समय से संसार में भगवान शिव के निर्गुण लिंग व सगुण मूर्ति की पूजा प्रचलित हुई ।

चतुर्युगी के अंत में प्रलय होने पर चारों ओर जल-ही-जल हो गया । उस प्रलय के जल में भगवान विष्णु कमल पर शयन कर रहे थे । उन्हें देखकर माया से मोहित ब्रह्माजी ने कहा—‘तुम कौन हो, जो इस तरह निश्चिन्त होकर सो रहे हो ?’ भगवान विष्णु ने हंसते हुए ब्रह्माजी से कहा—‘वत्स ! बैठो ।’ यह सुनकर ब्रह्माजी ने गुस्से से कहा—‘तुम कौन हो जो मुझे वत्स कह रहे हो, तुम नहीं जानते कि मैं सृष्टि का कर्ता ब्रह्मा हूँ ।’

भगवान विष्णु ने कहा—‘जगत का कर्ता, भर्ता, हर्ता मैं हूँ । तुम तो मेरे नाभिकमल से उत्पन्न हुए हो, अत: तुम मेरे पुत्र हो । मेरी माया से मोहित होकर तुम मुझे ही भूल गये ?’

दोनों में विवाद होने लगा । दोनों ही अपने को ईश्वर सिद्ध कर रहे थे । हंस और गरुड़ पर चढ़कर दोनों आपस में युद्ध करने लगे । इससे भयभीत होकर देवगणों ने कैलास जाकर भगवान शिव से विवाद को शान्त करने की गुहार लगाई ।  

अग्निस्तम्भ (Pillar of Fire) के समान ज्योतिर्लिंग का प्राकट्य

भगवान शिव इस विवाद की शान्ति के लिए एक अति प्रकाशवान ज्योतिर्लिंग (प्रकाशस्तम्भ pillar of light या अग्निस्तम्भ pillar of fire) के रूप में प्रकट हुए । इस ज्वालामय लिंग का कोई ओर-छोर नजर नहीं आता था । उस लिंग को देखकर ब्रह्माजी और भगवान विष्णु सोचने लगे कि हम दोनों के बीच में यह कौन-सी वस्तु आ गयी है ? उन्होंने निश्चय किया कि जो कोई इस लिंग के अंतिम भाग को छूकर आएगा वही परमेश्वर माना जाएगा ।

Vishnu and Brahma made salutations to Shiva and offered him a seat. The Pillar of fire is Bhagwan Shiv.
अग्निस्तम्भ (Pillar of Fire) के समान ज्योतिर्लिंग का प्राकट्य

उस लिंग के आदि व अंत को जानने के लिए भगवान विष्णु विशाल वराह का रूप धारण कर लिंग के नीचे की ओर गए और ब्रह्मा हंस का रूप धारण कर ऊपर की ओर उड़े । दोनों थक कर वापिस आ गए किन्तु दोनों को ही उस ज्योतिर्लिंग के ओर-छोर का पता नहीं लगा । दोनों ही विचार करने लगे कि यह क्या है जिसका कहीं न आदि है न अंत?

ब्रह्माजी और भगवान विष्णु ने उस अग्निस्तम्भ को साष्टांग प्रणाम कर प्रार्थना की—‘भगवन् ! हमें अपने यथार्थ स्वरूप का दर्शन कराइए ।’ तभी उन्हें ‘ॐ ॐ’ की ध्वनि सुनाई दी । उन्होंने देखा कि ज्योतिर्लिंग की दांयी ओर अकार, बांयी ओर उकार और बीच में मकार है । अकार सूर्य की तरह, उकार अग्नि की तरह और मकार चन्द्रमा की तरह चमक रहे थे । सम्पूर्ण वेदों में इस प्रणव को ब्रह्म कहा गया है । दोनों ने उन तीनों वर्णों के ऊपर साक्षात् ब्रह्म की तरह भगवान शिव को देखा ।

भगवान शिव ने उन्हें दिव्य ज्ञान देते हुए कहा—‘जो अग्निस्तम्भ तुम दोनों को पहले दिखाई दिया था, वह मेरा निर्गुण, निराकार और निष्कल स्वरूप है, जो मेरे ब्रह्मभाव को दिखाता है; यही वास्तविक स्वरूप है, इसी का ध्यान करना चाहिए और साक्षात् महेश्वर मेरा सकल रूप है ।

ब्रह्माजी और भगवान विष्णु द्वारा की गयी शिव पूजा का दिन कहलाता है शिवरात्रि

भगवान शिव के दर्शन पाकर ब्रह्माजी और भगवान विष्णु ने विभिन्न वस्तुओं—चंदन, अगरु, वस्त्र, यज्ञोपवीत, पुष्पमाला, हार, नूपुर, केयूर, किरीट, कुण्डल, पुष्प, नैवेद्य, ताम्बूल, धूप, दीप, छत्र, ध्वजा, चंवर आदि से भगवान शिव की पूजा की और स्तुति करते हुए कहा—

नमो निष्कलरूपाय नमो निष्कलतेजसे ।
नम: सकलनाथाय नमस्ते  सकलात्मने ।।

प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अचल भक्ति का वरदान देते हुए कहा—‘तुम दोनों ज्योतिर्लिंग की उपासना कर सृष्टि का कार्य बढ़ाओ । आज के दिन तुम्हारे द्वारा मेरी पूजा होने से यह दिन परम पवित्र ‘शिवरात्रि’ के नाम से प्रसिद्ध होगा । इस समय जो मेरे लिंग और मूर्ति की पूजा करेगा, उसे पूरे वर्ष भर की मेरी पूजा का फल प्राप्त होगा । पूजा करने वालों के लिए मूर्ति और लिंग दोनों समान है, फिर भी मूर्ति से लिंग का स्थान ऊंचा है । शिवलिंग का पूजन सभी प्रकार के भोग और मोक्ष देने वाला है ।’

उच्च कोटि के साधक ज्योतिर्लिंग का ध्यान हृदय में, आज्ञाचक्र में या ब्रह्मरन्ध्र में करते हैं परन्तु साधारण लोगों के लिए पूजा का यह रूप अत्यन्त कठिन है । अत: भगवान शिव लिंग के रूप में प्रतिष्ठित हुए । उसी समय से संसार में शिवलिंग के पूजन की परम्परा शुरु हुई ।

ब्रह्ममुरारि सुरार्चितलिंगं निर्मलभासित शोभितलिंगं ।
जन्मदु:ख विनाशकलिंग तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगं ।। (लिंगाष्टक १)

अर्थात्—जो लिंग स्वरूप में ब्रह्मा, विष्णु एवं समस्त देवताओं द्वारा पूजित है और निर्मल कान्ति से सुशोभित है, जो लिंग जन्मजय दु:ख का विनाशक है अर्थात् मोक्ष देने वाला है, उस सदाशिव लिंग को मैं प्रणाम करता हूँ ।

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अद्भुत है शिवलिंग की उपासना

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सृष्टि के आरम्भ से ही ब्रह्मा आदि सभी देवता, रामावतार में भगवान श्रीराम, ऋषि-मुनि, यक्ष, विद्याधर, सिद्धगण, पितर, दैत्य, राक्षस, पिशाच, किन्नर आदि विभिन्न प्रकार के शिवलिंगों का पूजन करते आए हैं। जहां शिवलिंग की उपासना से देवताओं को स्वर्ग का राज्य, कुबेर को लंका का निवास, मन के समान वेगशाली पुष्कर विमान, लोकपाल का पद  तथा राज्य-सम्पत्ति प्राप्त हुई; मार्कण्डेय, लोमश आदि ऋषियों को दीर्घ आयु, ज्ञान आदि की प्राप्ति हुई; वहीं पृथ्वी पर राजाओं ने शिवपूजन से अष्ट सिद्धि नवनिधि के साथ चक्रवर्ती साम्राज्य प्राप्त किया । इसलिए लिंग के रूप में सदैव भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए । लिंग के मूल में ब्रह्मा, मध्य में भगवान विष्णु व ऊपरी भाग में प्रणव रूप में भगवान शिव विराजमान रहते हैं । लिंग की वेदी पार्वती हैं और लिंग महादेव हैं । जो वेदी के साथ लिंग की पूजा करता है उसने शिव और पार्वती का पूजन कर लिया ।

देवताओं के द्वारा विभिन्न प्रकार के शिवलिंगों का पूजन

ब्रह्माजी की आज्ञा से विश्वकर्मा ने विभिन्न पदार्थों से शिवलिंगों का निर्माण कर देवताओं को दिए ।

चित्र सोना, हीरा, पन्ना, नीलम, अष्टधातु और पीतल का शिवलिंग
चित्र सोना, हीरा, पन्ना, नीलम, अष्टधातु और पीतल का शिवलिंग

किस देवता ने की किस प्रकार के शिवलिंग की पूजा

  • विष्णु ने सदा नीलकान्तमणि (नीलम) से बने लिंग की पूजा की;
  • इन्द्र ने पद्मरागमणि (पुखराज) से निर्मित लिंग की;
  • कुबेर ने सोने के लिंग की;
  • विश्वेदेवों ने चांदी के शिवलिंग की;
  • वसुओं ने चन्द्रकान्तमणि से बने लिंग की;
  • वायु ने पीतल से बने लिंग की;
  • अश्विनीकुमारों ने मिट्टी से बने लिंग की;
  • वरुण ने स्फटिक के लिंग की;
  • आदित्यों ने तांबे से बने लिंग की;
  • सोमराट् ने मोती से बने लिंग की
  • अनन्त आदि नागों ने प्रवाल (मूंगा) निर्मित लिंग की;
  • दैत्यों और राक्षसों ने लोहे से बने लिंग की;
  • चामुण्डा आदि सभी मातृशक्तियों ने बालू से बने लिंग की;
  • यम ने मरकतमणि (पन्न) से बने लिंग की;
  • रुद्रों ने भस्मनिर्मित लिंग की;
  • लक्ष्मी ने लक्ष्मीवृक्ष बेल से बने लिंग की;
  • गुह ने गोयम (गोबर) लिंग की;
  • मुनियों ने कुश के अग्रभाग से निर्मित लिंग की;
  • वामदेव ने पुष्पलिंग की;
  • सरस्वती ने रत्नलिंग की;
  • मन्त्रों ने घी से निर्मित लिंग की;
  • वेदों ने दधिलिंग की; और
  • पिशाचों ने सीस से बने लिंग की पूजा की ।

विभिन्न प्रकार के शिवलिंग की पूजा का फल

सुन्दर घर, बहुमूल्य आभूषण, सुन्दर पति/पत्नी, मनचाहा धन, अपार भोग और स्वर्ग का राज्य—ये सब शिवलिंग की पूजा के फल हैं । शिवोपासना करने वाले मनुष्य की न तो अकालमृत्यु होती है और न सर्दी या गर्मी आदि से ही उसकी मृत्यु होती है । लिंग विभिन्न वस्तुओं से बनाए जाते हैं और उनके पूजन का फल भी अलग होता है अत: अपनी मनोकामना के अनुसार शिवलिंग का चयन कर पूजन करना चाहिए ।

  • दो भाग कस्तूरी, चार भाग चंदन तथा तीन भाग कुंकुम से गंध लिंग बनाया जाता है । इसकी पूजा से शिव सायुज्य की प्राप्ति होती है ।
  • सुगन्धित पुष्पों से पुष्प लिंग बनाकर पूजा करने से राज्य की प्राप्ति होती है ।
  • बालु से ‘बालुकामय लिंग’ बनाकर पूजन करने से व्यक्ति शिव सायुज्य पाता है ।
  • आरोग्य लाभ के लिए मिश्री से ‘सिता खण्डमय लिंग’ का निर्माण किया जाता है ।
  • हरताल, त्रिकटु को लवण में मिलाकर ‘लवणज लिंग बनाया जाता है। यह वशीकरण करने वाला और सौभाग्य देने वाला है ।
  • भस्ममय लिंग सर्वफल प्रदायक माना गया है ।
  • जौ, गेहूँ और चावल के आटे का बने यव गोधूम शालिज लिंग के पूजन से स्त्री, पुत्र तथा श्री सुख की प्राप्ति होती है ।
  • तिल को पीस कर तिलपिष्टोत्थ लिंग बनाया जाता है । यह मनोकामना पूर्ण करता है ।
  • गुडोत्थ लिंग प्रीति में बढ़ोतरी करता है ।
  • वंशांकुर निर्मित लिंग बांस के अंकुर से बनाया जाता है । इससे वंश बढ़ता है ।
  • केशास्थि लिंग शत्रुओं का नाश करता है ।
  • दूध, दही से बने शिवलिंग का पूजन कीर्ति, लक्ष्मी और सुख देता है ।
  • रत्ननिर्मित लिंग लक्ष्मी प्रदान करने वाला है ।
  • पाषाण लिंग समस्त सिद्धियों को देने वाला है ।
  • धातुनिर्मित लिंग धन प्रदान करता है ।
  • काष्ठ लिंग भोगसिद्धि देने वाला है ।
  • दूर्वा से बना लिंग अकालमृत्यु का नाश करता है ।
  • कर्पूरज लिंग मुक्ति देने वाला है ।
  • मौक्तिक लिंग सौभाग्य देने वाला है ।
  • स्वर्ण लिंग महामुक्तिप्रद है ।
  • धान्यज लिंग धान्य देने वाला है ।
  • फलोत्थ लिंग फलप्रद है ।
  • नवनीत लिंग कीर्ति और सौभाग्य देने वाला है ।
  • धात्रीफल (आंवला) से बना लिंग मुक्ति देने वाला है।
  • पीतल और कांसे का लिंग मुक्ति देने वाला है ।
  • सीसे का लिंग शत्रुनाशक है ।
  • अष्टधातुज लिंग सर्वसिद्धि देने वाला है ।
  • स्फटिक लिंग सर्वकामप्रद होता है ।
  • मिट्टी से बना पार्थिव लिंग सभी सिद्धियों को देने वाला और शिवसायुज्य को देने वाला है ।
  • पारद लिंग का सबसे अधिक माहात्म्य है। ‘पारद’ शब्द में प=विष्णु, आ=कालिका, र= शिव, द= ब्रह्मा—ये सब स्थित होते हैं। पारदलिंग की एक बार भी पूजा करने से धन, ज्ञान, सिद्धि और ऐश्वर्य मिलते हैं ।
  • नर्मदा नदी के सभी कंकर ‘शंकर’ माने गए हैं। इन्हें नर्मदेश्वर या बाणलिंग भी कहते हैं। लिंगार्चन में बाणलिंग का अपना अलग ही महत्व है। यह हर प्रकार के भोग व मोक्ष देने वाला है।

कलियुग में इन चीजों से बने शिवलिंग की पूजा का है निषेध

तांबा, सीसा, रक्तचंदन, शंख, कांसा, लोहा—इनसे बने लिंगों की पूजा कलियुग में वर्जित है ।

शिवरात्रि पर अपनी कामना के अनुसार करें शिवलिंग का चयन

शिव की उपासना में जहां रत्नों व मणियों से बने लिंगों की पूजा में अपार वैभव देखने को मिलता है, वहीं मिट्टी से शिवलिंग बनाकर केवल, जल, चावल और बिल्वपत्र अर्पित कर देने व ‘बम-बम भोले’ कहने से ही शिव कृपा सहज ही प्राप्त हो जाती है।

औढरदानी उदार अपार जु नैक सी सेवा तें ढुरि जावैं।
दमन अशान्ति, समन संकट विरद विचार जनहिं अपनावै ।।
ऐसे कपालु कृपामय देव के क्यों न सरन अबहिं चलि जावैं ।
बड़भागी नरनारि सोई जो साम्ब सदाशिव को नित ध्यावैं ।। (शिवाष्टक)

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यमराज को मिला मृत्युदण्ड

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प्रबल प्रेम के पाले पड़कर शिव को नियम बदलते देखा ।
उनका मान टले टल जाये, भक्त का बाल-बांका न होते देखा ।।

जब से भगवान हैं, तभी से उनके भक्त हैं और जब से भगवान की कथाएं हैं, तभी से भक्तों की कथा शुरु होती है । बिना भक्तों के अकेले भगवान की कोई कथा-लीला हो ही नहीं सकती; क्योंकि भक्त ही भगवान की लीला के अंग होते हैं ।

मृत्यु को कोई जीत नहीं सकता। स्वयं ब्रह्मा भी चतुर्युगी के अंत में मृत्यु के द्वारा परब्रह्म में लीन हो जाते हैं।लेकिन भगवान शिव ने अनेक बार मृत्यु को पराजित किया है इसलिए वे ‘मृत्युंजय’ और काल के भी काल महाकाल कहलाते हैं ।

ईश्वर के प्रिय भक्त का स्वामी ईश्वर ही होता है । उस पर मौत का भी अधिकार नहीं होता है । यमराज भी उस पर जबरदस्ती करे तो मौत (यमराज) की भी मौत हो जाती है । यह प्रसंग कोई काल्पनिक नहीं हैं वरन् महान शिवभक्त राजा श्वेत के जीवन पर आधारित है ।

महान शिवभक्त श्वेतमुनि

प्राचीन काल में कालंजर में शिवभक्त राजा श्वेत राज्य करते थे । उनकी भक्ति से राज्य में अन्न, जल की कमी नहीं थी । राज्य में राग, द्वेष, चिन्ता और अकाल नहीं था । वृद्ध होने पर राजा श्वेत पुत्र को राज्य सौंप कर गोदावरी नदी के तट पर एक गुफा में शिवलिंग स्थापित कर शिव की आराधना में लग गए । अब वे राजा श्वेत से महामुनि श्वेत बन गए थे । उनकी गुफा के चारों ओर पवित्रता, दिव्यता और सात्विकता का राज्य था । निर्जन गुफा में मुनि ने शिवभक्ति का प्रकाश फैलाया था । श्वेतमुनि को न रोग था न शोक; इसलिए उनकी आयु पूरी हो चुकी है, इसका आभास भी उन्हें नहीं हुआ । उनका सारा ध्यान शिव में लगा था । वे अभय होकर रुद्राध्याय का पाठ कर रहे थे और उनका रोम-रोम शिव के स्तवन से प्रतिध्वनित हो रहा था ।

काल के भी काल महाकाल

यमदूतों ने मुनि के प्राण लेने के लिए जब गुफा में प्रवेश किया तो गुफा के द्वार पर ही उनके अंग शिथिल हो गए । वे गुफा के द्वार पर ही खड़े होकर श्वेतमुनि की प्रतीक्षा करने लगे । इधर जब मृत्यु का समय निकलने लगा तो चित्रगुप्त ने मृत्युदेव से पूछा—‘श्वेत अब तक यहां क्यों नहीं आया ? तुम्हारे दूत भी अभी तक नहीं लौटे हैं । ऐसी अनियमितता ठीक नहीं है ?’ यह सुनकर क्रोधित मृत्युदेव स्वयं श्वेत के प्राण लेने के लिए आए । लेकिन गुफा के द्वार पर कांपते हुए यमदूतों ने मृत्युदेव से कहा—‘श्वेत तो अब राजा न रहकर महामुनि हैं, वे शिव के परम भक्त व उनके द्वारा सुरक्षित हो गए है, हम उनकी ओर आंख उठाकर देखने में भी समर्थ नहीं हैं ।‘

मृत्यु उसका क्या कर सकती है जिसने मृत्युंजय की शरण ली है?

मृत्युदेव स्वयं पाश लेकर श्वेतमुनि की कुटिया में प्रवेश करने लगे । श्वेतमुनि उस समय भगवान शंकर की पूजा कर रहे थे । सहसा अपने सामने काले वस्त्र पहने, काले व विकराल शरीर वाले मृत्युदेव को देखकर वे चौंक पड़े और शिवलिंग का स्पर्श कर बोले—‘मृत्युदेव ! आप यहां क्यों पधारे हैं । आप यहां से चले जाइए । जब वृषभध्वज मेरे रक्षक हैं तो मुझे किसी का भय नहीं, महादेव इस शिवलिंग में विद्यमान हैं ।’

मृत्युदेव ने अनसुनी करके कहा—‘मुझसे ग्रस्त प्राणी को ब्रह्मा, विष्णु, महेश में से कोई भी नहीं बचा सकता । मैं तुम्हें यमलोक ले जाने आया हूँ ।’

श्वेतमुनि ने निर्भयता से शिवलिंग को अंक में भरते हुए कहा—‘तुमने काल के भी काल महाकाल की भक्ति को चुनौती दी है, भगवान उमापति कण-कण में व्याप्त हैं । विश्वासपूर्वक उनको पुकारने पर वे भक्त की रक्षा अवश्य करते हैं  ।’

‘मुझे तुम्हारे आराध्य से कोई भय नहीं। तुम कहते हो कि इस लिंग में महादेव हैं पर यह तो निश्चेष्ट है, तब यह कैसे पूज्य है ?’ यह कहकर क्रोधित मृत्युदेव ने हाथ में पाश लेकर श्वेतमुनि पर फंदा डाल दिया ।

शिव की आज्ञा से श्वेतमुनि की रक्षा के लिए उनके समीप भैरव बाबा खड़े थे । उन्होंने मृत्युदेव को वापिस लौट जाने की चेतावनी दी ।

मौत की भी मौत

भक्त पर मृत्यु का यह आक्रमण भैरव बाबा को सहन नहीं हुआ । उन्होंने मृत्युदेव पर डंडे से प्रहार कर दिया जिससे मृत्युदेव वहीं पर ठंडे हो गए ।

कांपते हुए यमदूतों ने यमराज के पास जाकर सारा हाल सुनाया । मृत्युदेव की मृत्यु का समाचार सुनकर  क्रोधित यमराज हाथ में यमदण्ड लेकर भैंसे पर सवार होकर अपनी सेना (चित्रगुप्त, आधि-व्याधि आदि) के साथ वहां पहुंचे ।

शिवजी के पार्षद पहले से ही वहां खड़े थे । सेनापति कार्तिकेय ने शक्तिअस्त्र यमराज पर छोड़ा जिससे यमराज की भी मृत्यु हो गयी । यमदूतों ने भगवान सूर्य के पास जाकर सारा समाचार सुनाया ।

अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर भगवान सूर्य ब्रह्माजी व देवताओं के साथ उस स्थान पर आए जहां यमराज अपनी सेना के साथ मरे पड़े थे । देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की ।

‘हमारा प्राकटय विश्वास के ही अधीन है’—यह कहकर भगवान शिव प्रकट हो गए। उनकी जटा में पतितपावनी गंगा रमण कर रही थीं, भुजाओं में फुफकारते हुए सर्पों के कंगन पहन रखे थे, वक्षस्थल पर भुजंग का हार और कर्पूर के समान गौर शरीर पर चिताभस्म का श्रृंगार सुन्दर लग रहा था ।

देवताओं ने कहा—‘भगवन् ! यमराज सूर्य के पुत्र हैं । वे लोकपाल हैं, आपने ही इनकी धर्म-अधर्म व्यवस्था के नियन्त्रक के रूप में नियुक्ति की है । इनका वध सही नहीं है । इनके बिना सृष्टि का कार्य असम्भव हो जाएगा । अत: सेना सहित इन्हें जीवित कर दें नहीं तो अव्यवस्था फैल जाएगी ।’

भगवान शंकर ने कहा—‘मैं भी व्यवस्था के पक्ष में हूँ। मेरे और भगवान विष्णु के जो भक्त हैं, उनके स्वामी स्वयं हम लोग हैं । मृत्यु का उन पर कोई अधिकार नहीं होता । स्वयं यमराज और उनके दूतों का उनकी ओर देखना भी पाप है । यमराज के लिए भी यह व्यवस्था की गयी है कि वे भक्तों को प्रणाम करें ।’

भगवान शिव ने दिया यमराज को प्राणदान

भगवान शिव ने देवताओं की बात मान ली । शिवजी की आज्ञा से नन्दीश्वर ने गौतमी नदी का जल लाकर यमराज और उनके दूतों पर छिड़का जिससे सब जीवित हो उठे । यमराज ने श्वेतमुनि से कहा—‘सम्पूर्ण लोकों में अजेय मुझे भी तुमने जीत लिया है, अब मैं तुम्हारा अनुगामी हूँ । तुम भगवान शिव की ओर से मुझे अभय प्रदान करो ।’

श्वेतमुनि ने यमराज से कहा—‘भक्त तो विनम्रता की मूर्ति होते हैं । आपके भय से ही सत्पुरुष परमात्मा की शरण लेते हैं ।’ प्रसन्न होकर यमराज अपने लोक को चले गए।

शिवजी ने श्वेतमुनि की पीठ पर अपना वरद हस्त रखते हुए कहा—‘‘आपकी लिंगोपासना धन्य है, श्वेत ! विश्वास की विजय तो होती है ।’

श्वेतमुनि शिवलोक चले गए । यह स्थान गौतमी के तट पर मृत्युंजय तीर्थ कहलाता है ।

वामदेवं महादेवं लोकनाथं जगद्गुरुम् ।
नमामि शिरसा देवं किं नो मृत्यु: करिष्यति ।।

अर्थात्—जिनके वामदेव, महादेव, विश्वनाथ और जगद्गुरु नाम हैं, उन भगवान शिव को मैं मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ, मृत्यु मेरा क्या कर लेगी ?

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ग्रह-नक्षत्र, कर्मफल और सुख-दु:ख

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प्रभु बैठे आकाश में लेकर कलम दवात ।
खाते में वह हर घड़ी लिखते सबकी बात ।।
मेरे मालिक की दुकान में सब लोगों का खाता ।
जितना जिसके भाग्य में होता वह उतना ही पाता ।।
क्या साधु क्या संत, गृहस्थी, क्या राजा क्या रानी ।
प्रभु की पुस्तक में लिखी है सबकी कर्म कहानी ।।
सभी जनों के जमाखर्च का सही हिसाब लगाता ।
बड़े-बड़े कानून प्रभु के, बड़ी बड़ी मर्यादा ।।
किसी को कौड़ी कम नहीं देता और न दमड़ी ज्यादा ।
इसीलिए तो दुनिया में वह जगतसेठ कहलाता ।।
करते हैं सभी फैसले प्रभु आसन पर डट के ।
उनके फैसले कभी न बदले, लाख कोई सर पटके ।।
समझदार तो चुप रहता है, मूर्ख शोर मचाता ।
अच्छी करनी करो चतुरजन, कर्म न करियो काला ।।
धर्म कर्म मत भूलो रे भैया, समय गुजरता जाता ।
मेरे मालिक की दुकान में सब लोगों का खाता ।।

स्वकर्म से ही बनती है मनुष्य की जन्मकुण्डली

सबको अपना भविष्य जानने की इच्छा होती है, इसके लिए हम ज्योतिष का सहारा लेते हैं । ज्योतिषशास्त्र कर्मफल बताने की विद्या है । ज्योतिषशास्त्र किसी भी मनुष्य के भावी सुख-दु:ख की भविष्यवाणी करता है और ग्रहों को इसका कारण मानकर ग्रहशान्ति के लिए दान-जप-हवन आदि उपाय बताता है ।

कर्मों की गहन गति

यह संसार मनुष्य की कर्मभूमि और भोगभूमि दोनों है। जन्म-जन्मान्तर में किए हुए समस्त कर्म संस्काररूप से मनुष्य के अंतकरण में एकत्र रहते हैं, उनका नाम संचित कर्म है । उनमें से जो वर्तमान जन्म में फल देने के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं, उनका नाम प्रारब्ध कर्म’ है और वर्तमान समय में किए जाने वाले कर्मों को क्रियमाण कर्म’ कहते हैं । ज्योतिषशास्त्र इन्हीं कर्मों के फल को उसी प्रकार दिखलाता है जैसे अंधेरे में पड़ी हुई वस्तु को दीपक का प्रकाश ।

ग्रह-नक्षत्र शुभ-अशुभ फल नहीं देते, मनुष्य के कर्म से मिलता है सुख-दु:ख

महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार एक बार भगवान शंकर से पार्वतीजी ने पूछा—मनुष्यों की जो अच्छी-बुरी अवस्था है, वह सब उनकी अपनी ही करनी का फल है, किन्तु संसार में लोग शुभ-अशुभ कर्म को ग्रहजनित मानकर ग्रह-नक्षत्रों की आराधना करते रहते हैं, क्या यह ठीक है ?

भगवान शंकर ने कहा—‘ग्रहों ने कुछ नहीं किया । ग्रह-नक्षत्र शुभ-अशुभ कर्मफल को उपस्थित नहीं करते हैं, अपना ही किया हुआ सारा कर्म शुभ-अशुभ फल देने वाला है ।’

शुभ कर्मफल की सूचना शुभ ग्रहों द्वारा और बुरे कर्मों की सूचना अशुभ ग्रहों द्वारा होती है

वास्तव में किसी भी मनुष्य के सुख-दु:ख का कारण ग्रह-नक्षत्र नहीं है । ग्रह कर्मों के फलदाता और कर्मफलों के सूचक हैं। जीवों के कर्मों का फल देने वाले भगवान श्रीविष्णु ही ग्रहरूप में रहते हैं । सूर्य का रामावतार, चन्द्रमा का कृष्णावतार, मंगल का नृसिंहावतार, बुध का बुद्धावतार, बृहस्पति का वामनावतार, शुक्र का परशुरामावतार, शनि का कूर्मावतार, राहु का वराहावतार और केतु का मीनावतार है । (लोमशसंहिता)

मनुष्य के कर्मफल का भण्डार अक्षय है उसे भोगने के लिए ही जीव चौरासी लाख योनियों में शरीर धारण करता आ रहा है। इसीलिए मानव शरीर का एक नाम ‘भोगायतन’ है।

कर्मफल अटल हैं इन्हें भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता है। हम अपने सुख-दु:ख, सौभाग्य-दुर्भाग्य के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं, इसके लिए विधाता या अन्य किसी को दोष नहीं दिया जा सकता है—ऐसा जानकर शान्त रहना चाहिए।

रामचरितमानस में तुलसीदासजी कहते हैं—

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ।। (राचमा २।९२।४)

प्रकृति ने मानव जीवन में सन्तुलन के लिए यह व्यवस्था की है कि कुण्डली में छ: भाव सुख के व छ: भाव दु:ख के हैं । दु:ख के बीज से सुख का अंकुर फूटता है। सुख के फल में दु:ख की गुठली होती है । सुख-दु:ख दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जैसा बोयेंगे वैसा पायेंगे

जो हम बोते हैं, वही हमें कई गुना होकर वापिस मिलता है । प्रकृति की इस व्यवस्था से सुख बांटने पर वह हमें कई गुना होकर वापिस मिलता है और दूसरों को दु:ख देने पर वह भी कई गुना होकर हमारे पास आता है । जैसे बिना मांगे दु:ख मिलता है, वैसे ही बिना प्रयत्न के सुख मिलता है ।

करम प्रधान बिस्व करि राखा ।
जो जस करइ तो तस फलु चाखा ।। (राचमा २।२१९।४)

जब सुख-दु:ख हमारे ही कर्मों का फल है तो सुख आने पर हम क्यों फूल जाएं और दु:ख पड़ने पर मुरझाएं क्यों ? क्योंकि सुख-दु:ख सदा रहने वाले नहीं और क्षण-क्षण में बदलने वाले हैं । सुख-दु:ख जब अपनी ही करनी का फल हैं तो एक के साथ राग और दूसरे के साथ द्वेष किसलिए ? गीता में भगवान कहते हैं—

इहैव तैर्जित सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन: । (५। १९)

अर्थात्—जिन लोगों के मन में सुख-दु:ख के भोग में समता आ गई है उन्होंने तो इसी जन्म में और इसी शरीर से ही संसार को जीत लिया और वे जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो गए ।

मनुष्य स्वयं भाग्यविधाता

भाग्य का विधान अटल है । जितने भी ज्योतिषीय उपाय हैं, वे सब तात्कालिक हैं । मनुष्य यदि अपने को एक  खूंटे (इष्टदेव) से बांध ले और ध्यान-जप, सत्कर्म और ईश्वरभक्ति को अपना ले तो जीवन में सब कुछ शुभ ही होगा । कर्म रूपी पुरुषार्थ से ही मनचाहे फल की प्राप्ति होती है । मनुष्य स्वयं भाग्यविधाता है काल तो केवल कर्मफल को प्रस्तुत कर देता है ।

यदि मनुष्य जन्म-मरण के जंजाल से छूटना चाहता है तो भगवान ने उसका भी रास्ता गीता में बताया है—

‘ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरते तथा ।’ (अध्याय ४। ३७)

ज्ञानरूपी अग्नि संचित कर्म के बड़े-से-बड़े भण्डार को क्षणभर में जला डालती है । ज्ञान की चिनगारी जब पाप के ईंधन पर गिरती है तो पाप जलते हैं । ज्ञान को अपनाने पर कर्म सुधरेंगे । तत्वज्ञान होने से कर्म वास्तव में कर्म नहीं रह जाते तब उनका फल तो कैसे ही हो सकता है ? अत: समस्त कर्मों के साथ उनका कर्मफल भी मिट जाता है और जीव को पुन: शरीर धारण नहीं करना पड़ता ।

यह ज्ञान क्या है? यह है—

हम भगवान के हैं, वे हमारे हैं, फिर उनसे हमारा भेद क्या? हम दासत्व स्वीकार कर लें और जो कुछ करें उनके लिए करें (सब कर्म कृष्णार्पण कर दें) या फल की भावना का त्याग कर दें नहीं तो कर्म रूपी भयंकर सर्प काटता ही रहेगा। करने में सावधान रहें और जो हो जाए उसमें प्रसन्न रहे एवं भगवन्नाम जपते रहें, आप एक सच्चे कर्मयोगी बन जाएंगे।

कर से कर्म करो विधि नाना ।
मन राखो जहां कृपा निधाना ।।

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भगवान श्रीकृष्ण और माया

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माया महा ठगनी हम जानी ।
तिरगुन फांस लिए कर डोले, बोले मधुरे बानी ।।
केसव के कमला वे बैठी, शिव के भवन भवानी ।
पंडा के मूरत वे बैठीं, तीरथ में भई पानी ।।
योगी के योगन वे बैठी, राजा के घर रानी ।
काहू के हीरा वे बैठी, काहू के कौड़ी कानी ।।
भगतन की भगतिन वे बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्माणी ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, यह सब अकथ कहानी ।।  (कबीर)

कबीरदासजी का कहना है कि माया महा ठगिनी है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता । यह सत्व, रज, तम—इन तीन गुणों की फांसी लेकर और मीठी वाणी बोलकर जीव को बंधन में जकड़ देती है ।

माया या योगमाया

भगवान की यह योगमाया उनकी अत्यन्त प्रभावशाली वैष्णवी ऐश्वर्यशक्ति है जिसके वश में सम्पूर्ण जगत रहता है । उसी योगमाया को अपने वश में करके भगवान लीला के लिए दिव्य गुणों के साथ मनुष्य जन्म धारण करते हैं और साधारण मनुष्य से ही प्रतीत होते हैं । इसी मायाशक्ति का नाम योगमाया है ।

गीता (४।६) में भगवान श्रीकृष्ण का कथन है—‘मैं अजन्मा और अविनाशी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।’

मायाधिपति श्रीकृष्ण और माया

सृष्टि के आरम्भ में परमब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण ने माया को अपने पास बुलाकर कहा कि मैंने संसार की रचना कर ली है अब इस संसार को चलाना तेरा काम है । माया ने कहा–‘भगवन् ! मुझे स्वीकार है, किन्तु एक प्रार्थना है ।’ भगवान ने कहा–‘कहो, क्या प्रार्थना है?’

माया ने कहा–’प्रभु ! इस संसार को चलाने के लिए जिन आकर्षणों की आवश्यकता है, वह तो सब-के-सब आपके पास हैं, उनमें से एक-आध मुझे भी दें ताकि मैं जीवों को अपने जाल में फंसाकर रख सकूं ।’

भगवान ने कहा–‘बोलो क्या चाहिए ?’  माया ने कहा–‘प्रभु ! आप आनन्द के सागर हैं, मेरे पास दु:ख के सिवाय क्या है ?  कृपया आप उस आनन्द के सागर की एक बूंद मुझे भी दे दें ताकि मैं उस एक बूंद का रस संसार के इन समस्त जीवों में बांटकर उन्हें अपने वश में रख सकूं, अन्यथा वे मेरी बात नहीं मानेंगे और सीधे आपके दरबार में पहुंच जाएंगे ।’

भगवान ने अपने आनन्द के सागर की एक बूंद माया को देकर कहा—‘जा, इस बूंद को पांच भागों में विभक्त करके मनुष्यों में बांट देना ।’ प्रसन्न होकर माया ने भगवान से कहा–‘प्रभु ! आप निश्चिन्त रहें, आपके द्वारा सौंपे गए कार्य में कोई विघ्न नहीं आने दूंगी ।’

माया ने आनन्द रूपी सागर की बूंद को पांच भागों–रूप, रस गन्ध, शब्द और स्पर्श में विभक्त कर संसार में फैला दिया । इसलिए संसार में सुख और आनन्द प्राप्ति का इन पांच स्थानों के अलावा और कोई स्थान नहीं है । ये पांच गुण–रूप, रस गन्ध, शब्द और स्पर्श क्रमश: हमें अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश और वायु से प्राप्त होते हैं ।

माया के पांच स्थान हैं पांच ज्ञानेन्द्रियां

इन्हीं पांच तत्त्वों से इस शरीर की रचना हुई है । इन्हीं पांच तत्त्वों को ग्रहण करने के लिए भगवान ने हमें आंख, नाक, कान, जिह्वा और त्वचा—ये पांच ज्ञानेन्द्रियां दे रखी हैं । नासिका के द्वारा हम पृथ्वी के गन्धरूपी गुण को, जिह्वा के द्वारा जल के रसरूपी गुण को, कानों के द्वारा आकाश के शब्दरूपी गुण को और आंखों के द्वारा अग्नि के रूप गुण अर्थात् सुन्दरता को और त्वचा द्वारा वायु के स्पर्श गुण को ग्रहण करते हैं ।

माया के द्वारा फेंके गए मायाजाल में मनुष्य बहुत बुरी तरह जकड़ा हुआ है । मायापति श्रीकृष्ण की माया से मनुष्य ही नहीं वरन् बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी भ्रमित हो जाते हैं ।

मायाधिपति श्रीकृष्ण का दुर्वासा ऋषि को अपनी माया का दर्शन कराना

कृष्णावतार में एक दिन दुर्वासा ऋषि परमात्मा श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिए व्रज में आए । उन्होंने महावन के निकट कालिन्दी के तट पर श्रीकृष्ण को गोपसखाओं के साथ बालु में लोटते और आपस में मल्लयुद्ध करते हुए देखा—‘धूलिधूसर सर्वांगं वक्रकेशं दिगम्बरम् ।’

श्रीकृष्ण का सारा शरीर धूल से भरा था, बाल टेढ़े-मेढ़े बिखरे हुए, नंग-धडंग—शरीर पर कोई वस्त्र नहीं और वे गोपबालकों के पीछे दौड़े चले जा रहे थे । परब्रह्म श्रीकृष्ण इस रूप में ! ऋषि आए थे परमात्मा के दर्शन की अभिलाषा से, परन्तु ब्रह्म को जिस वेष में देखा, वह आश्चर्य में पड़ गए। परब्रह्म के जो लक्षण उनके हृदय में बैठे हुए थे वे तो श्रीकृष्ण से मिलते नहीं थे ।

भगवान की माया ने उनके मन में एक शंका और पैदा कर दी—

‘क्या ये ईश्वर हैं ? भगवान हैं तो फिर साधारण बालक की तरह भूमि पर क्यों लोट रहे हैं ? नहीं, ये परमात्मा श्रीकृष्ण नहीं हैं । ये तो नन्दबाबा के पुत्रमात्र हैं, ये ईश्वर नहीं हैं !!’

भगवान की लीला का आयोजन योगमाया ही करती है

दुर्वासा ऋषि को भगवान श्रीकृष्ण का मायावैभव प्रकट कराने के लिए योगमाया प्रकट हुईं । योगमाया सारे खेल का आयोजन करती है । सबके सामने भगवान योगमाया से ढके रहते हैं परन्तु प्रेमीभक्तों के सामने भगवान योगमाया से अनावृत (प्रकट रूप में) रहते हैं ।

श्रीकृष्ण नन्हीं-नन्हीं भुजाओं को उठाये हुए, दौड़ते हुए ऋषि की गोद में आकर बैठ गए और जोर से हंसने लगे ।भगवान हंसकर ही तो जीवों को फंसा लेते हैं । यही तो उनका जादू है ।

खिलखिलाकर हंसते श्रीकृष्ण के मुख में श्वास के साथ योगमाया दुर्वासा ऋषि को खींच लेती है और होंठों के कपाट बंद कर देती है।  अब योगमाया ने दुर्वासा ऋषि को भगवान का वैभव दिखाना शुरु किया। भगवान के मुख में दुर्वासा ऋषि ने सातों लोकों का, पाताल सहित सारे ब्रह्माण्ड का, प्रलय का और अंत में गोलोक का दर्शन किया जहां दिव्य कमल पर साक्षात् गोलोकबिहारी श्रीराधाकृष्ण बैठे हुए थे ।

गोलोकबिहारी श्रीकृष्ण दुर्वासा ऋषि को देखकर हंसने लगे । उनका मुंह खुला और श्वास के साथ ऋषि बाहर आ गए । ऋषि ने आंख खोलकर देखा तो वे गोलोक में नहीं व्रज में उसी कालिन्दीतट पर बालु में खड़े हुए हैं, श्रीकृष्ण सखाओं के साथ वैसे ही खेल रहे हैं और वैसे ही हंस रहे हैं ।

दुर्वासा ऋषि का सारा संशय दूर हो गया और वे समझ गए कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म परमात्मा हैं । अश्रुपूरित नेत्रों से वे भूमि पर लोट गए और वहां की धूल उठा-उठाकर अपने ऊपर डालनी शुरु कर दी । दुर्वासा ऋषि ने ‘नन्दनन्दन स्तोत्र’ के द्वारा भगवान की स्तुति की और ‘कृष्ण-कृष्ण’ रटते हुए बदरिकाश्रम की ओर चले गए ताकि एकान्त में प्यारे श्रीकृष्ण के ध्यान में निमग्न रह सकें ।

नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमाया समावृत: ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ।। (गीता ७।२५)

अर्थात्—अपनी योगमाया से छिपा हुआ मैं सबके सामने प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ, इसलिए यह अज्ञानी मनुष्य मुझ जन्मरहित, अविनाशी परमात्मा को तत्त्व से नहीं जानता है, अर्थात् मुझे जन्मने-मरने वाला मानता है।

भगवान जब मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं तब जैसे बहुरूपिया किसी दूसरे स्वांग में लोगों के सामने आता है, उस समय अपना असली रूप छिपा लेता है; वैसे ही भगवान अपनी योगमाया को चारों ओर फैलाकर स्वयं उसमें छिपे रहते हैं । साधारण मनुष्यों की दृष्टि उस माया के परदे से पार नहीं जा सकती; इसलिए अधिकांश लोग उन्हें अपने जैसा ही साधारण मनुष्य मानते हैं । जो भगवान के प्रेमी भक्त होते हैं, जिन्हें भगवान अपने स्वरूप, गुण, लीला का परिचय देना चाहते हैं, केवल उन्हीं के सामने वे प्रत्यक्ष होते हैं ।

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श्रीलड्डूगोपाल की पूजा की सरल विधि

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करै कृष्ण की जो भक्ति अनन्यं ।
सुधन्यं, सुधन्यं, सुधन्यं, सुधन्यं ।।
सदाँ परिक्रमा दंडवत, नैम लीने ।
सुने गान गोविन्द, गाथा प्रवीने ।।
अलंकार, श्रृंगार, हरि के बनावे ।
रचै राजभोग, महाद्रव्य लावे ।।
करै कृष्ण की जो भक्ति अनन्यं ।
सुधन्यं, सुधन्यं, सुधन्यं, सुधन्यं ।। (श्रीनागरीदासजी)

घर-घर में विराजित श्रीलड्डूगोपाल या गोपालजी

‘योगी जिन्हें ‘आनन्द’ कहते हैं, ऋषि-मुनि ‘परमात्मा’ कहते हैं, संत ‘भगवान’ कहते हैं, उपनिषद् ‘ब्रह्म’ कहते हैं, वैष्णव ‘श्रीकृष्ण’ कहते हैं और माताएं व बहनें प्यार से ‘गोपाल’, ‘लाला’ ‘बालकृष्ण’ या ‘श्रीलड्डूगोपाल’ कहती हैं, वह एक ही तत्त्व है । ये सब अनेक नाम एक ही परब्रह्म के हैं ।’

ब्रजमण्डल ही नहीं देश-विदेश के अधिकांश वैष्णवों के घर में भगवान श्रीकृष्ण का बालस्वरूप ‘श्रीलड्डूगोपाल’ या ‘गोपालजी’ के रूप में विराजमान है । स्त्रियां इनकी सेवा-लाड़-मनुहार गोपी या यशोदा के भाव से करती हैं, तो कई लोग श्रीलड्डूगोपाल की सेवा स्वामी, सखा, पुत्र या भाई के भाव से करते हैं ।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है—‘जो मेरी जिस रूप में आराधना या उपासना करता है, मैं भी उसे उसी रूप में उसी भाव से प्राप्त होता हूँ और उसे संतुष्ट कर देता हूँ।‘

वैष्णवों के कारण ही है भगवान की शोभा

भक्ति करने का अर्थ है भगवान की मूर्ति में, भगवान के मंत्र में मन को पिरो देना । भगवान के बालस्वरूप को घर में प्रतिष्ठित कर देने के बाद उन्हें घर का स्वामी मानते हुए घर का प्रत्येक काम उन्हीं की प्रसन्नता के लिए करना भक्ति है ।

  • मीराबाई के लिए कहा जाता है कि वह अपने गोपाल का सुन्दर श्रृंगार करतीं और उनके सम्मुख कीर्तन व नृत्य करती थीं । भगवान को श्रृंगार की जरुरत नहीं है । श्रृंगार से भगवान की शोभा नहीं बढ़ती वरन् आभूषणों की शोभा भगवान के पहनने से बढ़ती है । साधक जितने समय तक भगवान का श्रृंगार करता है उसकी आंखें व मन भगवान पर ही टिकी रहती हैं जिससे उसका मन शुद्ध होता है और भगवान से प्रेम बढ़ता है । बालकृष्ण के स्वरूप के श्रृंगार में आंखें फंस जाएं तो मनुष्य की नैया पार हो जाती है ।
  • विदुरजी और विदुरानी प्रतिदिन बालकृष्ण का तीन घंटे तक ध्यान फिर पुष्पों से श्रृंगार करते थे । वे विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करते हुए भगवान के श्रीचरणों में तुलसी अर्पित करते थे । कीर्तन से बालकृष्ण को प्रसन्न करके भगवान की कथा भगवान को ही सुनाते थे । बालकृष्ण का दर्शन करते हुए उनकी आंखों में आंसू बहने लगते व शरीर में रोमांच होने लगता था । इस प्रकार सेवा, ध्यान, जप, कीर्तन, कथा आदि में निमग्न रहकर वे मन को भगवान से दूर जाने ही नहीं देते थे । विदुर-विदुरानी की भक्ति से आकर्षित होकर द्वारिकानाथ उनके घर खिंचे चले आए व उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए ।

श्रीलड्डूगोपाल की पूजा की सरल विधि

प्रभु सेवा को खरच न लागे ।
अपनों जन्म सुफल कर मूरख क्यों डरपे जो अभागे ।।
उदर भरन को करी रसोइ सोइ भोग धरे ।
महाप्रसाद होय घटे न किनको अपनो उदर भरे ।।
मीठो जल पीवन को लावे तामें झारी भरे ।
अंग ढांकनकूं चहिये कपड़ा तामें साज करे ।।
जो मन होय उदार तुमारो वैभव कछु बढ़ावो ।
नहिं तो मोरचंद्रिका गुंजा यह सिंगार धरावो ।।
अत्तर फूल फल जो कछु उत्तम प्रभु पहिलेहि धरावो ।
जो मन चले वस्तु उत्तम पे प्रभु को धर सब खावो ।।
कर सम्बन्ध स्वामी सेवक को चल मारग की रीति ।
पूरन प्रभु भाव के भूखे देखें अंतर की प्रीति ।।
यामें कहा घट जाय तिहारो घर की घर में रहिहे ।
वल्लभदास होय गति अपनी भलो भलो जग कहिहे ।।

इस पद में यह बताया गया है कि ठाकुरजी (व्रज में श्रीलड्डूगोपाल को ठाकुरजी कहते हैं) की सेवा में कोई अलग से खर्च नहीं होता है । वे अभागे हैं जो खर्चे के डर से उनकी पूजा नहीं करते और अपना जन्म सफल करने से वंचित रह जाते हैं । घर के सदस्यों के लिए जो भोजन बने उसी से पहिले ठाकुरजी को भोग लगा दो, वह महाप्रसाद बन जाएगा किन्तु उसमें से एक किनका भी कम नहीं होगा । घर में अपने पीने के लिए जो जल है, उसी से ठाकुरजी के पीने के लिए झारी भर दो । अपने शरीर को ढकने के लिए आप वस्त्र लाते हैं, उसी से उनका पीताम्बर बना दो । यदि श्रद्धा और सामर्थ्य हो तो कुछ वैभव (सोना-चांदी के श्रृंगार) की वस्तुएं उनके लिए ले आओ, नहीं तो केवल मोरमुकुट और गुंजामाला से भी ठाकुरजी प्रसन्न हो जाते हैं । इत्र, फल-फूल घर में हों तो पहिले ठाकुरजी को अर्पण कर दो । अगर तुम्हारा मन कुछ अच्छा खाने को करे तो पहिले ठाकुरजी को अर्पण करके खाओ । ठाकुरजी के साथ स्वामी का सम्बन्ध रखते हुए उन्हीं के बताए मार्ग पर चलें । वे तो केवल भाव के भूखे हैं और साधक के मन के भाव ही देखते हैं । इस तरह ठाकुरजी की सेवा करने से कुछ घटता भी नहीं, सब कुछ घर का घर में ही रहता है और मनुष्य का लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं ।

श्रीलड्डूगोपाल को प्रसन्न करने के विशेष उपाय

बालरूप श्रीलड्डूगोपाल से जैसा प्रेम आप करेंगें, उससे हजारगुना प्रेम वह आपके साथ करेंगे । जो श्रीलड्डूगोपाल की सेवा-ध्यान में तन्मय रहता है उसके ऊपर संसार के सुख-दु:ख का प्रभाव नहीं पड़ता है । उसके अनेक जन्मों के पाप एक ही जन्म में जल जाते हैं और दारिद्रय दूर होकर घर में स्थिर लक्ष्मी का वास होता है क्योंकि श्रीलड्डूगोपाल का एक नाम है—‘भक्तदारिद्रयदमनो’ । श्रीलड्डूगोपाल को प्रसन्न करने के लिए उनकी सेवा इस प्रकार करें—

—शंख में जल भरकर ‘ॐ नमो नारायणाय’ या ‘गोपीजनवल्लभाय नम:’ या ‘श्रीकृष्णाय नम:’ का उच्चारण करते हुए बालकृष्ण को नहलाना चाहिए । इससे मनुष्य के सारे पाप दूर हो जाते हैं।

—संभव हो तो प्रतिदिन अन्यथा द्वादशी और पूर्णिमा को श्रीलड्डूगोपाल को गाय के दूध से स्नान कराकर चंदन अर्पित करना चाहिए।

—स्कन्दपुराण के अनुसार प्रतिदिन प्रात:काल में जो श्रीलड्डूगोपाल को माखन-मिश्री, दूध-दही व तुलसी की मंजरियां, चंदन का इत्र व कमल का पुष्प अर्पण कर प्रसन्न करता है, वह इस लोक में समस्त वैभव प्राप्त करके मृत्यु के बाद उनके परम धाम को प्राप्त करता है।

—भगवान बालकृष्ण को श्यामा तुलसी की श्याम मंजरी अति प्रिय है ।

—श्रीलड्डूगोपाल की सेवा करने वाले वैष्णव को गले में तुलसी की कण्ठी पहननी चाहिए । गले में तुलसी माला धारण करने का अर्थ है कि यह शरीर कृष्णार्पण कर दिया है, यह शरीर अब परमात्मा का हुआ ।

—श्रीलड्डूगोपाल को माखन-मिश्री अत्यन्त प्रिय है । माखन दूध का सारतत्त्व है । बालकृष्ण की सेवा करने वाले वैष्णव सार-भोगी बनते हैं ।

—भगवान को अर्पित भोग की वस्तु में तुलसी रखते हैं, तब वह वस्तु कृष्णार्पण होती है । जिस घर में भगवान को भोग लगाया जाता है उस घर में लक्ष्मीजी और अन्नपूर्णा अखण्डरूप से विराजमान रहती हैं । उस पवित्र अन्न को खाने से मनुष्य की बुद्धि सात्विक रहती है और शरीर में रोग उत्पन्न नहीं होते हैं ।

—श्रीलड्डूगोपाल का प्रिय मन्त्र दामोदर-मन्त्र है—‘श्रीदामोदराय नम:’ । इस मन्त्र को दामोदरमास (कार्तिक मास) में करने से भगवान बालगोपाल शीघ्र ही प्रसन्न होकर सिद्धि प्रदान करते हैं । भगवान का कथन है कि अपने दामोदर नाम से मुझे ऐसी प्रसन्नता होती है जिसकी कहीं तुलना नहीं है ।

—श्रीलड्डूगोपाल की पूजा करने वाले वैष्णवों को प्रतिदिन गोपालसहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए । इसके अतिरिक्त श्रीमद्भागवतपुराण के दशम स्कन्ध का प्रतिदिन पाठ (चाहे एक श्लोक का ही क्यों न हो) और गीता का पाठ भी बालकृष्ण को बहुत प्रिय है ।

—श्रीलड्डूगोपाल की प्रतिदिन प्रदक्षिणा व साष्टांग प्रणाम करने से भी उनकी कृपा शीघ्र ही प्राप्त हो जाती है ।

—श्रीगोपालजी के सहस्त्रों नामों में से कुछ नाम हैं–’नित्योत्सवो नित्यसौख्यो, नित्यश्रीर्नित्यमंगल:।’ (श्रीगोपालसहस्त्रनाम)

अर्थात् वे नित्य उत्सवमय, सदा सुखसौख्यमय, शोभामय और मंगलमय हैं । श्रीकृष्ण के लिए माता यशोदा नित्य ही उत्सव मनाती थीं । बालकृष्ण ने जब पहली बार करवट ली तो उस दिन माता ने कटि-परिवर्तन उत्सव मनाया था और गरीब ग्वालों और गोपियों की पूजाकर उन्हें दान दिया था । इसी कारण व्रजमण्डल में भगवान श्रीकृष्ण के नित्य कोई-न-कोई उत्सव होते रहते हैं ।

घर में ठाकुरजी को प्रतिष्ठित करने के बाद जब भी संभव हो, उनकी प्रसन्नता के लिए उत्सव किए जाने चाहिए । उत्सव भगवान को स्मरण करने और जगत को भुलाने के लिए हैं । उत्सव के दिन भूख-प्यास भुलाई जाती है, देह का बोध भुलाया जाता है । उत्सव में धन गौण है, मन मुख्य है । विभिन्न उत्सवों पर भगवान को ऋतु अनुकूल सुन्दर पोशाक व श्रृंगार धारण कराकर दर्पण दिखाना चाहिए क्योंकि बालकृष्ण अपने रूप पर ही मोहित होकर रीझ जाते हैं । बच्चे की भांति उन्हें सुन्दर खिलौने—गाय, मोर, हंस, बतख, झुनझना, फिरकनी, गेंद-बल्ला, झूला आदि सजाकर प्रसन्न करना चाहिए ।

—श्रीलड्डूगोपाल को प्रतिदिन कोमल नर्म बिस्तर पर शयन करानी चाहिए ।

प्रेम-बंधन से ही बंधते हैं भगवान

यदि वैष्णव भगवान की अपेक्षा जगत से अधिक प्रेम करता है तो यह बात ठाकुरजी को नहीं सुहाती । वे सोचते हैं प्रेम करने योग्य मैं हूँ, यह मुझे क्यों नहीं भजता ? मनुष्य जब भगवान का नाम-जप-सेवा-अर्चना करता है, तो उन्हें उसके योगक्षेम की चिन्ता होती है । ‘मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं’—ऐसा भाव रखकर जो बालगोपाल की सेवा करते हैं तथा भगवान के सिवाय किसी और वस्तु की कामना नहीं करते हैं, उन्हें भगवान अपने स्वरूप का दर्शन कराकर अपने धाम में भेज देते हैं ।

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भगवान का पेट कब भरता है?

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भाव का भूखा हूँ मैं और भाव ही एक सार है।
भाव से मुझको भजे तो भव से बेड़ा पार है।।
भाव बिन सब कुछ भी दे डालो तो मैं लेता नहीं।
भाव से एक फूल भी दे तो मुझे स्वीकार है।।
भाव जिस जन में नहीं उसकी मुझे चिन्ता नहीं।
भाव पूर्ण टेर ही करती मुझे लाचार है।।

दुखियों की पीड़ा को दूर करना ही भगवान की वास्तविक सेवा

प्रत्येक जीव में भगवान बस रहे हैं, ऐसा मानकर सभी प्राणियों को सम्मान देना और सुख पहुंचाना चाहिए। जो दूसरों को दु:ख देकर भगवान की पूजा करता है, भगवान उस पूजा को स्वीकार नहीं करते हैं। भगवान की असली सेवा-पूजा वही व्यक्ति करता है जो दूसरों के दु:ख से दु:खी और दूसरों के सुख से सुखी होता है—‘पर दुख दुख सुख सुख देखे पर।’ (मानस ७।३८।१)

केवल अपने सुख के लिए जो वस्तुओं का संग्रह करता है उसे सदैव सुख की कमी रहती है। जो त्याग करके दूसरों को सुखी करता है उसको कभी सुख की कमी रहती ही नहीं है; क्योंकि भगवान भी अपनी पूरी शक्ति लगाकर उसको सुखी बनाते हैं।

भगवान का पेट कब भरता है ?

तीनि लोक नवखंड में सदा होत जेवनार।
कै सबरी कै बिदुर घर तृप्त हुए दुइ बार।।

अर्थात्—यद्यपि संसार में सदैव ही भगवान के निमित्त भंडारे, ब्रह्मभोज आदि चलते रहते हैं परन्तु भगवान केवल दो बार ही शबरी और विदुरजी के घर कंद-मूल खाकर पूर्ण तृप्त हुए थे।

प्राचीनकाल में एक परम शिवभक्त राजा था। एक दिन उसके मन में इच्छा हुई कि सोमवार के दिन अपने आराध्य भगवान शिव का हौद (वह भाग जहां जलहरी सहित पिण्डी स्थित होती है)  दूध से लबालब भर दिया जाए। जलहरी का हौद काफी चौड़ा और गहरा था। राजा की आज्ञा से पूरे नगर में डुग्गी पिटवा दी गयी कि—

‘सोमवार के दिन सारे ग्वाले शहर का पूरा दूध लेकर शंकरजी के मन्दिर आ जाएं, भगवान का हौद भरना है; जो इसका उल्लंघन करेगा, वह कठोर दण्ड का भागी होगा।’

भाव बिन सब कुछ भी दे डालो तो मैं लेता नहीं

राजा की आज्ञा सुनकर सारे ग्वाले बहुत परेशान हुए। किसी ने भी अपने बच्चों को दूध नहीं पिलाया और न ही गाय के बछड़ों को दूध पीने दिया। दुधमुंहे बच्चे भूख से व्याकुल होने लगे। सभी ग्वाले सारा दूध इकट्ठा कर मन्दिर पहुंचे और भगवान शंकर के हौद में दूध छोड़ दिया। किन्तु आश्चर्य! इतने दूध से भी हौद पूरा न भर सका। यह देखकर राजा बड़ी चिन्ता में पड़ गया।

भाव से एक फूल भी दे तो मुझे स्वीकार है

तभी एक बुढ़िया एक लुटिया भर दूध लेकर आयी और बड़े भक्तिभाव से भगवान पर दूध चढ़ाते हुए बोली—‘शहर भर के दूध के आगे मेरे लुटिया भर दूध की क्या बिसात! फिर भी भगवन्, मुझ बुढ़िया की श्रद्धा भरी ये दो बूंदें स्वीकार करो।’

जैसे ही बुढ़िया दूध चढ़ाकर मन्दिर से निकली, भगवान का हौद एकाएक दूध से भर गया। वहां उपस्थित सभी लोग आश्चर्य में पड़ गए। राजा के पास खबर पहुंची तो उसके भी आश्चर्य का ठिकाना न रहा।

अगले सोमवार को राजा ने फिर भगवान शिव का हौद दूध से भरने की आज्ञा दी। पूरे नगर का दूध भगवान शंकर के हौद में छोड़ा गया; परन्तु फिर से हौद खाली रह गया। पहले की तरह बुढ़िया आई और उसने अपनी लुटिया का दूध हौद में छोड़ा और हौद भर गया। राजकर्मचारियों ने जाकर राजा को सारा वृतान्त सुनाया। राजा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने स्वयं वहां उपस्थित रहकर इस घटना के रहस्य का पता लगाने का निश्चय किया।

तीसरे सोमवार को राजा की उपस्थिति में नगर भर का दूध भगवान के हौद में डाला गया, पर हौद खाली रहा। इसी बीच वह बुढ़िया आयी और उसके लुटिया भर दूध चढ़ाते ही हौद दूध से भर गया। पूजा करके बुढ़िया अपने घर को चल दी। राजा उसका पीछा करने लगा। कुछ दूर जाने पर राजा ने बुढ़िया का हाथ पकड़ लिया। बुढ़िया भय से थर-थर कांपने लगीं। राजा ने उसे अभय देते हुए कहा—‘माई! मेरी एक जिज्ञासा शान्त करो। तुम्हारे पास ऐसा कौन-सा जादू-टोना या मन्त्र है जिससे तुम्हारे लुटिया भर दूध चढ़ाते ही शंकरजी का हौद एकाएक भर जाता है।’

भाव पूर्ण टेर ही करती मुझे लाचार है

गीता (१२।४)  में कहा गया है—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:’ जिन्हें सबके हित की चिन्ता रहती है, उन्हें भगवान प्राप्त हो जाते हैं।

बुढ़िया ने कहा—‘मैं जादू-टोना, मन्त्र-तन्त्र कुछ भी नहीं जानती, न ही करती हूँ। घर के बाल-बच्चों, ग्वालबालों सभी को दूध पिलाकर तृप्त कर बचे दूध में से एक लुटिया दूध लेकर आती हूँ, भगवान को चढ़ाते ही वे प्रसन्न हो जाते हैं। भाव से उन्हें अर्पण करते ही वे उसे ग्रहण करते हैं और हौद भर जाता है। किन्तु तुम दण्ड का भय दिखाकर जबरन नगर के सारे बालबच्चों, बूढ़ों व ग्वालबालों का पेट काटकर उन्हें भूख से तड़पता छोड़कर सारा दूध अपने कब्जे में करते हो और फिर उसे भगवान को चढ़ाते हो तो उनकी आह से भगवान उसे ग्रहण नहीं करते और उतने सारे दूध से भी भगवान का पेट नहीं भरता और हौद खाली रह जाता है।’

यजुर्वेद (१।११) में कहा गया है—‘हे मनुष्य! तुम्हें प्राणियों की सेवा के लिए पैदा किया गया है, दु:ख देने के लिए नहीं।’

राजा को अपनी भूल समझ में आ गई और आगे से उसने किसी को भी कष्ट पहुंचाने वाली हरकतें न करने की कसम खाली।

प्रजासुखे सुखी राजा तदु:खे यश्च दु:खित:।
स कीर्तियुक्तो लोकेऽस्मिन् प्रेत्य स्वर्गे महीयते।। (विष्णुधर्मशास्त्र अध्याय ३)

अर्थात्—जो राजा प्रजा के सुख से सुखी और प्रजा के दु:ख से दु:खी होता है, प्रजा का अच्छे से पालन-पोषण व रक्षण करता है, उसी को लोक में कीर्ति प्राप्त होती है। प्रजा का दु:ख ही राजा के लिए सबसे बड़ा दु:ख होता है।

पूजनकर्म करते समय रखें इस बात का ध्यान

‘मेरे पास जो कुछ है, वह सब उस परमात्मा का ही है, मुझे तो केवल निमित्त बनकर उनकी दी हुई शक्ति से उनका पूजन करना है’—इस भाव से जो कुछ किया जाए वह सब-का-सब परमात्मा का पूजन हो जाता है। इसके विपरीत मनुष्य जिन वस्तुओं को अपना मानकर भगवान का पूजन करता है, वे (अपवित्र भावना के कारण) पूजन से वंचित रह जाती हैं।’ (गीता १८।४६)

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्तिद् दु:खभाग्भवेत्।।

सब सुखी हो जाएं, सबके जीवन में आनन्द-मंगल हो, कभी किसी को कोई कष्ट न हो—जब इस तरह का भाव हो, वही मनुष्य कहलाने का हकदार है।

यही पशु प्रवृत्ति है कि आप ही आप चरे।
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। (राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त)

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क्या भगवान शिव को अर्पित नैवेद्य ग्रहण करना चाहिए ?

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सौवर्णे नवरत्नखण्ड रचिते पात्रे घृतं पायसं
भक्ष्यं पंचविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम्।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु।। (शिवमानसपूजा)

अर्थात्—मैंने नवीन रत्नजड़ित सोने के बर्तनों में घीयुक्त खीर, दूध, दही के साथ पांच प्रकार के व्यंजन (पकवान), केले के फल, शर्बत, अनेक तरह के शाक, कर्पूर की सुगन्ध वाला स्वच्छ और मीठा जल और ताम्बूल—ये सब मन से ही बनाकर आपको अर्पित किया है। भगवन्! आप इसे स्वीकार कीजिए।

क्या भगवान शिव को अर्पित किया गया नैवेद्य (प्रसाद) ग्रहण करना चाहिए?

सृष्टि के आरम्भ से ही समस्त देवता, ऋषि-मुनि, असुर, मनुष्य विभिन्न ज्योतिर्लिंगों, स्वयम्भूलिंगों, मणिमय, रत्नमय, धातुमय और पार्थिव आदि लिंगों की उपासना करते आए हैं। अन्य देवताओं की तरह शिवपूजा में भी नैवेद्य निवेदित किया जाता है। अन्य देवताओं का प्रसाद तो लोग बड़ी श्रद्धा से ग्रहण करते हैं किन्तु शिवजी के प्रसाद के सम्बन्ध में लोगों के मन में यह दुविधा रहती है कि भगवान शिव को अर्पित किया गया प्रसाद ग्रहण करना चाहिए या नहीं। इसके पीछे कारण यह है कि शिवलिंग पर चढ़े हुए प्रसाद पर चण्ड का अधिकार होता है।

भगवान शिव के मुख से निकले हैं चण्ड

गणों के स्वामी चण्ड भगवान शिवजी के मुख से प्रकट हुए हैं। ये सदैव शिवजी की आराधना में लीन रहते हैं और भूत-प्रेत, पिशाच आदि के स्वामी हैं। चण्ड का भाग ग्रहण करना यानी भूत-प्रेतों का अंश खाना माना जाता है। इसलिए लोगों के मन में डर रहता है कि कहीं शिवजी का प्रसाद खाने से उनके जीवन में कोई विपत्ति न जाए।

शिव-नैवेद्य ग्राह्य और अग्राह्य

शिवपुराण की विद्येश्वरसंहिता के २२वें अध्याय में इसके सम्बन्ध में स्पष्ट कहा गया है—

चण्डाधिकारो यत्रास्ति तद्भोक्तव्यं न मानवै:।
चण्डाधिकारो नो यत्र भोक्तव्यं तच्च भक्तित:।। (२२।१६)

अर्थात्—जहां चण्ड का अधिकार हो, वहां शिवलिंग के लिए अर्पित नैवेद्य मनुष्यों को ग्रहण नहीं करना चाहिए। जहां चण्ड का अधिकार नहीं है, वहां का शिव-नैवेद्य मनुष्यों को ग्रहण करना चाहिए।

किन शिवलिंगों के नैवेद्य में चण्ड का अधिकार नहीं है?

इन लिंगों के प्रसाद में चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: ग्रहण करने योग्य है—

ज्योतिर्लिंग—बारह ज्योतिर्लिंगों (सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल में मल्लिकार्जुन, उज्जैन में महाकाल, ओंकार में परमेश्वर, हिमालय में केदारनाथ, डाकिनी में भीमशंकर, वाराणसी में विश्वनाथ, गोमतीतट में त्र्यम्बकेश्वर, चिताभूमि में वैद्यनाथ, दारुकावन में नागेश्वर, सेतुबन्ध में रामेश्वर और शिवालय में घुश्मेश्वर) का नैवेद्य ग्रहण करने से सभी पाप भस्म हो जाते हैं।

शिवपुराण की विद्येश्वरसंहिता में कहा गया है कि काशी विश्वनाथ के स्नानजल का तीन बार आचमन करने से शारीरिक, वाचिक व मानसिक तीनों पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

स्वयम्भूलिंग—जो लिंग भक्तों के कल्याण के लिए स्वयं ही प्रकट हुए हैं, उनका नैवेद्य ग्रहण करने में कोई दोष नहीं है।

सिद्धलिंग—जिन लिंगों की उपासना से किसी ने सिद्धि प्राप्त की है या जो सिद्धों द्वारा प्रतिष्ठित हैं, जैसे—काशी में शुक्रेश्वर, वृद्धकालेश्वर, सोमेश्वर आदि लिंग देवता-सिद्ध-महात्माओं द्वारा प्रतिष्ठित और पूजित हैं, उन पर चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: उनका नैवेद्य सभी के लिए ग्रहण करने योग्य है।

बाणलिंग (नर्मदेश्वर)—बाणलिंग पर चढ़ाया गया सभी कुछ जल, बेलपत्र, फूल, नैवेद्य—प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए।

—जिस स्थान पर (गण्डकी नदी) शालग्राम की उत्पत्ति होती है, वहां के उत्पन्न शिवलिंग, पारदलिंग, पाषाणलिंग, रजतलिंग, स्वर्णलिंग, केसर के बने लिंग, स्फटिकलिंग और रत्नलिंग—इन सब शिवलिंगों के लिए समर्पित नैवेद्य को ग्रहण करने से चान्द्रायण व्रत के समान फल प्राप्त होता है।
—शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव की मूर्तियों में चण्ड का अधिकार नहीं है, अत: इनका प्रसाद लिया जा सकता है—

‘प्रतिमासु च सर्वासु न चण्डोऽधिकृतो भवेत्।।

—जिस मनुष्य ने शिव-मन्त्र की दीक्षा ली है, वे सब शिवलिंगों का नैवेद्य ग्रहण कर सकता है। उस शिवभक्त के लिए यह नैवेद्य ‘महाप्रसाद’ है। जिन्होंने अन्य देवता की दीक्षा ली है और भगवान शिव में भी प्रीति है, वे ऊपर बताए गए सब शिवलिंगों का प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं।

शिव-नैवेद्य कब नहीं ग्रहण करना चाहिए

—शिवलिंग के ऊपर जो भी वस्तु चढ़ाई जाती है, वह ग्रहण नहीं की जाती है। जो वस्तु शिवलिंग से स्पर्श नहीं हुई है, अलग रखकर शिवजी को निवेदित की है, वह अत्यन्त पवित्र और ग्रहण करने योग्य है।
—जिन शिवलिंगों का नैवेद्य ग्रहण करने की मनाही है वे भी शालग्रामशिला के स्पर्श से ग्रहण करने योग्य हो जाते हैं।

शिव-नैवेद्य की महिमा

—जिस घर में भगवान शिव को नैवेद्य लगाया जाता है या कहीं और से शिव-नैवेद्य प्रसाद रूप में आ जाता है वह घर पवित्र हो जाता है। आए हुए शिव-नैवेद्य को प्रसन्नता के साथ भगवान शिव का स्मरण करते हुए मस्तक झुका कर ग्रहण करना चाहिए।
—आए हुए नैवेद्य को ‘दूसरे समय में ग्रहण करुंगा’, ऐसा सोचकर व्यक्ति उसे ग्रहण नहीं करता है, वह पाप का भागी होता है।
—जिसे शिव-नैवेद्य को देखकर खाने की इच्छा नहीं होती, वह भी पाप का भागी होता है।
—शिवभक्तों को शिव-नैवेद्य अवश्य ग्रहण करना चाहिए क्योंकि शिव-नैवेद्य को देखने मात्र से ही सभी पाप दूर हो जाते है, ग्रहण करने से करोड़ों पुण्य मनुष्य को अपने-आप प्राप्त हो जाते हैं।
—शिव-नैवेद्य ग्रहण करने से मनुष्य को हजारों यज्ञों का फल और शिव सायुज्य की प्राप्ति होती है।
—शिव-नैवेद्य को श्रद्धापूर्वक ग्रहण करने व स्नानजल को तीन बार पीने से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है।

मनुष्य को इस भावना का कि भगवान शिव का नैवेद्य अग्राह्य है, मन से निकाल देना चाहिए क्योंकि कर्पूरगौरं करुणावतारम् शिव तो सदैव ही कल्याण करने वाले हैं। जो ‘शिव’ का केवल नाम ही लेते है, उनके घर में भी सब मंगल होते हैं—

सुमंगलं तस्य गृहे विराजते
शिवेति वर्णैर्भुवि यो हि भाषते।।

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गणपति के नाम, देते हैं खुशहाली का वरदान

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प्रकृति पुरुष तैं परे ध्यान गणपति को करिहै।
नसैं सकल तिनि विघ्न अवसि भवसागर तरिहै।।
पाठ-हवन पूजन करें, पाप रहित होवैं भगत।
सब विघ्ननि तैं छूटिकैं, लेंहिं जनम नहिं पुनि जगत।। (श्रीप्रभुदत्त ब्रह्मचारीजी)

श्री गणेश के पास है सभी समस्याओं का हल

श्रीरामनाम अनुरागी माता पिता श्रीशंकर-पार्वती के पुत्र श्री गणेश भी बड़े हरिनाम प्रिय हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार स्वयं परब्रह्म गोलोकनिवासी श्रीकृष्ण अपने अंश से पार्वतीमाता के पुण्यक व्रत से पुत्र गणेश के रूप में प्रकट हुए हैं। जैसे भगवान श्रीकृष्ण के नामोच्चारण से सभी संकट दूर हो जाते हैं, वैसे ही श्री गणेश के नामोच्चारण से सभी बाधाएं, विघ्न, शाप, शोक दूर हो जाते हैं।

विमाता (सौतेली माता) छाया ने दिया यमराज को शाप

भगवान सूर्य और उनकी पत्नी संज्ञा की तीन संतानें—वैवस्वत मनु, यम और यमुना हुए। संज्ञा सूर्य के तेज को सहन नहीं कर पा रहीं थीं। अत: एक दिन सूर्य के घर में अपनी छाया स्थापित कर वह अश्विनी (घोड़ी) के रूप में उत्तरकुरु देश (वर्तमान में हरियाणा)  तप करने चली गयीं। सूर्य को भी इस रहस्य का पता नहीं चला। छाया से सूर्य के चार संतानें—सावर्णि मनु, शनि, तपती और विष्ठि हुईं। छाया का अपने बच्चों पर बहुत प्रेम था।

सूर्य पत्नी छाया यम और यमुना से सौतेली माता का-सा व्यवहार करती थी। एक बार यमुना और तपती में विवाद हो गया और एक-दूसरे को शाप देकर वे नदी बन गयी।

एक दिन यम को छाया की वास्तविकता का पता चल गया। माता के बर्ताब से खिन्न यम ने पिता सूर्य के सामने छाया का सारा राज खोल देते हुए कहा—‘यह हम लोगों की माता नहीं है और इसका व्यवहार हम लोगों के साथ सौतेली माता के समान है।‘ यम ने क्रुद्ध होकर छाया को मारने के लिए पैर उठाया।

क्रोधित छाया ने यम को शाप दे दिया—‘तुमने मेरे ऊपर चरण उठाया है इसलिए तुम प्राणियों की प्राणहिंसा करने का कर्म करोगे। यदि तुम मेरे द्वारा शापित अपने पैर को पृथ्वी पर रखोगे तो कीड़े उसे खा जाएंगे।’

भगवान सूर्य को सारी बात का पता लगा तो उन्होंने अपने तेजोबल से शाप में सुधार करते हुए यम को वरदान दिया कि ‘पापात्माओं में तुमसे भय होगा और संत तुमसे पीड़ित न होंगे। ब्रह्माजी की आज्ञा से तुम लोकपाल पद प्राप्त करोगे।’ इसी कारण यम धर्मराज के रूप में प्रतिष्ठित होकर पाप-पुण्य का निर्णय करते हैं।

सूर्य ने कहा—‘यमुना का जल गंगाजल के समान पवित्र माना जाएगा और तपती का जल नर्मदाजल के तुल्य पवित्र होगा। आज से छाया सबकी देह में स्थित रहेगी।’

यम ने भी छाया और उसके पुत्र शनि को शाप देते हुए कहा—‘तुम्हारा सूर्य की किरणों से मेल न हो सकेगा और माता के दोष से शनि की दृष्टि में क्रूरता भरी रहेगी।’

माता के शाप से छूटने के लिए यमराज ने की श्रीगणेश आराधना

महिष पर चलने वाले, दक्षिण दिशा के स्वामी धर्मराज यम बारह महाभागवतों में से एक हैं। वे भक्ति के आचार्य माने जाते हैं। पुराणों में इनके नाम से विभिन्न यमगीताएं मिलती हैं। धर्मराज यम ने माता के शाप से छूटने के लिए नामलगांव (मराठावाड़) में आशापूरक गणेशजी की मूर्ति स्थापित कर आराधना की थी।

namal gaon bhagwan shri ganesh

यमराज द्वारा कहे गए श्रीगणेश के 108 नाम

यहां यमराज के द्वारा कहे गये भगवान गणेश के अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र (108 नामों के स्तोत्र) का हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है।

यमराज अपने दूतों से कहते हैं—

हे दूतो! जो लोग (1) गणेश (2) हेरम्ब (3) गजानन (4) महोदर (5) स्वानुभवप्रकाशिन् (6) वरिष्ठ (7) सिद्धिप्रिय (8) बुद्धिनाथ! इस प्रकार उच्चारण करते हों, उनसे अत्यन्त भयभीत रहकर तुम उन्हें दूर से ही त्याग देना ।।1।।

जो हे (9) अनेकविघ्नान्तक (10) वक्रतुण्ड (11) स्वानन्दलोकवासिन् (12) चतुर्भुज (13) कवीश (14) देवान्तकनाशकारिन्—इस प्रकार उच्चारण करते हों, उनसे अत्यन्त डरे रहकर उन्हें छोड़ देना, उन्हें पकड़कर लाने की चेष्टा न करना ।।2।।

जो हे (15) महेशनन्दन (16) गजदैत्यशत्रो (17) वरेण्यपुत्र (18) विकट (19) त्रिनेत्र (20) परेश  (21) पृथ्वीधर (22) एकदन्त—इस प्रकार उच्चारण करते हों, उनसे भयभीत रहकर उन्हें दूर से ही त्याग देना ।।3।।

हे (23) प्रमोद (24) मोद (25) नरान्तकारे (26) षडूर्मिहन्त: (27) गजकर्ण (28) ढुण्ढे (29) द्वन्द्वाग्निसिन्धो (30) स्थिरभावकारिन्—इस प्रकार उच्चारण करने वाले व्यक्तियों को उनसे डरते हुए दूर से ही छोड़ देना।।4।।

हे (31) विनायक (32) ज्ञानविघातशत्रो (33) पराशरात्मज (34) विष्णुपुत्र (35) अनादिपूज्य (36) आखुग (मूषकवाहन) (37) सर्वपूज्य—इस प्रकार उच्चारण करने वालों को भयभीत होकर छोड़ देना।।5।।

हे (38) विरंचिनन्दन (39) लम्बोदर (40) धूम्रवर्ण (41) मयूरपाल (42) मयूरवाहन (43) सुरासुरसेवितपादपद्म—ऐसा उच्चारण करने वाले व्यक्तियों को उनसे भय मानकर त्याग देना।।6।।

हे (44) करिन् (45) महाखुध्वज (46) शूपकर्ण (47) शिव (48) अज (49) सिंहवाहन (50) अनन्तवाह (51) दयासिन्धो (52) विघ्नेश्वर (53) शेषनाभे—ऐसा उच्चारण करने वाले व्यक्तियों को दूर से ही त्याग देना और उनसे अत्यन्त भयभीत रहना।।7।।

हे (54) सूक्ष्म से भी अत्यन्त सूक्ष्म और महान से भी अत्यन्त महान (55) रविपूज्य (56) योगेशज (57) ज्येष्ठराज (58) निधीश (59) मन्त्रेश (60) शेषपुत्र—ऐसा उच्चारण करने वाले व्यक्तियों को त्याग देना और उनसे अत्यन्त भयभीत रहना।।8।।

हे (61) वरप्रदाता (62) अदितिनन्दन (63) परात्परज्ञानद (64) तारकवक्त्र (65) गुहाग्रज (66) ब्रह्मप (67) पार्श्वपुत्र—ऐसा उच्चारण करने वालों को छोड़ देना और उनसे डरते रहना।।।9।।

हे (68) सिन्धुशत्रो (69) परशुप्रपाणे (70) शमीशपुष्पप्रिय (71) विघ्नहारिन् (72) दूर्वांकुरपूजित (73) देवदेव—ऐसा कहने वालों को दूर से ही त्याग देना और उनसे डरते रहना।।10।।

हे (74) बुद्धिप्रद (75) शमीप्रिय (76) सुसिद्धिदायक (77) सुशान्तिप्रदायक (78) अमेयमाय (79) अमितविक्रम—ऐसा कहने वालों को दूर से ही त्याग देना और उनसे डरते रहना।।11।।

हे (80) शुक्ल-कृष्ण-द्विविध (81) चतुर्थीप्रिय (82) कश्यपपूज्य (83) धनप्रदायक (84) ज्ञानपदप्रकाश (85) चिन्तामणे (86) चित्तविहारकारिन् —ऐसा जो उच्चारण करते हों, उनको दूर से ही त्याग देना और उनसे सदा डरते रहना।।12।।

हे (87) यमशत्रु (88) अभिमानशत्रु (89) विधूद्भवारे (कामनाशन) (90) कपिलपुत्र (91) विदेह (92) स्वानन्दस्वरूप (93) अयोगयोग गणेश—ऐसा जो उच्चारण करते हों, उनको दूर से ही त्याग देना और उनसे सदा डरते रहना।।13।।

हे (94) दैत्यगण और कमलासुर के शत्रु (95) समस्त भावों के ज्ञाता (96) भालचन्द्र गणेश (97) आदि, मध्य और अन्त से रहित (98) भय का नाश करने वाले—ऐसा जो उच्चारण करते हों, उनको दूर से ही त्याग देना और उनसे सदा डरते रहना।।14।।

हे (99) विभो (100) जगत्स्वरूप (101) गणेश (102) भूमन् (103) पुष्टिपते (104) आखुगते (105) अतिबोध (106) स्रष्टा (107) पालक (108) संहारक—ऐसा जो उच्चारण करते हों, उनको दूर से ही त्याग देना और उनसे सदा डरते रहना।।15।।

श्रीगणेश के 108 नामों के पाठ से मिलता है खुशहाली का वरदान

यह भगवान ढुण्ढिराज गणेश का स्तोत्र है। यमराज ने दूतों को आदेश दिया कि जो लोग नित्य इन एक सौ आठ नामों का पाठ करते हैं या सुनते हैं और जिन घरों में भगवान श्रीगणेश के चिह्न हों, उनसे सदैव भयभीत होकर दूर रहना, उस घर में प्रवेश न करना। इस अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य सभी प्रकार के भोग और मोक्ष प्राप्त करता है। भगवान गणेश जब प्रसन्न हो जाते हैं तब दसों दिशाओं से मनुष्य को सुख-समृद्धि प्राप्त होती है और सारे पाप दूर हो जाते हैं। गणेशजी का स्मरण सभी सुमंगलों की खान व कार्यों में सफलता देने वाला है

भाव-भगति से कोई शरणागत आवे।
संतत सम्पत सबही भरपूर पावे।।

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