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दस महाविद्याओं की आराधना का पर्व है गुप्त नवरात्रि

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चार नवरात्र हैं चार पुरुषार्थों–धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतीक

देवीभागवत में 1. चैत्र, 2. आषाढ़, 3. आश्विन और 4. माघ—इन चार महीनों में चार नवरात्र बताए गए हैं । सभी नवरात्र शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा से नवमी तक मनाये जाते हैं ।

इनमें चैत्र (वासन्तिक नवरात्र) और आश्विन (शारदीय नवरात्र) में जगदम्बा के नौ स्वरूपों (शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघण्टा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री) की आराधना होती है । जबकि आषाढ़ और माघमास की नवरात्रि ‘गुप्त नवरात्रि’ कहलाती हैं जिनमें देवी की पूजा-अर्चना के साथ दस महाविद्याओं की भी साधना की जाती है । इस दौरान मां जगदम्बा की आराधना गुप्‍त रूप से की जाती है और इसमें मानसिक पूजा का अधिक महत्त्व है इसलिए इन्‍हें गुप्‍त नवरात्रि कहा जाता है ।

तंत्रविद्या में आस्‍था रखने वाले लोगों के लिए गुप्त नवरात्रि बहुत महत्‍व रखती है । इस दौरान देवी भगवती के साधक बेहद कड़े नियम के साथ व्रत और साधना कर दुर्लभ शक्तियों को प्राप्त करने का प्रयास करते हैं । गुप्त नवरात्रि के बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी होती है ।


इस वर्ष (2018 में) आषाढ़ शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि दिन शनिवार तारीख 14 जुलाई से गुप्त नवरात्रि शुरू हो रही हैं । कुछ लोग 13 जुलाई शुक्रवार से भी गुप्त नवरात्रि मनायेंगे ।


 

दस महाविद्याओं का आविर्भाव क्यों और कैसे हुआ ?

दस महाविद्याओं का आविर्भाव क्यों और कैसे हुआ–इस सम्बन्ध में एक रोचक कथा देवीपुराण में मिलती है।

पूर्वकाल में प्रजापति दक्ष ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें सभी देवता व ऋषिगण निमन्त्रित थे, किन्तु भगवान शिव से द्वेष हो जाने के कारण दक्ष ने न तो उन्हें निमन्त्रित किया और न ही अपनी पुत्री सती को बुलाया । सती ने भगवान शिव से पिता के यज्ञ में जाने की अनुमति मांगी परन्तु शिवजी ने वहां जाना अनुचित बताकर उन्हें जाने से रोका । सती पिता के घर जाने के अपने निश्चय पर अटल रहीं । उन्होंने भगवान शिव से कहा–’मैं प्रजापति के यज्ञ में अवश्य जाऊंगी और वहां या तो अपने पति देवाधिदेव शिव के लिए यज्ञ भाग प्राप्त करुंगी या यज्ञ को ही नष्ट कर दूंगी ।’

पिता द्वारा शिव के अपमान से त्रस्त होकर सती ने धारण किया काली रूप

यह कहते हुए सती ने अत्यन्त विकराल काली का रूप धारण कर लिया । क्रोधाग्नि से उनका रंग कृष्ण हो गया, होँठ फड़कने लगे, उनकी भयानक जिह्वा बाहर निकली हुई थी, अर्धचन्द्र व मुण्डमाला धारण किए हुए वे विकट हुंकार कर रही थीं । देवी के इस महाभयानक रूप को देखकर भगवान शिव डरकर भागने लगे ।

सती के अंग से दस दिशाओं में निकली दस महाविद्या

भागते हुए शिव को दसों दिशाओं में रोकने के लिए देवी ने दसों दिशाओं में अपने अंग से दस देवियों को प्रकट किया । शिवजी जिस-जिस दिशा में जाते, उस-उस दिशा में उन्हीं भयानक देवियों को खड़ा पाते थे । भगवान शिव ने सती से पूछा—‘ये कौन हैं ?’ इनके नाम क्या हैं और इनकी विशेषता क्या हैं ?

सती (पार्वती) के ही दस रूप और शक्तियां हैं दस महाविद्या

सती ने कहा—‘ये मेरे दस रूप हैं । अापके सामने कृष्णवर्णा और भयंकर नेत्रों वाली हैं वह काली हैं । नीले रंग की तारा आपके ऊर्ध्वभाग में विराजमान हैं । आपके दाहिनी ओर भयदायिनी मस्तकविहीन ‘छिन्नमस्ता’ हैं, बाएं भुवनेश्वरी, पीठ के पीछे शत्रुओं का नाश करने वाली बगलामुखी, अग्निकोण (पूर्व-दक्षिण) में विधवा का रूप धारण किए ‘धूमावती’ हैं, नैऋत्यकोण (दक्षिण-पश्चिम) में ‘त्रिपुरसुन्दरी’, वायव्यकोण (पश्चिम-उत्तर) में ‘मातंगी’, तथा ईशानकोण (उत्तर-पूर्व) में ‘षोडशी’ हैं । मैं खुद भैरवी रूप में अभयदान देती हूँ ।’

इस प्रकार दस महाविद्याएं देवी सती के काली रूप की शक्तियां हैं । महाकाली के दस प्रधान रूपों को ही दस महाविद्या कहा जाता है।

काली, तारा, छिन्नमस्ता, बगला और धूमावती–ये पांच महाविद्याओं के कठोर या उग्र रूप हैं।

भुवनेश्वरी, षोडशी (ललिता), त्रिपुरभैरवी, मातंगी और कमला–ये पांच महाविद्याओं के सौम्य रूप हैं ।

नवरात्रि को गुप्त क्यों कहा जाता है ?

ये सभी गोपनीय महाविद्याएं हैं । इनकी साधना गुप्त रूप से नवरात्रि में की जाती है । इनके मन्त्र, यन्त्र, कवच आदि को सावधानीपूर्वक गुप्त रखना चाहिए । हर किसी को बताना नहीं चाहिए इससे सिद्धि प्राप्त नहीं होती है तथा अशुभ होता है । इसलिए इन्हें गुप्त नवरात्रि कहते हैं ।

दस महाविद्या की संयुक्त उपासना का मन्त्र

नवरात्रि के नौ दिनों में मां की पूजा-श्रृंगार, अखण्ड दीपक व भजन आदि से आराधना करने पर साधक के सभी बिगड़े काम बन जाते हैं । साथ ही दस महाविद्याओं की प्रसन्नता के लिए नीचे दिए किसी भी श्लोक का पाठ कर लेना चाहिए ।

     (1)

जय दुर्गे दुर्गतिनाशिनी जय ।
जय मा कालविनाशिनी जय जय ।।
जय काली जय तारा जय जय ।
जय जगजननि षोडशी जय जय ।।
जय भुवनेश्वरी माता जय जय ।
जयति छिन्नमस्ता मा जय जय ।।
जयति भैरवी देवी जय जय ।
जय जय धूमावती जयति जय ।
जय बगला मातंगी जय जय ।
जयति जयति मा कमला जय जय ।।

     (2)

काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी ।
बगला छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा ।।
मातंगी त्रिपुरा चैव विद्या च कमलात्मिका ।
एता दश महाविद्या: सिद्धविद्याः प्रकीर्तिता: ।
एषा विद्या प्रकथिता सर्वतन्त्रेषु गोपिता ।।

दस महाविद्याओं की उपासना दूर करती है हर संकट

  • दस महाविद्याओं की उपासना से साधक को चारों पुरुषार्थ—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त होते हैं । ये महाविद्याएं सिद्ध होकर अनन्त सिद्धियां देने व परमात्मा का साक्षात्कार कराने में समर्थ हैं ।
  • इनकी साधना से हर कार्य में विजय, धन-धान्य, ऐश्वर्य, यश, कीर्ति और पुत्र आदि की प्राप्ति के साथ ही मोक्ष की भी प्राप्ति होती है ।
  • इन महाविद्याओं की आराधना अपने आन्तरिक गुणों और आन्तरिक शक्तियों के जागरण के लिए की जाती है ।
  • इन्हीं की कृपा से मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तम्भन आदि प्रयोग सिद्ध होते हैं ।

अलग-अलग उद्देश्य के लिए निकली दस महाविद्या

काली—समस्त बाधाओं से मुक्ति, भयंकर विपत्तियों से रक्षा ।

तारा—यह तांत्रिकों की प्रमुख देवी हैं । साधक को मोक्ष देने वाली (तारने वाली) होने से तारा कहलाती हैं । वाक्पटुता, आर्थिक उन्नति प्रदान करने के साथ ही शत्रुनाश करती हैं ।

छिन्नमस्ता—वैभव, शत्रु पर विजय, सम्मोहन ।

षोडशी या त्रिपुरसुंदरी—भक्तों को वे प्रसन्न होकर क्या नहीं देतीं ! इनकी आराधना से साधक के जीवन में किसी भी चीज की कमी नहीं रहती है ।

भुवनेश्वरी—सुख शांति, अभय व समस्त सिद्धियां ।

त्रिपुरभैरवी—सुख-वैभव, विपत्तियों को हरने वाली, इन्द्रियों पर विजय, सर्वत्र उत्कर्ष ।

बगलामुखी–ये ‘पीताम्बरा’ विद्या के नाम से भी जानी जाती हैं । ये पीले वर्ण की हैं और पीले ही वस्त्र, आभूषण और माला धारण किए हुए हैं । मां बगलामुखी की आराधना से वाद-विवाद में विजय और शत्रु पर विजय प्राप्त होती है तथा वाक् सिद्धि मिलती है ।

धूमावती— दरिद्रता का विनाश ।

मातंगी—सुखमय गृहस्थ जीवन, कार्य की सिद्धि और ज्ञान-विज्ञान ।

कमला—साधक को कुबेर के समान सुख समृद्धि प्रदान करती हैं ।

इस प्रकार गुप्त नवरात्रि में जगदम्बा और उनकी दस महाविद्याओं के श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पूजन से मानव सभी प्रकार की बाधाओं से मुक्त होकर धन-धान्य, पुत्र व सम्पत्ति से सम्पन्न हो जाता है ।

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