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शनिदेव को तेल क्यों चढ़ाया जाता है ?

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नवग्रहों में शनिदेव को दण्डाधिकारी का स्थान दिया गया है । वे मनुष्य हो या देवता, राजा हो या रंक, पशु हो या पक्षी सबके लिए उनके कर्मानुसार दण्ड का विधान करते हैं; लेकिन जब स्वयं न्यायाधीश ही गलती करे तो परमात्मा ही उसके लिए दण्ड तय करता है । ऐसा ही कुछ शनिदेव और रामभक्त हनुमान के प्रसंग में देखने को मिलता है ।

सभी दु:खों का कारण है अभिमान

भारतीय संस्कृति में स्वयं को बड़ा नहीं माना जाता, बल्कि दूसरों को बड़ा और आदरणीय मानने की परम्परा रही है । अभिमान (घमण्ड, दर्प, दम्भ और अहंकार) ही सभी दु:खों व बुराइयों का कारण है । जैसे ही मनुष्य के हृदय में जरा-सा भी अभिमान आता है, उसके अन्दर दुर्गुण आ जाते हैं और वह उद्दण्ड व अत्याचारी बन जाता है । लंकापति रावण चारों वेदों का ज्ञाता, अत्यन्त पराक्रमी और भगवान शिव का अनन्य भक्त होते हुए भी अभिमानी होने के कारण समस्त कुल सहित विनाश को प्राप्त हुआ । परमात्मा भी विनम्र व्यक्ति से ही प्रसन्न होते हैं–

लघुता से प्रभुता मिलै, प्रभुता से प्रभु दूर ।
चींटी शक्कर लै चली हाथी के सिर धूर ।।

तुलसीदासजी (राचमा, उत्तरकाण्ड ७।७४।५-६) में कहते हैं–

सुनहु राम कर सहज सुभाऊ ।
जन अभिमान न राखहिं काऊ ।।
संसृत मूल सूलप्रद नाना ।
सकल सोक दायक अभिमाना ।।

भगवान श्रीराम का स्वभाव है कि वे भक्त में अभिमान नहीं रहने देते; क्योंकि अभिमान जन्म-मरण रूप संसार का मूल है और अनेक प्रकार के क्लेशों और शोक को देने वाला है । भगवान अहंकार को शीघ्र ही मिटाकर भक्त का हृदय निर्मल कर देते हैं । उस समय थोड़ा कष्ट महसूस होता है लेकिन बाद में उसमें भगवान की करुणा ही दिखाई देती है ।

जाको प्रभु दारुण दु:ख देहीं, ताकी मति पहले हरि लेंहीं

शनिदेव को तेल क्यों चढ़ाया जाता है?’—इस प्रसंग में यह कहावत बिल्कुल सही उतरती है ।

एक बार सूर्यास्त के समय श्रीराम-भक्त हनुमानजी राम-सेतु के पास अपने आराध्य के ध्यान में मग्न थे । इससे उन्हें आस-पास की बिल्कुल स्मृति न थी । उसी समय सूर्यपुत्र शनि भी समुद्रतट पर टहल रहे थे । शक्ति और पराक्रम के अहंकार में चूर होकर शनिदेव सोचने लगे—‘सृष्टि में मेरी समता करने वाला कोई नहीं है । मेरे आगमन का समाचार सुनकर बड़े-बड़े पराक्रमी मनुष्य ही नहीं वरन् देव और दानव भी कांप उठते हैं । मेरी शक्ति का कोई उपयोग ही नहीं हो रहा है । मैं कहां जाऊं, किसके साथ दो-दो हाथ करूं ।’

तभी उनकी दृष्टि ध्यानमग्न हनुमानजी पर पड़ी । सूर्य की तीखी किरणों से अत्यन्त काले हुए शनिदेव ने हनुमानजी के साथ युद्ध करने का निश्चय किया ।

अहंकार का नशा पतन की ओर ले जाता है

हनुमानजी के पास जाकर अत्यन्त कर्कश स्वर में शनिदेव ने कहा—‘बंदर ! मैं शक्तिशाली शनि तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ । पाखण्ड छोड़कर युद्ध के लिए खड़े हो जाओ।’

तिरस्कारपूर्ण वाणी सुनकर हनुमानजी ने पूछा—‘आप कौन हैं?’ अहंकार में चूर शनिदेव ने कहा—‘मैं सूर्य का पराक्रमी पुत्र शनि हूँ । संसार मेरे नाम से ही कांप उठता है । मैं तुम्हारी राशि पर आ रहा हूं, तुम्हारी शक्ति की परीक्षा लेना चाहता हूं ।’

हनुमानजी ने शनिदेव को टरकाने के लिए बहुत बहाने किए कि मैं वृद्ध हूँ, अपने प्रभु का ध्यान कर रहा हूँ परन्तु शनिदेव अपनी महानता का बखान करते रहे और बोले—‘कायरता तुम्हें शोभा नहीं देती है ।’ यह कहकर उन्होंने महावीर हनुमान का हाथ पकड़ लिया ।

कबीरदासजी के शब्दों में–’जहां आपा तहां आपदा’ अर्थात् जब मनुष्य या देवता किसी में भी अभिमान आता है तब उस पर अनेक प्रकार की आपत्तियां आने लगती हैं ।’

शनिदेव को अपना हाथ पकड़ते देखकर बजरंगबली ने अपनी पूंछ बढ़ाकर शनिदेव को उसमें लपेटना शुरु कर दिया और कुछ ही देर में शनिदेव कण्ठ तक हनुमानजी की पूंछ में बंध गए । उनका अहंकार, पराक्रम सब बेकार गया और वे असहाय होकर पीड़ा से छटपटाने लगे ।

‘अब मेरा राम-सेतु की परिक्रमा का समय हो गया है’—यह कहकर हनुमानजी रामसेतु की दौड़कर प्रदक्षिणा करने लगे । इससे उनकी विशाल पूंछ, जिसमें शनिदेव बंधे हुए थे, वानर व भालुओं द्वारा रखे गये बड़े-बड़े पत्थरों से टकराने लगी । बजरंगबली बीच-बीच में अपनी पूंछ को पत्थरों पर पटक भी देते थे ।

पत्थरों पर पटके जाने से शनिदेव का शरीर लहुलुहान हो गया । असहनीय पीड़ा से कराहते हुए वे हनुमानजी को रुकने की प्रार्थना करते हुए बोले—‘मुझे मेरी उदण्डता का फल मिल गया है अब मेरे प्राण छोड़ दीजिए ।’

भक्त हृदय नवनीत समाना

भक्तों का हृदय तो असीम करुणा से भरा होता है, जरा सी देर में ही वह पिघल जाता है । करुणावरुणालय हनुमानजी ने कहा—‘यदि तुम मेरे भक्त की राशि पर कभी न जाने का वचन दो तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ । यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हें कठोरतम दण्ड प्रदान करुंगा ।’

हनुमानजी के भक्तों को नहीं सताती शनि पीड़ा

शनिदेव ने वचन दिया—‘मैं आपके भक्त की राशि पर कभी नहीं जाऊंगा, आप मुझे बंधनमुक्त कर दें ।’

हनुमानजी ने शनिदेव को छोड़ दिया । चोट की असहनीय पीड़ा से व्याकुल होकर शनिदेव अपने शरीर पर लगाने के लिए तेल मांगने लगे । तभी से उन्हें जो तेल प्रदान करता है, उसे वे संतुष्ट होकर आशीर्वाद देते हैं । इसी कारण शनिदेव को तेल चढ़ाया जाता है ।

हनुमानजी की आराधना दूर करती है शनि पीड़ा

हनुमानजी की आराधना करने वालों को शनिदेव पीड़ा नहीं देते हैं ।▪️मंगलवार व शनिवार को  ‘श्री हनुमते नमः’ मन्त्र की एक माला का जाप, ▪️हनुमान चालीसा का पाठ, ▪️हनुमानजी की प्रतिमा को सिन्दूर का चोला चढ़ाने और भोग लगाने से शनिदेव प्रसन्न रहते हैं ।

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